वाराणसी में मायावादी संन्यासी प्रकाशानन्द द्वारा प्रभु की निन्दा
मार्ग में पड़ने वाले गाँवों एवं नगरों को कृष्णप्रेम की बाढ़ में डुबाते हुए श्रीमन्महाप्रभु मायावादियों की नगरी वाराणसी पहुँचे। महाप्रभु जब मणिकर्णिका घाट में स्नान कर रहे थे, उस समय तपन मिश्र ने वहाँ पर प्रभु का दर्शन किया। पहले गृहस्थलीला के समय जब प्रभु बंगदेश की यात्रा पर गये थे, वहाँ पर उन्होंने तपन मिश्र पर कृपा की थी तथा उसे काशी में रहने का आदेश दिया था तथा यह भी कहा था कि मैं तुमसे वहीं मिलूँगा। अतः आज तपन मिश्र ने प्रभु को पहचान लिया। उन्होंने पहले ही सुन लिया था कि प्रभु ने संन्यास वेश धारण कर लिया है। अतः प्रभु को संन्यासी वेश में देखकर उन्हें अपार आनन्द हुआ। वे श्रीमन्महाप्रभु के श्रीचरणोंमें गिरकर रोने लगे। प्रभु ने उन्हें उठाकर आलिङ्गन किया। तत्पश्चात् वे प्रभु को अपने घर ले आये तथा उनका अच्छी प्रकार से आदर-सत्कार किया।
उसी काशी नगरी में महाप्रभु के एक और प्रेमी भक्त निवास करते थे। उनका नाम चन्द्रशेखर था। वे वैद्य जाति के थे तथा तपन मिश्र के मित्र थे। उन्होंने जब सुना कि प्रभु काशी में तपन मिश्र के घर आये हैं, तो वे भी दौड़े-दौड़े प्रभु का दर्शन करने के लिए तपन मिश्र के घर पर आ पहँचे। श्रीमन्महाप्रभु का दर्शन करते ही वे आनन्द से रोते-रोते प्रभु के श्रीचरणों में गिर पड़े। महाप्रभु ने उन्हें उठाया और प्रेम से गले लगा लिया। चन्द्रशेखर कहने लगे– “प्रभो! आपकी हम पर अपार करुणा है कि आप हमें दर्शन देने के लिए काशी में पधारे हैं। अपने दुर्भाग्य के कारण ही हम दोनों यहाँ पर पड़े हुए हैं। यहाँ ‘माया’ एवं ‘ब्रह्म’ शब्द को छोड़कर कुछ भी सुनायी नहीं पड़ता।”
वहाँ के मायावादी संन्यासी प्रभु को भी मायावादी संन्यासी जानकर उन्हें निमन्त्रित करते, परन्तु प्रभु दुःसङ्ग के भय से उनकी वञ्चना कर देते थे। काशी में प्रकाशानन्द सरस्वती नाम का एक बहुत ही प्रसिद्ध संन्यासी था। उसके हजारों शिष्य थे। एक दिन उसका एक बाह्मण शिष्य भी प्रभु की महिमा सुनकर प्रभु के दर्शन करने के लिए तपन मिश्र के घर आया। महाप्रभु के अलौकिक स्वरूप का दर्शन कर वह मोहित हो गया। जब वह लौटकर प्रकाशानन्द की सभा में गया, तो प्रकाशानन्द के सामने श्रीमन्महाप्रभु की महिमा का गान इस प्रकार करने लगा– “श्रीजगन्नाथपुरी से एक संन्यासी आये हैं। उनकी महिमा का वर्णन ही नहीं किया जा सकता। उनका दीर्घ शरीर है और उनके शरीर का रङ्ग तपे हुए सोने के जैसा है। उनकी आजानुलम्बित भुजाएँ हैं और उनके नेत्र कमल के समान हैं। उनका दर्शन कर वैसा ही आनन्द होता है, जैसा कि श्रीनारायण का दर्शन करके होता है। जो भी उनका दर्शन करता है, उसके मुख से स्वतः ही 'कृष्ण-कृष्ण' निकलने लगता है। शास्त्रों में एक महाभागवत के जो लक्षण बताये गये हैं, वे सब लक्षण उनमें स्पष्ट रूप से दीखते हैं। उनके श्रीमुख से निरन्तर कृष्णनाम निकलता रहता है तथा उनके दोनों नेत्रों से गङ्गा एवं यमुना की भाँति अश्रुधारा प्रवाहित होती रहती है। जैसा उनका अलौकिक स्वरूप है, वैसा ही उनका नाम भी है – श्रीकृष्णचैतन्य।”
यह सुनकर प्रकाशानन्द जोर-जोर से हँसने लगा और उस ब्राह्मण का उपहास करते हुए बोला– “हाँ-हाँ। मैंने भी सुना है कि बङ्गाल से एक पागल संन्यासी आया है। वह केशव भारती का शिष्य है। उसका नाम चैतन्य है और अपने ही जैसे कुछ पागलों को साथ लेकर गाँव-गाँव एवं नगर-नगर में नाचते-कूदते हुए घूमता रहता है। सुना है कि उसके पास ऐसी मोहिनी शक्ति है कि जो एक बार उसका दर्शन कर लेता है, वह भी उसी की भाँति पागल होकर रोते-रोते नाचने एवं गाने लगता है। मैंने यहाँ तक सुना है कि उस पागल ने पुरी में सार्वभौम भट्टाचार्य जैसे गम्भीर एवं असाधारण पण्डित को भी पागल बना दिया। अब तो वह भी अपना ध्यान आदि छोड़कर पागलों की भाँति कीर्त्तन और नृत्य करने लगा है। वह चैतन्य केवल नाममात्र का संन्यासी है। वास्तव में वह कोई जादूगर है। परन्तु यह काशी नगरी है। यहाँ उसका जादू नहीं चलनेवाला। अतः तुम लोग चुपचाप मेरे पास वेदान्त सुनो। उसके निकट मत जाना। ऐसे उद्दण्ड लोगों के चक्करमें फँसकर लोक-परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं।”
यह सुनकर उस ब्राह्मण को बहुत दुःख हुआ। महाप्रभु के दर्शन से उसका चित्त शुद्ध हो गया था। अतः वह ‘कृष्ण-कृष्ण’ कहकर वहाँ से उठकर आ गया। दूसरे दिन वह जब पुनः महाप्रभु के पास आया, तो प्रभु से कहने लगा– “प्रभो ! प्रकाशानन्द सरस्वती आपकी निन्दा करता है।” यह सुनकर प्रभु मुस्कराने लगे। महाप्रभु को मुस्कराते हुए देखकर उसने पुनः पूछा– “प्रभो ! जब मैंने उसे आपका परिचय दिया, तो वह कहने लगा– “हाँ! हाँ! मैं जानता हूँ।” ऐसा कहकर उसने तीन बार आपका नाम लिया, परन्तु आधा ही अर्थात् चैतन्य-चैतन्य-चैतन्य मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि उसने आपका पूरा नाम श्रीकृष्ण चैतन्य क्यों नहीं कहा?”
प्रभु हँसते हुए बोले– “मायावादी लोग श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण तथा लीला इत्यादि को नित्य नहीं मानते, अतः वे श्रीकृष्ण के चरणों में अपराधी हैं। उनके मुख से कृष्ण नाम नहीं निकल सकता, क्योंकि श्रीकृष्ण के नाम और उनके स्वरूप में कोई भेद नहीं है।” ऐसा कहकर प्रभु ने उस ब्राह्मण पर कृपा की और वृन्दावन की ओर चल पड़े।