{ काशी का पुनर्जन्म और उसका पता लगना }
“कोई भी पानी में मत उतरना। सब लोग बाल्टी से पानी लेकर ही नहाएँगे।”
आठ मील की दूरी पर स्थित एक पहाड़ी पर मेरे साथ चल रहे राँची के विद्यालय के बच्चों को मैं निर्देश दे रहा था। हमारे सामने फैले हुए तालाब में उतरने की इच्छा तो हो रही थी, परन्तु मेरे मन में उस तालाब के प्रति एक प्रकार की अरुचि पैदा हो गयी थी। अधिकांश बच्चे तो पानी में अपनी बाल्टियाँ डुबाने लगे, पर कुछ लड़के ठंडे पानी के आकर्षण का विरोध नहीं कर सके। जैसे ही उन्होंने पानी में छलांग लगायी, बड़े-बड़े जलसर्प उनके इर्दगिर्द तैरने लगे। वो कैसा चीखना-चिल्लाना और पानी का चारों ओर उड़ना! पानी से बाहर निकलने में वह कैसी हास्यप्रद तत्परता!
पहाड़ी पर पहुँच जाने के बाद हम लोगों ने वनभोज का आनन्द लिया। मैं एक वृक्ष के नीचे बैठ गया और बच्चे मुझे घेरकर बैठ गये। मुझे अन्तःप्रेरणा के भाव में देखकर बच्चों ने मुझपर प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
एक ने कहाः “गुरुजी, मुझे कृपा करके बताइये कि क्या मैं संन्यास के मार्ग में सदा आपके साथ रहूँगा ?”
“नहीं,” मैंने कहा, “तुम्हें बलपूर्वक तुम्हारे घर ले जाया जायेगा और बाद में तुम्हारी शादी कर दी जायेगी।”
उसे इस बात पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। बड़ी उग्रता के साथ उसने कहाः “केवल मेरी लाश को ही घर ले जाया जा सकेगा।” (परन्तु कुछ ही महीनों में उसके माता-पिता उसे ले जाने के लिये आये और उसके अश्रुपूर्ण विरोध के बावजूद उसे ले गये। कुछ वर्ष बाद उसकी शादी भी हो गयी।)
अनेक प्रश्नों के उत्तर दे चुकने के बाद मुझसे काशी नाम के एक बच्चे ने प्रश्न पूछा। वह लगभग बारह वर्ष का अत्यंत कुशाग्र बुद्धि विद्यार्थी था और सबका प्रिय था।
“गुरुजी!” उसने पूछा, “मेरे भाग्य में क्या लिखा है ?”
“तुम्हारी शीघ्र ही मृत्यु हो जायेगी।” मानो किसी अदमनीय प्रबल शक्ति ने मेरे मुँह से ये शब्द निकाल दिये।
इस रहस्य के खुल जाने से मुझे और अन्य सभी को धक्का लगा और दुःख हुआ। अपने को ऐसा एक बच्चा मानकर कि जिसके मुँह से निकले हुए शब्द दूसरों को आपत्ति में डाल देते हैं, मैं मन ही मन अपनी भर्त्सना करने लगा तथा किसी और प्रश्न का उत्तर देने से मैंने इन्कार कर दिया।
विद्यालय में लौट आने के बाद काशी मेरे कमरे में आया।
“यदि मेरी मृत्यु हो गयी, तो मेरा नया जन्म होने के बाद क्या आप मुझे ढूँढकर फिर से आध्यात्मिक मार्ग पर ले आयेंगे ?” उसने सिसकते हुए पूछा।
इस कठिन गूढ़ ज्ञान से संबंधित उत्तरदायित्व को नकारने के लिये मुझे विवश होना पड़ा। परन्तु उसके बाद कई सप्ताहों तक काशी मेरे पीछे लगा रहा। अन्ततः उसे हताशा में टूटने की कगार पर देखकर मैंने उसे आश्वासन दे दिया।
“हाँ,” मैंने वचन दिया। “यदि भगवान मेरी मदद करेंगे तो मैं तुम्हें ढूंढने का प्रयत्न करूँगा।”
गर्मियों की छुट्टीयों में मैं थोड़े दिनों के लिये बाहर जा रहा था। इस बात का मुझे खेद था कि मैं काशी को अपने साथ नहीं ले जा सकता था। अतः यात्रा पर निकलने से पहले मैंने उसे अपने कमरे में बुला लिया और उसे अच्छी तरह समझा दिया कि चाहे कुछ भी हो जाय, कोई उसे कहीं और चलने का कितना ही आग्रह करे, वह हर दशा में विद्यालय के आध्यात्मिक स्पन्दनों से युक्त वातावरण में ही रहे। किसी कारण से मुझे लग रहा था कि यदि वह अपने घर न जाये तो आने वाले संकट से बच सकता है।
जैसे ही मैं वहाँ से निकला, काशी के पिता राँची पहुँच गये। पन्द्रह दिन तक वे अपने पुत्र का निश्चय यह कहकर बदलने की कोशिश करते रहे कि वह केवल चार दिन के लिये कोलकाता अपनी माँ के पास आ जाय, तो उसके बाद फिर राँची आकर रह सकता है। काशी निरन्तर इन्कार करता रहा। आखिर पिता ने कहा कि वे उसे पुलिस की सहायता से घर ले जायेंगे। इस धमकी से काशी विचलित हो गया, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि उसके कारण विद्यालय की कोई बदनामी हो। उसे जाने के सिवा और कोई रास्ता नज़र नहीं आया।
इसके कुछ ही दिन बाद मैं लौटकर राँची आया। जैसे ही मैंने सुना कि काशी को कैसे ले जाया गया, तो मैं तुरन्त कोलकाता जाने के लिये रेलगाड़ी में बैठ गया। वहाँ पहुँच कर मैंने एक घोड़ागाड़ी किराये पर ले ली। यह आश्चर्यजनक ही था कि जैसे ही मेरी घोड़ा गाड़ी गंगा पर बने हावड़ा पुल को पार कर आगे बढ़ी, सबसे पहले मुझे जो लोग दिखायी दिये, वे थे काशी के पिता और अन्य संबंधी जन – सब सूतक के वस्त्र धारण किये। चिल्लाकर मैंने कोचवान से गाड़ी रोकने के लिये कहा और नीचे कूद कर उस अभागे पिता की ओर गुस्से से घूर घूर कर देखने लगा।
“हत्यारे,” मैं कुछ ज्यादा ही जोश में चिल्ला पड़ा, “तुमने मेरे बच्चे को मार डाला!”
काशी को जबरदस्ती कोलकाता लाने में अपनी भूल का उन्हें पहले ही अहसास हो चुका था। जो थोड़े बहुत दिन बच्चे ने वहाँ बिताये थे, उस दौरान उसने दूषित अन्न खाया था, जिससे उसे कॉलरा हो गया और वह चल बसा।
काशी के लिये मेरा प्रेम और उसे खोज निकालने का दिया हुआ वचन अब दिन-रात मेरे मन को सताने लगा। जहाँ कहीं भी जाता वहीं उसका चेहरा सामने दिखने लगता। वर्षों पहले मैंने अपनी खोयी हुई माँ के लिये जिस प्रकार खोज की थी, उसी प्रकार की खोज अब काशी के लिये शुरू कर दी।
मुझे लगा कि भगवान ने मुझे जो बुद्धि दी है, उसका उपयोग करके मुझे उन सूक्ष्म नियमों का पता लगाने के लिये अपनी सारी शक्तियों को दाँव पर लगा देना चाहिये जिनके द्वारा मैं काशी को सूक्ष्म लोकों में ढूंढ़ सकूँ। यह तो मेरी समझ में आ गया कि वह अतृप्त इच्छाओं के स्पन्दनों से धड़कती एक आत्मा था – सूक्ष्म लोकों में करोड़ों प्रकाशमान आत्माओं के बीच कहीं तैरता प्रकाश का एक गोला। इतनी आत्माओं के स्पन्दनयुक्त प्रकाश-गोलों में मैं उसके साथ कैसे सम्पर्क करता?
एक गूढ़ यौगिक पद्धति का उपयोग कर मैंने भ्रूमध्य में स्थित अपने आध्यात्मिक नेत्र के "माइक्रोफोन" के द्वारा काशी की आत्मा को अपना प्रेम प्रेषित किया।¹ मेरे अंतर में ऐसी प्रेरणा मुझे मिल रही थी कि काशी जल्दी ही पृथ्वीलोक में वापस आ जायेगा और यदि मैं अनवरत रूप से उसे अपनी पुकार भेजता रहूँ, तो उसकी आत्मा अवश्य उत्तर देगी। मैं जानता था कि काशी द्वारा मुझे भेजा गया हल्के से हल्का आवेश भी मुझे अपनी उँगलियों, हाथों एवं मेरुदण्ड में अनुभव होगा।
अपने हाथों को आकाश की ओर ऊपर उठाकर उनका ऐंटेना की तरह उपयोग करता हुआ मैं उस स्थान की दिशा का पता लगाने के लिये प्रायः गोल-गोल घूमा करता, जिसमें मुझे विश्वास था, कि काशी का गर्भ के रूप में पुनर्जन्म हो चुका है। मैं एकाग्रता के द्वारा सुर मिलाये हुए अपने हृदय के “रेडियो” में उसके प्रत्युत्तर को प्राप्त करने की आशा कर रहा था।
काशी की मृत्यु के बाद लगभग छह महीनों तक, अपने उत्साह में कोई कमी आने दिये बिना मैं इस यौगिक प्रविधि का स्थिरचित्त से अभ्यास करता रहा। कोलकाता के भीड़ भरे बहू बाज़ार क्षेत्र में एक दिन मैं अपने कुछ मित्रों के साथ पैदल जा रहा था, तो सदा की भाँति मैंने अपने हाथ ऊपर उठा दिये। उस दिन पहली बार मुझे ऐसा लगा कि कुछ प्रत्युत्तर मिल रहा था। अपनी उँगलियों और हथेलियों से नीचे उतरते विद्युत् संवेदनों को अनुभव कर मैं पुलकित हो उठा। ये तरंगें मेरी चेतना की गहराइयों में उतरकर एक अत्यंत प्रबल विचार में परिणत होने लगीं: “मैं काशी हूँ, मैं काशी हूँ; मेरे पास आइये!”
जब मैंने अपने हृदय के रेडियो पर मन को एकाग्र किया तो यह विचार मुझे करीब-करीब सुनायी देने लगा। काशी की विशिष्ट,² किंचित फटी हुई-सी आवाज़ की फुसफुसाहट में यह बुलावा बार-बार मुझे सुनायी दे रहा था। मैंने तुरन्त अपने साथ चल रहे एक मित्र, प्रकाश दास का हाथ पकड़ लिया और आनन्द से उसकी ओर देखकर मुस्कराने लगा।
“लगता है मैंने काशी को ढूंढ लिया है !”
मैं गोल-गोल घूमने लगा। मेरे मित्र और वहाँ से गुज़रते लोगों के हावभाव से स्पष्ट था कि उनका अच्छा मनोरंजन हो रहा था। विद्युत्-तरंगें मेरी उँगलियों में तभी झनझनाती थीं जब मैं पास के एक रास्ते की ओर मुड़ता था, जिसका नाम भी संयोगवश “सर्पन्टाइन लेन” था। जब मैं दूसरी दिशाओं में मुड़ता था, तब वह सूक्ष्म तरंगें लुप्त हो जाती थीं।
“आह,” मैं चिल्ला पड़ा, “काशी की आत्मा अवश्य इसी गली में रहने वाली किसी माता के गर्भ में है।”
मेरे मित्र और मैं सर्पन्टाइन लेन की ओर बढ़ने लगे। अब मेरे ऊपर उठे हाथों में विद्युत् तरंगें और प्रबल तथा स्पष्ट रूप से अनुभव होने लगीं। मानो किसी चुम्बक के द्वारा, मैं रास्ते के दाहिनी ओर खींच लिया गया।
एक घर के दरवाजे के सामने पहुँचते ही मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब मैंने देखा कि मेरा सारा शरीर जड़वत् हो गया। हर्षोन्माद में अपनी साँस को भी रोके रखकर मैंने दरवाजा खटखटाया। मुझे लग रहा था कि मेरी लम्बी असाधारण खोज सफल हो गयी थी ।
दरवाज़ा एक नौकरानी ने खोला। उससे पता चला कि गृहस्वामी भी घर में ही हैं। वे दूसरे तल्ले से सीढ़ियों से उतरकर नीचे आये और मुस्कराते हुए प्रश्नार्थक मुद्रा से मेरी ओर देखने लगे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अपना प्रश्न करूँ तो कैसे करूँ, जो उचित भी था और अनुचित भी।
“कृपया यह बताइये महाशय, कि क्या आप और आपकी धर्मपत्नी पिछले छह महीनों से बच्चे की प्रत्याशा में हैं ?”³
“हाँ, वह तो है।” यह देखते हुए कि मैं परम्परागत गेरुआँ वस्त्र परिधान किया एक स्वामी हूँ, उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा: “दया कर के इतना बता दीजिये कि आपको मेरी इन बातों का ज्ञान कैसे ?”
जब उन्होंने काशी और उसे दिये गये मेरे वचन के बारे में सुना, तो उस आश्चर्यचकित सज्जन को मेरी बात पर विश्वास हो गया।
“आपको गौर वर्ण के एक पुत्र की प्राप्ति होगी” मैंने उनसे कहा। “उसकी मुखाकृति चौड़ी होगी और उसके माथे के ऊपर सामने की ओर झुका हुआ घुंघराले बालों का एक गुच्छा होगा। उसकी वृत्ति आध्यात्मिक रहेगी।” मुझे यह पूरा विश्वास था कि जन्म लेने वाले इस शिशु में काशी के ये सभी लक्षण होंगे।
बाद में जाकर मैंने उस बच्चे को देखा भी। उसके माता-पिता ने उसे उसके पूर्वजन्म का ही काशी नाम दिया था। शैशवावस्था में भी वह देखने में बिलकुल राँची के मेरे प्रिय छात्र काशी के जैसा ही था। बालक ने तत्काल मुझसे लगाव जताया; गत जन्म का प्रेम दुगुनी तीव्रता के साथ जाग उठा।
कुछ वर्षों बाद किशोरावस्था में पहुँचे उस बालक ने मुझे पत्र लिखा, जब मैं अमेरिका में रह रहा था। उसने संन्यास मार्ग का अवलम्ब करने की अपनी तीव्र आकांक्षा उसमें व्यक्त की थी। मैंने उसे हिमालय के एक सद्गुरु के पास जाने का सुझाव दिया। उस गुरु ने पुनर्जन्म हुए काशी को शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया।
¹ दोनों भृकुटियों के बीच के बिन्दु (भ्रुमध्य केन्द्र) से जब इच्छाशक्ति को प्रक्षेपित किया जाता है तो वह विचार का प्रक्षेपण केन्द्र बन जाता है। जब मनुष्य की भावना या भावशक्ति को हृदय पर एकाग्र किया जाता है तो वह एक मानसिक रेडियो का काम करने लग जाता है, जो दूसरे व्यक्तियों के संदेशों को ग्रहण करता है, चाहे वे लोग कितने ही दूर या पास हों। दूर सम्पर्क (टेलिपैथी) में मनुष्य के मन की विचार तरंगें पहले महाकाश के सूक्ष्म स्पन्दनों में से और फिर पृथ्वी के स्थूलतर आकाश (ether) के स्पन्दनों में से प्रवाहित होती हैं और इस प्रक्रिया में विद्युत् तरंगें उत्पन्न करती हैं। ये विद्युत् तरंगें बाद में दूसरे मनुष्य के मन में विचार-तरंगों में परिवर्तित हो जाती हैं।
² प्रत्येक आत्मा अपने शुद्ध रूप में सर्वज्ञ है। काशी की आत्मा को अपने (काशी के) पूर्वजन्म की समस्त विशिष्टताओं का स्मरण था और इसलिये उसने काशी की फटी आवाज़ की नकल की, जिससे मैं उसे पहचान सकूँ।
³ अनेक लोग शरीर की मृत्यु के बाद किसी सूक्ष्म लोक में ५०० से १००० वर्षों तक भी रहते तो हैं, परन्तु दो जन्मों के बीच के अन्तराल का कोई निश्चित नियम नहीं है। (प्रकरण ४३ देखें) भौतिक या सूक्ष्म शरीर में रहने की अवधि कर्मों द्वारा तय होती है।
मृत्यु, और निद्रा भी, जो एक प्रकार से "मृत्यु का ही लघु रूप है, मर्त्य मनुष्य के लिये आवश्यक है, जिससे आत्मज्ञानविहीन मनुष्य भी कुछ समय के लिये इन्द्रियों के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। मनुष्य मूलतः आत्मा होने के कारण मृत्यु और निद्रा में उसे अपने अशरीरित्व या निराकारत्व की याद दिलाने वाली कुछ बातों का अनुभव होता है, जो उसे नवशक्ति से भर देती हैं।
जैसा कि हिन्दू शास्त्रों में कहा गया है, संतुलन पुनर्स्थापित करने वाला कर्म का नियम है: क्रिया और प्रतिक्रिया, कार्य और कारण, बुवाई और कटाई नैसर्गिक न्याय (ऋत्) के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों और कार्यों के द्वारा अपने भाग्य की रचना स्वयं करता है। बुद्धिमानी से या मूर्खता से वह ब्रह्माण्ड की जिन शक्तियों की गतिशील बना देता है, उन्हें अपने प्रारम्भ बिन्दु के रूप में उसी के पास लौटकर आना ही पड़ता है, जैसे वृत्त की परिधि अपने आरम्भ बिन्दु पर आकर ही पूरी होती है। “यह जगत् गणित के समीकरण की तरह प्रतीत होता है, जिसे आप चाहे जैसे घुमा-फिरा लें, दोनों ओर समान ही बनता है। चुपचाप, पर निश्चित रूप से, हर रहस्य प्रकाश में आता ही है, हर अपराध दण्डित होता ही है, हर सत्कर्म का पुरस्कार मिलता ही है और प्रत्येक अन्याय का परिहार होता ही है।” - इमर्सन ("कम्पेन्सेशन" में)। जीवन की असमानताओं के पीछे निहित कर्म के न्याय-विधान को समझ लेने से मानव-मन ईश्वर और मानव के विरुद्ध असन्तोष से मुक्त हो जाता है।