।।।आत्मबोध।।। (11)
मैं समय के पूर्व कुछ कहने लगा था ।
अपनी धारा में स्वयं बहने लगा था ।।
भावना का वेग था उलझा हुआ ।
कुछ नहीं था स्वयं में सुलझा हुआ ।।
एक अलग संसार था सपनीला सा ।
एक अलग अंदाज था गर्वीला सा ।।
भ्रम नहीं था कुछ भी सब आसान था ।
मैं स्वयं से सत्य से अंजान था ।।
आज जब बातावरण कुछ शांत था ।
कोलाहल से दूर था एकांत था ।।
कलम लेकर हाथ में कुछ गढ़ रहा था ।
एक अन्तर्द्वन्द मुझ में बड़ रहा था ।।
प्रश्न अनगिन सामने होकर खड़े ।
जानने को सत्य मेरा थे अड़े ।।
मुझमें ही तब मैं स्वयं जिन्दा हुआ ।
और स्वयं से मैं ही शर्मिन्दा हुआ ।।
प्रश्न जैसे जैसे आगे बड़ रहे थे ।
सैकड़ों चाबुक हृदय पर पड़ रहे थे ।।
तुमने कोई यातना को भी जिया है ?
तुमने कड़वा घूँट कोई भी पिया है ?
तुम कभी भी चैन से सुख से रहे हो ?
या समय की धार के संग संग बहे हो ?
है कोई नई बात जो तुमनें कही हो ?
है कोई पीड़ा जो बस तुमने सही हो ?
कोई नव निर्माण जो तुमने किया हो ?
कोई नया संकल्प जो तुमने लिया हो ?
कुछ किया यैसा जो सबके काम आये ?
कुछ कहा यैसा कि जो दुनिया को भाये ?
कुछ रचा यैसा जिसे संसार गाये ?
युग युगों तक जो धरा पर गुनगुनाये ?
याकि बीती बात दुहराते रहे हो ?
और अपने ज़ख्म सहलाते रहे हो ?
काश जग की बांह को अब भी गहो तुम।
हो रचयिता जो तो कुछ यैसा कहो तुम।।
जिसको दुनियां कोई नया अवदान जाने ।
और श्रृजन का एक अभिनव गान माने ।।
।।। पीर पराई ।।। (12)
तुम क्या जानो पीर पराई
तुम्हें कभी न फटी विमाई
मैंने कष्ट जन्म से पाया ।
दर्दों ने मुझको अपनाया ।।
खुशियों ने ठोकर मारी तो ।
पीड़ा ने मुझको सहलाया ।।
मैं सोया जब जब कांटों पर।
तुमने सेज सजाई ।।
तुम क्या जानो पीर पराई ।।
व्यथा वेदना मेरे साथी ।
मन है मौन रुदन के थाती ।।
आँसू पीता रहा उम्रभर ।
हंसी रही बस आती जाती ।।
।।।आत्मबोध।।। (11)
मैं समय के पूर्व कुछ कहने लगा था ।
अपनी धारा में स्वयं बहने लगा था ।।
भावना का वेग था उलझा हुआ ।
कुछ नहीं था स्वयं में सुलझा हुआ ।।
एक अलग संसार था सपनीला सा ।
एक अलग अंदाज था गर्वीला सा ।।
भ्रम नहीं था कुछ भी सब आसान था ।
मैं स्वयं से सत्य से अंजान था ।।
आज जब बातावरण कुछ शांत था ।
कोलाहल से दूर था एकांत था ।।
कलम लेकर हाथ में कुछ गढ़ रहा था ।
एक अन्तर्द्वन्द मुझ में बड़ रहा था ।।
प्रश्न अनगिन सामने होकर खड़े ।
जानने को सत्य मेरा थे अड़े ।।
मुझमें ही तब मैं स्वयं जिन्दा हुआ ।
और स्वयं से मैं ही शर्मिन्दा हुआ ।।
प्रश्न जैसे जैसे आगे बड़ रहे थे ।
सैकड़ों चाबुक हृदय पर पड़ रहे थे ।।
तुमने कोई यातना को भी जिया है ?
तुमने कड़वा घूँट कोई भी पिया है ?
तुम कभी भी चैन से सुख से रहे हो ?
या समय की धार के संग संग बहे हो ?
है कोई नई बात जो तुमनें कही हो ?
है कोई पीड़ा जो बस तुमने सही हो ?
कोई नव निर्माण जो तुमने किया हो ?
कोई नया संकल्प जो तुमने लिया हो ?
कुछ किया यैसा जो सबके काम आये ?
कुछ कहा यैसा कि जो दुनिया को भाये ?
कुछ रचा यैसा जिसे संसार गाये ?
युग युगों तक जो धरा पर गुनगुनाये ?
याकि बीती बात दुहराते रहे हो ?
और अपने ज़ख्म सहलाते रहे हो ?
काश जग की बांह को अब भी गहो तुम।
हो रचयिता जो तो कुछ यैसा कहो तुम।।
जिसको दुनियां कोई नया अवदान जाने ।
और श्रृजन का एक अभिनव गान माने ।।
।।। पीर पराई ।।। (12)
तुम क्या जानो पीर पराई
तुम्हें कभी न फटी विमाई
मैंने कष्ट जन्म से पाया ।
दर्दों ने मुझको अपनाया ।।
खुशियों ने ठोकर मारी तो ।
पीड़ा ने मुझको सहलाया ।।
मैं सोया जब जब कांटों पर।
तुमने सेज सजाई ।।
तुम क्या जानो पीर पराई ।।
व्यथा वेदना मेरे साथी ।
मन है मौन रुदन के थाती ।।
आँसू पीता रहा उम्रभर ।
हंसी रही बस आती जाती ।।
मैं भटका एकाकी हर दिन ।
तुमने ईद मनाई ।
तुम क्या जानो पीर पराई ।।
मैं भटका एकाकी हर दिन ।
तुमने ईद मनाई ।
तुम क्या जानो पीर पराई ।।