गंगा के माता पिता को गुजरे दो माह बीत चुके थे लेकिन अभी तक भी उसकी मासी जो कह कर तो गई थी कि वह चक्कर लगाती रहेगी परंतु अब तक उन्होंने पलट कर गंगा की सुध नहीं ली। चाचा, मामा, ताऊ कोई काम ना आया। गंगा ने भी यह मान लिया था कि अब तो उसे अकेले ही सब कुछ करना है। अकेले ही जीना है और अकेले ही मरना है।
धीरे-धीरे छः महीने गुजर गए लेकिन शांता ताई और मनु काका कहीं भी नहीं गए। शांता ताई काम पर जाती तब भी मनु काका तो घर पर डटे ही रहते। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, छोटू और मैकू का धैर्य टूट रहा था। यह इंतज़ार उनके मन में पल रहे पाप की चिंगारी को और हवा दे रहा था।
एक दिन अचानक शांता ताई की छोटी बहन जो कि पास के ही गाँव में रहती थी उसके देहांत की ख़बर आई। शांता ताई से दस वर्ष छोटी उनकी हट्टी-कट्टी बहन के इस तरह दुनिया से चले जाने से शांता ताई के दुख का ठिकाना ना था।
यह ख़बर सुनकर शांता ताई रो रही थी। मनु काका ने कहा, "मत रो शांता ऊपर वाले के सामने किसकी चली है भला। समझ ले वह इतनी ही उम्र लेकर आई थी।"
"अरे मनु ना कोई बीमारी ना अजारी फिर कैसे ...?"
"चलो गाँव चलते हैं तभी सब पता चलेगा।"
इस दुख के समय बेचैनी में वे गंगा से मिले बिना ही गाँव चले गए। उधर उनकी खोली पर पैनी नज़र रखने वाले छोटू और मैकू का इंतज़ार पूरा हुआ। वह दोनों आज बहुत ही ख़ुश थे। पिछले कई महीने से जो पाप उन दोनों के मन में शोला बन कर पल रहा था, आज उसके विस्फोट की बारी थी। छोटू किसी की भी आवाज़ निकालने में माहिर था। आज उसे शांता ताई की आवाज़ निकालनी थी। गंगा को शांता ताई की आवाज़ में बुलाकर खोली का दरवाज़ा खुलवाना था।
फुलवंती ने शांता ताई के घर पर ताला देखकर सोचा आज तो उसे गंगा को सब बताना ही होगा। कुछ भी कहो एक बहन का अपने भाइयों के लिए किसी को भी यह बताना कि उसके भाई उसका चीर हरण करने की योजना बनाए बैठे हैं, आसान नहीं था।
गंगा जब काम से वापस आई तो उसने देखा शांता ताई की खोली में ताला लगा है। उसने सोचा कहीं आसपास गई होंगी, कुछ समय में आ जाएंगी। उसने अपनी खोली का दरवाज़ा खोला। अंदर देखा तो शांता ताई उसके लिए रोटी और सब्जी रख कर गई थी। गंगा खुश हो गई उसे बहुत ज़ोर से भूख लगी थी उसने खाना खाया, तभी उसके द्वार पर दस्तक हुई।
गंगा ने दरवाज़ा खोला, देखा तो फुलवंती थी, "आ फुलवंती अंदर आजा, अरे क्या हुआ? तेरे चेहरे की हवाइयाँ क्यों उड़ी हुई हैं?"
"गंगा बात ही ऐसी है, शांता ताई घर पर नहीं है ना?"
"हाँ कहीं गई हैं, आ जायेंगी। क्यों क्या हुआ?"
"गंगा मेरी बात ध्यान से सुन," कहते हुए फुलवंती ने गंगा को अपने भाइयों के मन में पल रहे पाप के विषय में सब कुछ बता दिया। यह भी बता दिया कि जिस मौके की तलाश में वे थे आज उन्हें वह मौका मिल गया है।
"आज वह...," इतना कहकर फुलवंती रोने लगी।
रोते-रोते उसने कहा, "मुझे माफ़ कर दे गंगा, मैं शर्मिंदा हूँ कि मेरे भाई ऐसे..."
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः