दतिया गौरव गान
(1)
सुनो सुनों दतिया का गौरव गान सुनो,
इसमें बसता सच्चा हिन्दुस्तान सुनो
यहां सिंघ की निर्मल धारा नित कल कल करती है
ये सनक, सनंदन, सनत् सनातन की पावन धरती है
सर्पदंश से मुक्ति दिलाती यहां रतन गड माता
और पहूज के पावन जल से चर्मरोग मिट जाता
बालाजी की महिमा बड़ी महान सुनो.. सुनो सुनों दतिया का गौरव गान सुनो,
(2)
सुनो सुनो दतिया का ........
यहां वीर हरदौल ने मर कर बहिन को भात दिया है
कुदउसिंह ने बजा पखावज जग में नाम किया है
अक्षरानन्य, रसनिधी, गदाधर, एनसाई पद्माकर
वासुदेव, बलवीर, फलक, चतुरेश, महेश, सुधाकर
इस धरती पर जन्में बड़े महान सुनो ...सुनो सुनो दतिया का -
(3)
यहां दिगम्बर जैन तीर्थ में आदिनाथ विराजे,
और अशोक के शिलालेख से ग्राम गुजर्रा साजे,
अद्भुत स्थापत्य कला का महल खड़ा सतखण्डा,
जैविस्को को हरा के लंदन में गाड़ा था झण्डा,
विश्व विजेता था 'गामा' बलवान सुनो .........सुनो सुनो दतिया का
(4)
धन्य यहां की पावन धरती धन्य यहां की मांटी
जहां पल्लवित और पुष्पित है ऋषियों की परिपाटी
श्री भावानंद, कटेरा वाले, पूज्यपाद स्वामी जी
गणपति, चेतनदास, अनामय संत हुये नामी जी
पीताम्बरा सदा देतीं वरदान सुनो .......सुनो सुनो दतिया का
मुक्तक
जिंदगी को मौत से लड़ते हुए देखा हमने
हंसी को आंसुओं से झगड़ते हुए देखा हमने
तुम भले मानो ना मानो बात सच है
सर्द नम को धूप पर चढ़ते हुए देखा हमने
विकल हृदय की व्यथित वेदना वह मैंने जाना
अंतर्मन के मोहन रुदन को मैंने पहचाना मैंने पहचाना
मुझसे पूछो क्या होता है जख्मी जिगर छुपाना
जब जब अपने दर्द की नहीं सब ने समझा गाना
अब मुझे रुचिकर नहीं लगती हंसी की बात
क्योंकि मुझको हर खुशी देकर गई आघात
हर हंसी छल है खुशी है पुंज भ्रम का
निष्कपट है दर्द जिसके साथ दिन रात
आजकल बिल्कुल अकेला हूं जहां में और चारों ओर गम की भीड़ है
दर्द हावी हो गया मेरी हंसी पर अंतः करण में वेदना की नीड है
।।। दिल की बात ।।। (5)
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जुवां पर आकर थम जाती है
कैसे कह दूँ दिल की बात ।
कोई भी मरहम न दे सका
सभी से मिले मुझे आघात ।।
जुवां पर आकर थम जाती है
कैसे कह दूँ दिल की बात ।।
हंसी है पलभर की मेहमान
छलों का छाया घना वितान ।
गम के गीत सुनाता नित्य
दर्द के हैं लाखों एहसान ।।
हुआ है कोईबार यैसा भी,
संग संग जागा सारी रात ।
जुवां पर आकर थम जाती है
कैसे कह दूँ दिल की बात ।।
समझ न पाओ परिभाषा
न थी तुमसे यैसी आशा ।
नित्य गहराई नापा किया
घाट पर बैठ रहा प्यासा ।।
अधर पिहु पिहु न चिल्ला सके
निठुर घन ने न की बरसात ।
जुवां पर आकर थम जाती है
कैसे कह दूँ दिल की बात ।।
।।। रत्नावली ।।। (6)
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बड़े सुख चैन से रहता था जो अपने ही मंदर में
प्रिया से प्रेम था इतना न गहराई समंदर में ।
प्रिया भी पूजती थी नित्य पती को पुष्पहारों से
मगर कुछ खिन्न थी अपने पिया के इन विचारों से ।
था उनका ये कहना कि हमसे मत खफा होना
रहेंगे उम्रभर यूँ ही न एक पल को जुदा होना ।
कसम इन स्याह जुल्फों की न तुम बिन जी सकूंगा
जुदाई की तेरी जहरीली मय न मैं पी सकूंगा ।
एकदिन उसको लिवाने उसके वीरन आ गये
और अपनी लाड़ली को साथ ही लिवा गये ।
सोचती ही रह गई क्या मुझबिन जी सकेंगे वो
जुदाई का मेरी कड़वा जहर क्या पी सकेंगे वो ।
पिय जब प्रिय विरह की आग को न सह सका
बोल न पाया किसी से और कुछ न कह सका ।
इस तरह दिल में धधकता प्यार जब जलने लगा
और अरमानों का वो ताज जब छलने लगा ।
पिय तड़प उट्ठा तभी अपनी प्रिया के साथ को
प्रिय मिलन को चल पड़ा वह तब अंधेरी रात को ।
उस तरफ प्रिय भी न सोई थी विरह की रात में
नयन मूंदे खोई थी बानो पिया की याद में ।
जब उसे यह सुन पड़ा रत्नावली - रत्नावली
तो उसे यैसा लगा कि अब मैं कुछ कुछ सो चली ।
बंद थीं पलकें तो उनपर अश्क के मोती जड़े थे
आँख जो खोली तो उसके सामने प्रियतम खड़े थे ।
खो गई तब नींद मानो स्वप्न सारे उड़ गये
नयन जो खोले तो जाकर नयन ही से जुड़ गये ।
इस तरह प्रियतम का आना प्रिय को न अच्छा लगा
और अपना प्यार ही अपने को जब कच्चा लगा ।
कहने लगी पिय से वो तब धिक्कार है धिक्कार है
अस्थि चर्म मय देह से तुमको जो इतना प्यार है ।
तुम अगर इतना ही करते प्रेम राजाराम को
तो मुझे विश्वास है पा जाते उनके धाम को ।
जुट गये तब ही से लिखने राम के गुनगान को ।
धन्य है तुलसी तुझे तेरी प्रिया के ज्ञान को ।