Meri Chuninda Laghukataye - 4 in Hindi Short Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 4

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मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 4

लघुकथा क्रमांक 9

जमाखोरी
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जंगल का राजा शेरसिंह भोजन करने के बाद आराम कर रहा था कि अचानक चुन चुन चूहे को न जाने क्या सूझी, वह उछलते कूदते शेरसिंह के पेट पर जा पहुँचा और कूदने लगा। उसके कूदने से शेरसिंह को पेट में गुदगुदी सी हुई और वह हँस पड़ा।

उसको हँसते देखकर जंगल का प्रधान मंत्री भोलू भालू भी हँस पड़ा और बोला, " महाराज ! चूहे की इतनी बड़ी गुस्ताखी के बाद भी आप इसको सजा देने की बजाय उल्टे हँसे जा रहे हैं ?"

शेरसिंह भोलू की तरफ देखकर मुस्कुराया और बोला, " भोलू ! हम जानवर तो अपनी जरूरत भर का ही शिकार करते हैं, इंसान थोड़े न हैं जो जमाखोरी करें।"

भोलू भालू भी मुस्कुराया और बोला, "सही कहा आपने महाराज ! सौभाग्य से हम इंसान नहीं हैं, इसीलिए सब जिंदा हैं यहाँ !"

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लघुकथा क्रमांक 10

गाँव और शहर
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"अरे रमेश ! कहाँ जा रहा है ?"

"शहर जा रहा हूँ। यहाँ गाँव में रहा तो तेरी तरह ऐसे ही दिन भर मिट्टी में सना रहना पड़ेगा। ..मिट्टी से परहेज नहीं मुझे भी, लेकिन क्या मिलता है इतनी मेहनत करके ? शहर की जिंदगी देखो,.. सब ऐशोआराम के साथ आमदनी भी अधिक है। मैं तो कहता हूँ तू भी आ जा शहर में, मामा से कहकर तुझे भी कहीं न कहीं सेट करवा दूँगा।"

"नहीं रमेश, मैं शहर नहीं जाऊँगा। यहीं रहकर खेती करूँगा। तू शहर जा, मेहनत कर और देश की तरक्की में अपना सहयोग दे। मैं यहीं रहकर मेहनत करके तुम शहरवालों का पेट भरूँगा। .. सोच ! अगर तेरी तरह सब शहर में ही बस जाएँगे तो शहर वालों का पेट कौन भरेगा ? शहर में चलनेवाले बड़े बड़े कारखाने अर्थव्यवस्था की चक्की तो चला सकते हैं लेकिन पेट में लगी आग को बुझाने के लिए तो रोटी ही चाहिए जो अनाज से बनती है और अनाज पैदा होता है खेतों में, गाँवों में !"

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लघुकथा क्रमांक 11

लोकतंत्र
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एक न्यूज़ चैनल के एडिटर इन चीफ के मेज पर रखी फोन की घंटी घनघना उठी।

एडिटर ने फोन उठाया, "हेल्लो, ..एडिटर नई आवाज स्पीकिंग !"

"हेल्लो, मैं जनसेवा पार्टी का मीडिया प्रभारी मुखर्जी बोल रहा हूँ।"
"हाँ जी कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?"

"हम चाहते हैं कि अभी अभी आपने जो अपना सर्वे दिखाया है, जिसमें चारों राज्यों में हमारी सरकार बुरी तरह से हार रही है, वह बार बार दिखाना बंद कर दो।"

"अरे सर, वो तो हम अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। लोकतंत्र में पत्रकारिता को तटस्थ रहना चाहिए और जो सच है उसे दिखाने से पीछे नहीं हटना चाहिए।"

"तो विज्ञापन क्यों दिखाते हो ?"

"सर, वो तो हमारी व्यावसायिक मजबूरी होती है।"

"अच्छा !.. तो इसका मतलब पैसे मिले तो आप अपने चैनल पर कुछ भी दिखा सकते हो ?"

"जी सर, इसमें क्या दिक्कत है ? हम नीचे सूचना लिख देते हैं कि इस विज्ञापन से या सामग्री से चैनल का कोई लेना देना नहीं है। बस, हमारी चिंता ख़त्म।"
"ओके ! अब सुनो,.. आपको जितने भी पैसे विज्ञापन दिखाने के मिलते हैं हम उससे दुगुने पैसे वह सर्वे नहीं दिखाने पर देने के लिए तैयार हैं। बस सर्वे या उससे जुड़ी कोई खबर दुबारा आपके चैनल पर नहीं चलनी चाहिए।"

"जी कोई बात नहीं। सौदा पक्का। वह सर्वे और वह खबर दुबारा चैनल पर नहीं चलाई जाएगी। आप अपने प्रतिनिधि को हमारे दफ्तर भेज दीजियेगा। नमस्कार !" कहते हुए एडिटर इन चीफ ने फोन रख दिया।

उसके आँखों की चमक बढ़ गई थी एक तगड़े सौदे की ख़ुशी में, लेकिन लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जर्जर अवस्था में आँख पर पट्टी बँधी न्याय की देवी की तरफ देख रहा था जो एडिटर की कुर्सी के पीछे दीवार पर लटकी हुई थी, बेबस व बेसहारा।

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