Great Thinking - Part 4 Life Moves On in Hindi Motivational Stories by r k lal books and stories PDF | महान सोच - भाग 4 (जिंदगी अपने आप चलती है)

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महान सोच - भाग 4 (जिंदगी अपने आप चलती है)

महान सोच - भाग 4 (जिंदगी अपने आप चलती है)

आर० के० लाल

कैसे हैं आप, क्या हाल चाल है ?जब कोई ये प्रश्न पूछता है तो कहना पड़ता है कि मजे में हूं, सब ठीक है। ज्यादातर लोग यही जवाब देते हैं और इसी उत्तर की लोग आशा भी करते हैं ।

आज सुबह जब मनीष ने दानिश से राम राम करते हुए यही सवाल दागा तो दानिश ने उन्हें पकड़ ही लिया और बोले, " मैं बिल्कुल मजे में नहीं हूं, और कुछ भी ठीक नहीं है। अब आप बताइए आप क्या कर सकते हैं? यदि कुछ नहीं कर सकते तो ऐसे प्रश्न सुबह-सुबह क्यों करते हैं “।

बिना रुके वे कहते रहे, "मुझे तो लगता है कि कुछ भी ठीक नहीं है । जिंदगी अपने आप चलती है मगर मेरी तो  किसी तरह हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ रही है । न कोई शौक है और न कोई तमन्ना पूरी हो रही है। अपने शौक तो मां बाप के समय ही पूरे हुआ करते थे। आज अपने बच्चों के शौक ही पूरे हो जाए यही बड़ी बात है। एक ही परिवार में सब अपने-अपने लिए ही जमा करने में व्यस्त हैं। दूसरे की परवाह किसे। हमारे जमाने में तो शादी ब्याह के फंक्शन भी पड़ोसियों के सहयोग से ही संपन्न हो जाते थे। पूरा घर भरा रहता था,  बच्चों की पूरी पलटन होती थी।  इन सब को लेकर पत्नी हमसे कम, घर के सदस्यों में ज्यादा व्यस्त रहती थी। बाप को सबकी चिंता होती थी इसलिए वही निर्णय लेता था और बिना चूं-चपड़ किए सब उनकी बात मानते थे। आज मैं अगर किसी बच्चे को कोई  निर्देश देता हूं तो पूरा घर बहस करके मेरी औकात दिखा देता है और वह बच्चा सीधे मेरी बात मानने से मना कर देता है। बेबस हो गया हूं फिर भी न जाने क्यूं कह देता हूं कि सब ठीक-ठाक है” ।

मेरी पड़ोसन रोशन भी मेरे ही दफ्तर में काम करती थी । सभी लोग उसका काम कर देते थे वह तो बस ऑफिस आने जाने का काम करती थी। भले ही अफसरों की डांट खानी पड़ी, पर कर्मचारी रोशन की इज्जत करते थे। दफ्तर में वह अकेली थी, पर मर्यादित भेष भूषा में, बदले में पूरा कार्यालय अनुशासित होता था। अब तो  टी वी के ओ टी टी के डायलाग और फैशन से सराबोर माहौल में सब मजबूर हैं। तब भी कहते हैं कि सब ठीक है ।

ऑफिस के समय की बात ही कुछ और थी। पता नहीं चलता कैसे समय बीत जाता था। कुछ लोग तो अन्य सारा काम करते थे केवल वही नहीं करते थे जिसके लिए उनका अपॉइंटमेंट हुआ था। वे कमा भी लेते थे और अपनी पत्नी को भी घुमा लाते थे। थोड़े से बोनस के चक्कर में मुझे इतना काम करना पड़ता था कि कभी एहसास ही नहीं हुआ कि मैं और मेरी पत्नी एक गाड़ी के दो पहिए हैं। फिर भी कहता था सब ठीक-ठाक है ।

उधर नौकरी से सेवानिवृत्त हुए तो इधर हमारे आशियाने के पंछी बाबा, दादी, पापा मम्मी एक एक करके ऊपर सिधार गए और हम पर परिवार चलाने की जिम्मेदारी आ गई। अब तो जिंदगी मुझ पर हंसने लगी थी, तब भी कहता था कि सब ठीक है ।

बेटी शादी के बाद ससुराल चली गई और बेटे की शादी कर दी। हम उम्र दराज हो गए, आशा थी कि बेटे बहू दोनों हमें देख लेंगे और हम मजे करेंगे लेकिन हम दोनों को वे दोनों सदैव देख लेने की धमकी देते रहते हैं। भाई साहब आप ही बताइए कैसे सब ठीक है ।

एक ही घर में सब एक दूसरे को सदैव अलग ही समझते हैं, पर मेरी पेंशन खर्च करवाने के लिए सभी हमारा इतना ख्याल रखते हैं कि हम दोनों को कहीं तीर्थाटन का भी ख्याल नहीं आता। अब तो गुजरा हुआ जमाना याद आता रहता है, किसी ने सच कहा है कि गुजरा जमाना आता नहीं दुबारा।ऐसे में क्या सब कुछ ठीक है।

गहरी सांस लेते हुए बोले, "पत्नी को शायद पता चल गया है कि बच्चे उसके लिए नहीं रुके भले ही वो बच्चों के लिए रुकी थी।  अब तो बच्चों के नाम पर वह चुप ही रहती है। उदास शाम हो गई है उसकी" । बहुत हो गया मैं अपनी पत्नी पर बोझ नहीं बन सकता मुझे पता है वह थक जाती है काम करते-करते। उसका हाथ बटाने के ध्येय से सोचा कि जब वो खाना बनाएगी तो मैं सलाद काट दिया करूंगा, जब वह बर्तन धुलेगी तो मैं बर्तन सेट कर दिया करूंगा। उसके द्वारा कपड़े धोने पर मैं कपड़े सुखा दूंगा । खाना बनाने में उसका सहायक रहूंगा आदि ।मगर घर में नौकरी  का अनुभव काम नहीं आ रहा है और हड़बड़ी में कभी बर्तन टूट रहा है तो कभी हम टूट रहें हैं। फिर भी मुस्कुरा कर कह देता हूं कि सब ठीक है।

अभी भी दानिश ने मनीष का हाथ नहीं छोड़ा था और उसे अपनी बात सुनाये जा रहा था । उसने मनीष से कहा, "आपको तो आनंद ही आ गया होगा कि मैं कितना दुखी हूं। मगर मैं पॉजिटिव  ख्यालात का हूं। जिंदगी अपने आप चलती है मैं केवल उसका साथ देता हूं। यह हमारे राज की बातें हैं कि आज भी  तू- तू, मैं- मैं के बीच जी चाहता है कि हम पति-पत्नी आपस में निगाहें मिलाकर दिलोंजान लुटा दें। रूठ जाने एवं मानने को जी चाहता है । बच्चों पर ही अपना सब लूटा देने को तत्पर रहता हूं। पुरानी खुशियों को बार-बार  याद करता हू और उन्हें नया रूप देकर जिंदगी को गतिमान बनाने का प्रयास करता हूं। याद आता है जब हम छत पर सोते थे खुले आसमान में तो टूटने वाले तारों से हम अपनी मुरादें पूरी करवाते थे। आज भी वैसा करने की सोचता हूँ ।

वृद्ध आश्रम को भूल कर परिवार के लोगों के साथ एक ही चारपाई पर बैठ कर घंटों बतियाने का जी चाहता है, भले ही ने हमने अलगा-बिलगी कर ली है। आदमी तो प्रकृति से भी वैमनस्य ठान कर अपनी खुशी तलाश रहा है और उसका खामियाजा भुगत रहा है। फिर कैसे सब ठीक है।

आप जैसे मित्रों ही गलत - सही बतायेंगे । सुखी जीवन के लिए मानवीय मूल्यों, नैतिकता को जानना अभ्यास करना महत्वपूर्ण है। सही समझ का विकास करना हम बड़े बुजुर्गों अपनी जिम्मेदारी मानें तो कम से कम अपनी सोसाइटी वाले केवल अपने तक सीमित न रह वैश्विक समाज और  प्राकृतिक सह अस्तित्व की सोचेंगे। तभी सब ठीक होगा । मनीष ने भी उनका समर्थन किया ।