चोरी और प्रायश्चित गांधी जी की आत्मकथा का एक बेहद महत्वपूर्ण अंश है -
गांधीजी अपने चाचा जी को बीड़ी पीते एवं बीड़ी से धुआं उड़ाते देखते थे ।उन्हें भी बीड़ी से धुआं उड़ाने की इच्छा हुई ,गांधी जी एवं उनके भाई को बीड़ी पीने में कोई लाभ या उससे कोई आनंद तो नहीं आता था परंतु उन्हें ऐसा करने में मजा आने लगा। बीड़ी पीने के लिए उनके पास पैसे नहीं होने के कारण वे चाचा जी द्वारा फेंके गए बीड़ी के टुकड़े को चुराकर धुआं उड़ाने लगे ,परंतु हर समय बीड़ी के टुकड़े में नहीं मिलते थे और ना ही उससे अधिक धुआं निकलता था।
उनके पास बीड़ी पीने के लिये पैसे नहीं थे। अब वे दोनों नौकर के जेब से पैसे चुराकर बीड़ी खरीदने लगे ।अब उनके सामने समस्या यह आई कि आखिर उस बीड़ी को रखे कहां ?उन्हें समझ में तो आ रहा था कि बड़ों के सामने बीड़ी नहीं पीना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे ही पैसे चुरा कर काम चलाया।
उसी बीच उन्होंने गांव वालों से सुना था कि एक पौधे के डंठल है जिसमें बीड़ी के जैसे धुआं निकलता है। अब वे दोनों डंठल से धुआं उड़ाने लगे परंतु उन्हें अब भी संतोष नहीं हुआ बीड़ी की एक दम लत सी लग गई थी बड़ों की आज्ञा के बिना कुछ भी कर पाना उन्हें पराधीनता लगी।
अब उन्होंने आत्महत्या करने का सोच लिया। पर आत्महत्या करें ?कैसे ज़हर कहां से लाएं? उनके पास ज़हर लेने के लिए भी पैसे नहीं थे ।अब वे चिंतित हो गए उन्होंने ऐसा सुना था कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु हो जाती है ।दोनों जंगल में बीज लाने चले गए और उस बीज को खाने की हिम्मत बटोरने लगे।
उन्होंने मंदिर की दीपमाला में घी चढ़ाया और एकांत जगह ढूंढकर बैठ गए फिर भी उन्हें जहर खाने की हिम्मत नहीं हुई ।उन्होंने सोचा कि अगर तुरंत मृत्यु ना हुई? तो मरने से क्या लाभ होगा? इससे अच्छा तो पराधीनता स्वीकार कर ली जाए। फिर दोनों ने हिम्मत करके दो-चार बीच खा गए परंतु दोनों मृत्यु से डर गए और अधिक बीच खाने की हिम्मत नहीं हुई दोनों मंदिर में दर्शन कर शांत बैठ गए और आत्महत्या की बात मन से निकाल दिया। इस घटना के बाद गांधी जी यह समझ गए कि की आत्महत्या का विचार जितना सरल है आत्महत्या करना उतना ही मुश्किल है।
इस घटना का एक परिणाम यह हुआ कि दोनों की बीड़ी पीने व पैसे चुराने की बुरी लत छूट गई। गांधीजी के अनुसार बड़े होने पर भी उन्हें कभी बीड़ी पीने की इच्छा नहीं हुई ,यह आदत उन्हें गलत और हानिकारक लगा ।इसी घटना के समय गांधी जी की उम्र केवल 12 -13 वर्ष रही होगी,तब उन्होंने दूसरी चोरी की उन पर कुछ रुपयों का कर्ज था ,उसे चुकाने के लिए दोनों भाई ने अपने मांसाहारी भाई के सोने के कड़े टुकड़े की चोरी की ।कड़े का कुछ सोना काट कर कर्ज चुका दिया ।परंतु इस घटना से उन्हें अपराध का बोध हुआ और उन्होंने कभी भी चोरी ना करने का निर्णय लिया इसके बाद पिता के सामने अपने सारे अपराध स्वीकार करने का निश्चय किया।
उन्हें यह डर नहीं था कि उनके पिता उन्हें पिटेंगे क्योंकि उनके पिता ने उन पर कभी भी हाथ नहीं उठाया। बल्कि उन्हें यह डर इस बात का था कि इस घटना से वे स्वयं बहुत दुखी हो जाएंगे ।गांधी जी ने हिम्मत करके अपने अपराध स्वीकार कर प्रायश्चित करने का निर्णय लिया।
गांधीजी ने एक पत्र में अपने सारे दोस्त लिखकर अपने अपराध का प्रायश्चित करते हुए पिता से दंड मांगा एवं यह विनती भी किया कि मेरे अपराध के लिए स्वयं को दुखी न करे साथ ही यह प्रतिज्ञा लिया कि भविष्य में ऐसी कोई भी गलती नहीं करेंगे ।गांधी जी के पिता अस्वस्थ से उन्होंने पत्र पढ़ा तो उनकी आंखों से मोती के समान आंसू बहने लगा, पत्र भीग गया। पिताजी ने पत्र फाड़कर फेंक दिया और वापस लेट गए। पिताजी के आंसू से गांधी जी के सारे दोष धूल गए उनका वास्तविक प्रायश्चित हो गया उनके लिए यह अहिंसा का पाठ था।
गांधीजी ने सोचा था कि पिताजी क्रोधित होंगे, खरी-खोटी सुनाएंगे, अपना सर पीट लेंगे परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ ।गांधीजी के विचार से ऐसा उनके स्वयं के दोषों को स्वीकार कर लेने से हुआ।
"स्वेच्छापूर्वक खुले दिल से एवं फिर कभी न करने की प्रतिज्ञा के साथ अपने अपराध व दोष स्वीकार कर लेना वास्तविक प्रायश्चित कहलाता है।" गांधी जी के द्वारा अपने अपराध स्वीकार कर लेने से उनके पिताजी का प्रेम उनके प्रति और अधिक बढ़ गया हैं।