नगरकोट ज्वाला जी के मंदिर के पास एक पहाड़ पर छोटा सा बहुत सुंदर गांव था।
उस गांव में पार्वती अपनी पुत्री शीतल के साथ रहती थी। पार्वती का पति जुआरी शराबी अय्याश किस्म का पुरुष था। वह एक दिन अपने गांव का मकान बेचकर पार्वती और अपनी पुत्री शीतल को छोड़ कर शहर भाग जाता है।
गांव में दूध बेचने वाला धनीराम नाम का एक पुरुष पार्वती को अपनी गाय भैंसों की देखभाल के काम पर रख लेता है। पार्वती और उसकी पुत्री शीतल को गाय भैंसों के तबेले में रहने की इजाजत भी दे देता है।
धनीराम सज्जन पुरुष था, परंतु उसकी पत्नी लालची और चिड़चिड़े स्वभाव की महिला थी।
शीतल की आयु नौ वर्ष की थी। किंतु वह नौ वर्ष की आयु में भी बहुत समझदार और गुणवान थी।
शीतल प्रत्येक मंगलवार को अपनी मां के साथ ज्वाला जी के मंदिर में जाती थी। मंदिर का पुजारी शीतल के चंचल और समझदार स्वभाव की वजह से उसे बहुत पसंद करता था। इस वजह से वह प्रत्येक मंगलवार को बहुत सा प्रसाद शीतल को खाने के लिए देता था।
एक दिन मंदिर में भंडारा हो रहा था। शीतल पुजारी से पूछती है? आज आप सबको भंडारा क्यों खिला रहे हो।"
"माता ने अपने किसी भगत की मनोकामनाएं पूर्ण कर दी है। इसलिए उसने माता का भंडारा किया है।" पुजारी बोलता है।
"क्या माता सब के सारे दुख संकट खत्म कर सकती है।" शीतल पूछती है?
"माता हम सब की मां है, और मां अपने बच्चों को कभी भी दुखी नहीं देख सकती है। अब कुछ ही दिनों के बाद शरदीय नवरात्रे आने वाले हैं। जो प्रणी नवरात्रि में माता के पूरे व्रत रखता है, और माता की सच्चे मन से पूजा करता है, माता रानी उसकी सारी मनोकामना पूर्ण कर देती है।" पुजारी कहता है।
शीतल उसी दिन से शरदीय नवरात्रों का रोज इंतजार करने लगती है।
और नवरात्रों से एक दिन पहले माता की चौकी लगाने का समान इकट्ठा करने के लिए सुबह-सुबह घर से अकेले नहा धोकर निकल जाती है।
सबसे पहले छोटी सी शीतल गांव के कुम्हार के पास जाती है। माता की मूर्ति दीपक जौ उगाने के लिए मिट्टी का बर्तन एक मिट्टी की छोटी सी मटकी आदि सामान लेने के लिए।
गरीब कन्या शीतल के पास पैसे नहीं थे, इसलिए कुम्हार शीतल से कहता है "मैं तुम्हें माता की मूर्ति दीपक मिट्टी का बर्तन मटकी माता की पूजा का सब समान दे दूंगा, लेकिन तुम्हें पहले जंगल से मेरे गधे के खाने के लिए हरी हरी घास हरे हरे पत्ते लाने होंगे।"
छोटी सी शीतल कुम्हार की पूरी बात सुन कर उसी समय खुशी-खुशी जंगल चली जाती है। कुम्हार के गधे के लिए हरी हरी घास हरे हरे पत्ते लेने और कुछ समय बाद ही हरी हरी घास हरे हरे पत्ते कुम्हार के गधे को खाने के लिए लाकर दे देती है।
कुम्हार शीतल को एक छोटी सी माता की मूर्ति दीपक मिट्टी का बर्तन छोटी सी मिट्ट की मटकी आदि सब सामान दे देता है।
उसके बाद शीतल एक किसान के पास जाती है, सरसों यानी राई के बीज लेने के लिए जिससे कि वह सरसों राई को पीसकर उसका सरसों का तेल निकाल कर माता की ज्योति जला सके।
किसान छोटी सी शीतल से दस बीस सरसों की गड्डी अपने खेत से कटवाता है। और उसके बदले शीतल को साफ सुथरा सरसों का तेल एक बर्तन में भरकर दे देता है।
अब शीतल को माता की ज्योति जलाने के लिए रूई की जरूरत थी। रुई के लिए उसे एक कपास का पेड़ रास्ते में ही मिल जाता है। उस कपास के पेड़ पर एक लंगूर बैठा हुआ था। शीतल के कुछ भी कहे बिना कुछ भी करे बिना वह लंगूर कपास के फूल तोड़ तोड़कर शीतल के आगे फेंक देता है।
शीतल उनको इकट्ठा करके उनमें से रुई निकाल लेती है।
अब शीतल को जरूरत थी, माता की लकड़ी की चौकी की इसके लिए शीतल गांव के बढ़ई के पास जाती है। माता की लकड़ी की चौकी बनवाने के लिए।
शीतल के पास पैसे नहीं थे।
इसलिए गांव का बढई शीतल से कहता है कि "पहले मेरे लकड़ी के बुरादे को झाड़ूू से इकट्ठा करके कूड़े में फेंक कर आओ।
शीतल लकड़ी के बुरादे को झाड़ू से इकट्ठा करके कूड़े में फेंक कर बढई के पास आती है। तब बढई शीतल पर तरस खाकर एक अच्छी सी माता की चौकी लकड़ी की बनाकर शीतल को दे देता है।
उसके बाद शीतल एक दुकानदार के पास जाती है। माता का नारियल चुन्नी माता का सिंगार धूप कपूर तिलक रोली कलावा आदि सामान लेने के लिए।
इसलिए दुकानदार भी छोटी सी शीतल के सामने एक शर्त रख देता है, कि पहले मेरे घर के सारे कपड़े बर्तन धोने होंगे छोटी सी शीतल उसके घर के सारे गंदे कपड़े धो देती है और गंदे बर्तन अच्छी तरह मांज देती है। वह दुकानदार छोटी सी शीतल को नारियल चुन्नी माता की पूजा का सारा सामान दे देता है।
शीतल को पूरे दिन माता की चौकी का समान इकट्ठा करते करते बहुत थकान हो गई थी और घर पहुंचते-पहुंचते उसे रात भी हो जाती है।
पूरे दिन घर से गायब रहने की वजह से और रात को घर देरी से आने की वजह से शीतल की मां उससे बहुत नाराज होती है, किंतु शीतल के हाथ में माता की पूजा का सामान देखकर वह चुप हो जाती है।
उस रात शीतल पूरे दिन की थकी हुई थी, इसलिए बिना कुछ खाए पिए सो जाती है। शीतल की मां उसे नींद से जगा कर खाना खिलाने की बहुत कोशिश करती हैं, परंतु पूरे दिन की थकान की वजह से वह बहुत गहरी नींद में सो जाती है।
और दूसरे दिन शीतल पहले नवरात्रि के व्रत पर नहा धोकर पूजा करके नौ नवरात्रों का व्रत रखकर माता की चौकी के सामने नौ दिन के लिए बैठ जाती है।
धनीराम की पत्नी ने भी माता के नवरात्रि के व्रत रखे थे, परंतु वह व्रत के बहाने घर का कोई भी काम नहीं करती थी, और आम दिनों से ज्यादा व्रत रखकर खाना खाती थी, जैसे दूध फल देसी घी आदि चीजें। और शीतल की मां को बार-बार अपने छोटे-मोटे काम के लिए बुलाती रहती थी। और वह सुबह से ही दूध फल घी आदि चीजें रात तक खाती रहती थी।
पांचे नवरात्रि के व्रत तक शीतल कि बहुत ज्यादा सेहत खराब देखकर शीतल की मां धनीराम की पत्नी से दूध फल शीतल के खाने के लिए मांगने जाती है।
लेकिन धनीराम की पत्नी शीतल कि मां से व्रत में खाने की चीजें देने से साफ मना कर देती है।
आखरी नवरात्रि पर शीतल भूखी प्यासी रहने की वजह से बेहोश हो जाती है।
शीतल की मां गांव के कुछ लोगों के साथ मिल कर शीतल को अस्पताल लेकर जाती है।
और अस्पताल के गेट के सामने शीतल का पिता मिल जाता है। वह पहले अपनी पत्नी पार्वती से माफी मांगता है। फिर शीतल की ऐसी हालत के बारे में पूछता है? और उसी समय सामने के बाजार से शीतल के खाने के लिए दूध फल अन्य व्रत में खाने वाली चीजें लेकर आता है।
शीतल को खिलाने के बाद अपनी पत्नी और गांव के लोगों को बताता है कि "पहले नवरात्रि पर मैंने कुछ बदमाशों से किसी व्यापारी के बच्चे को अपहरण होने से बचाया था, तो पुलिस और उस व्यापारियों ने मुझे बहुत मान सम्मान और इज्जत दी। मैं उस दिन समझ गया था, कि बुरे कर्म से तो अपमान ही होता है, और परिवार रिश्तेदारों सबको दुख पहुंचता है। किसी दिन जान भी जा सकती है।"
फिर दोबारा सबको बताता है कि "व्यापारी ने मुझे बहुत धन ईनाम में दिया और अपने व्यापार में एक अच्छी नौकरी भी दी है।"
पिताजी की बात सुनते सुनते शीतल को होश आ जाता है। और वह अपने पिता जी की सारी बातें सुनने के बाद तेज तेज आवाज लगाकर चिल्ला चिल्ला कर माता का जयकारा लगाती है "जय माता दी।" "जय माता दी।" "जय माता दी।" उसके साथ उसके पिता मां और गांव के लोग ही माता का जयकारा लगाते हैं।
शीतल के माता पिता और शीतल घर पहुंचकर माता की पूजा करते हैं। और गांव की कन्याओं और गांव के बच्चों का भंडारा करते हैं।
शरदीय नवरात्रि आते आते शीतल के पिता व्यापारी की मदद से अपना खुद का व्यापार शुरू कर देते है। और शीतल के माता पिता शरदीय नवरात्रों से पहले अपना नया मकान खरीद लेते है। दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की होने के बाद शीतल के माता पिता अपनी बेटी शीतल के कहने से माता ज्वाला जी के मंदिर में माता का भंडारा करते है।
भंडारा पूरा होने के बाद शीतल मंदिर के पुजारी से आशीर्वाद लेकर कहती है कि "पुजारी जी आपने सत्य कहा था की माता हमारी मां है और मां कभी अपने बच्चों को दुख संकट में नहीं देख सकती है।"
पुजारी शीतल और उसके माता पिता की तरफ मुस्कुरा कर बहुत प्रसन्न होकर शीतल से कहता है कि "शीतल बेटा तुम्हारे परिवार के दुख संकट इसलिए आसानी से कटे क्योंकि तुम्हारी भक्ति में शक्ति थी। तुमने माता की पवित्र सच्चे दिल से पूजा की और माता रानी को मजबूर कर दिया, अपने दुख संकट खत्म करने के लिए।
और फिर पुजारी सभी भक्तजनों से कहता है कि "इसी बात पर सब मिलकर माता रानी का जय कारा लगाओ।"
"बोल सांचे दरबार की जय।"