{ ग्रह-शान्ति }
“मुकुन्द! तुम ज्योतिष सम्बन्धी एक कड़ा क्यों नहीं ले आते ?” “क्या मुझे लाना चाहिये, गुरुदेव ? मैं तो ज्योतिष में विश्वास नहीं करता !”
“यह विश्वास का प्रश्न नहीं है; किसी भी विषय में वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह होना चाहिये कि यह सत्य है या नहीं। गुरुत्वाकर्षण का नियम न्यूटन से पहले भी उसी तरह कार्य करता था जैसा उसके बाद। ब्रह्माण्ड में अच्छी खासी अराजकता मच जाती यदि उसके नियम मानवीय विश्वास की मान्यता के बिना कार्य न कर पाते।
“पाखंडी ज्योतिषियों ने प्राचीन ज्योतिष विज्ञान को उसकी वर्तमान बदनाम अवस्था में लाकर रख दिया है। गणितीय¹ और दार्शनिक, दोनों ही दृष्टियों से ज्योतिष शास्त्र इतना विराट् है कि गहरी समझ वाले व्यक्ति के अतिरिक्त कोई उसे ठीक से समझ ही नहीं सकता। यदि मूर्ख और अज्ञानी लोग ग्रह-तारों के संकेतों को समझ नहीं पाते और अर्थ का अनर्थ करते हैं तो यह इस अपूर्ण जगत् में अपेक्षित ही है। ऐसे ‘ज्ञानियों’ के साथ ज्ञान को भी मिथ्या नहीं मान लेना चाहिये।
“सृष्टि के सभी अंग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे पर प्रभाव डालते रहते हैं। परस्पर आदान-प्रदान ही ब्रह्माण्ड की संतुलित गति का मूल आधार है,” मेरे गुरु कहते गये। “मनुष्य को अपने स्तर पर दो प्रकार की शक्तियों का सामना करना पड़ता है पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश के संमिश्रण से उसके भीतर उत्पन्न होने वाली क्षुब्धता;
द्वितीयः प्रकृति की बाह्य विघटनकारी शक्तियाँ। जब तक मनुष्य अपनी मानवीय सीमाबद्धता के साथ संघर्षरत रहता है, तब तक पृथ्वी और अंतरिक्ष के असंख्य परिवर्तनों का प्रभाव उस पर पड़ता रहता है।”
“ज्योतिष विद्या में ग्रहों के प्रभाव के अन्तर्गत मनुष्य की क्या प्रतिक्रिया होगी इसका अध्ययन किया जाता है। ग्रह नक्षत्रों में कोई दया या कोप का सचेत भाव नहीं होता। वे तो केवल धनात्मक (Positive) एवं ऋणात्मक (Negative) किरणें उत्सर्जित करते हैं। अपने आप में ये मानवजाति को कोई लाभ या हानि नहीं पहुँचाते, किन्तु मनुष्य द्वारा अतीत में कार्यान्वित किये गये कार्य कारण के सन्तुलन को स्थापित करने के लिये बाह्य स्तर पर कार्यप्रणाली का एक विधिवत माध्यम प्रस्तुत करते हैं ।
“बच्चा ऐसे दिन और ऐसे क्षण में ही जन्म लेता है, जब ग्रह-नक्षत्रों की किरणों का उसके व्यक्तिगत कर्मों के साथ सम्पूर्ण गणितीय तालमेल बैठ जाता है। उसकी जन्मकुंडली उसके अपरिवर्तनीय अतीत और उस अतीत के संभावित भावी परिणामों को दर्शाने वाली एक चुनौतिपूर्ण आलेखन होती है। परन्तु जन्मकुंडली का सही अर्थ केवल अंतःप्रज्ञ ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति ही लगा सकते हैं; और ऐसे लोग बहुत कम होते हैं।
“जन्म के क्षण में अंतरिक्ष में स्पष्ट रूप से चिह्नांकित हो जाने वाले संदेश का उद्देश्य भाग्य (गत अच्छे-बुरे कर्मों के फल) को अति महत्त्व देना नहीं है, बल्कि विश्वनियमों के इन बन्धनों से छूट जाने के लिये मनुष्य की इच्छाशक्ति को जगाना है। उसने जो कुछ किया है उसे वह मिटा भी सकता है। उसके जीवन में अभी जो भी परिणाम सामने आ रहे होते हैं उनके कारणों को उकसाने वाला भी वही था। वह किसी भी सीमा को पार कर सकता है क्योंकि प्रथम तो उस सीमा का सृजन उसने स्वयं अपने कर्मों से ही किया है और फिर उसके पास आध्यात्मिक संसाधन हैं जो किसी ग्रह-नक्षत्र के दबाव में नहीं होते।
“ज्योतिष शास्त्र के प्रति अंधी श्रद्धा व्यक्ति को यन्त्रवत् बना देती है जो अपने हर कार्य के लिये यांत्रिक मार्गदर्शन का दास बन जाता है। बुद्धिमान मनुष्य सृष्टि के बदले स्रष्टा में अपनी निष्ठा रखकर अपने ग्रहों को, अर्थात् अपने अतीत को मात दे सकता है। जितना अधिक परमात्मा के साथ अपनी एकात्मता का उसे ज्ञान होता है उतना ही प्रकृति का उस पर प्रभाव कम होता है। आत्मा सदैव मुक्त है; वह अमर है क्योंकि वह अजन्मा है उस पर ग्रह-नक्षत्र कभी शासन नहीं कर सकते।
“मनुष्य आत्मा है और उसे शरीर मिला हुआ है और जब वह स्वयं को इस रूप में जान जाता है, तब ग्रह-नक्षत्रों के समस्त विवशताकारी योग-कुयोगों को पीछे छोड़ देता है जब तक वह अपनी आत्मिक विस्मृति की साधारण अवस्था में किंकर्तव्यविमूढ़ बना रहता है, तब तक वह प्रकृति के विधि नियमों की सूक्ष्म जंजीरों में जकड़ा रहता है।
“ईश्वर स्वयं सामंजस्य है; उसके साथ जो भक्त अपना सुर मिला लेता है, वह कदापि कोई गलत काम नहीं कर सकता। उसके सारे कार्यकलाप अपने आप ही ज्योतिषीय नियम के अनुसार सही समय पर होंगे। गहन प्रार्थना और ध्यान के बाद वह अपनी दिव्य चेतना के सम्पर्क में होता है; उस आंतरिक सुरक्षा से बढ़कर और कोई शक्ति नहीं है।”
“पूज्य गुरुदेव! तब आप मुझे कड़ा पहनने के लिये क्यों कह रहे हैं?” दीर्घ मौन के बाद मैंने यह प्रश्न पूछने का साहस किया। मैं
श्रीयुक्तेश्वरजी के ज्ञानगर्भित स्पष्टीकरण को आत्मसात् करने का प्रयास कर रहा था जिसमें निहित विचार मेरे लिये एकदम नए थे।
“जब यात्री अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाये, उस समय यदि वह नक्शों को फेंक देता है तब वह ठीक है। यात्रा के दौरान तो उसे जो भी सुविधाजनक छोटा रास्ता मिले वह ले लेना चाहिये। प्राचीन ऋषियों ने माया में मानव के निर्वास की अवधि को कम करने के अनेक तरीके ढूंड निकाले। कर्म-नियम में कुछ ऐसे भौतिक घटक हैं जिन्हें ज्ञान की उँगलियों से कुशलतापूर्वक इधर-उधर करके अपने अनुकूल बनाया जा सकता है।
“मनुष्य के सारे दुःख-कष्ट किसी-न-किसी प्रकार से प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने के कारण ही पैदा होते हैं। शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य को प्रकृति के नियमों का पालन करना चाहिए, पर साथ ही ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता में भी उसे अविश्वास या सन्देह नहीं होना चाहिये। उसे यह कहना चाहिये “प्रभो! आप में मेरा पूर्ण विश्वास है और मैं जानता हूँ कि आप मेरी सहायता करेंगे, परन्तु मैं भी अपनी ओर से अपनी भूलों का परिमार्जन करने का पूरा पूरा प्रयास करूंगा।” अनेक उपायों द्वारा, जैसे प्रार्थना द्वारा, इच्छाशक्ति द्वारा, योग साधना द्वारा, सन्तों के साथ सत्संग द्वारा ग्रहशान्ति करने वाले कड़ों को पहनने के द्वारा, गत कर्मों के प्रतिकूल प्रभावों को कम किया जा सकता है या उन्हें पूरा ही काट भी दिया जा सकता है।
“जिस प्रकार घर के ऊपर तांबे की छड़ लगाकर घर पर गिरने वाली बिजली से घर को बचाया जा सकता है, उसी प्रकार देह मन्दिर को भी कुछ विशिष्ट उपायों से बचाया जा सकता है।
“विश्व में निरन्तर विद्युत् और चुम्बकीय किरणों का संचार होता रहता है; ये किरणें मानव शरीर पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालती हैं। युगों पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों ने सूक्ष्म वैश्विक किरणों के प्रतिकूल प्रभावों का सामना करने की समस्या पर गहन चिंतन किया, तब उन्हें पता चला कि शुद्ध धातुएँ एक ऐसे सूक्ष्म प्रकाश की किरणों का उत्सर्जन करती हैं जो ग्रहों के प्रतिकूल प्रभावों को निष्फल करने की प्रचण्ड शक्ति रखती हैं। जड़ी-बूटियों के कई संयोग भी यह काम कर सकते हैं। परन्तु इन सब में सबसे अधिक प्रभावशाली हैं दो रत्ती से अधिक वजन के दोषरहित रत्न।
“ज्योतिष के प्रत्यक्ष बचावात्मक उपायों के विषय में भारत के अलावा कहीं और बहुत ही कम अध्ययन हुआ है। यह तथ्य बहुत कम लोग जानते हैं कि योग्य रत्नों, धातुओं और जड़ी-बूटियों के संयोगों से भी कोई लाभ नहीं होता यदि वे आवश्यक वजन के न हों और यदि उन्हें इस तरह न धारण किया जाय कि वे त्वचा का स्पर्श करते रहें।”
“गुरुदेव! मैं अवश्य ही आपका सुझाव मानकर कड़ा ले आऊँगा। किसी ग्रह को मात देने के विचार से ही मेरा रोम-रोम पुलकित हो रहा है।”
“सामान्य प्रयोजन के लिये तो मैं सोना, चांदी और तांबे से बना कड़ा पहनने के लिये कहता हूँ। परन्तु तुम्हारे लिये किसी विशेष कारणवश मैं चाहता हूँ कि तुम चांदी और सीसे से बना कड़ा पहनो।” श्रीयुक्तेश्वरजी ने इसके विषय में ध्यान रखने की अन्य बातें भी बतायीं।
“गुरुजी। विशेष कारणवश से आपका क्या मतलब है ?” “ग्रह तुम्हारे प्रति कुछ ‘अमैत्रीपूर्ण’ रूख अपनाने जा रहे हैं, मुकुन्द! डरो मत! तुम सुरक्षित रहोगे। एक महीने के आसपास तुम्हारा यकृत तुम्हें गहरी पीड़ा देने वाला है। विधिलेख के अनुसार इस रोग को छह महीने रहना है परन्तु ग्रहशान्ति का कड़ा पहनने से यह अवधि घट कर चौबीस दिन हो जायेगी।”
दूसरे ही दिन मैं एक जौहरी के पास पहुँच गया और शीघ्र ही मेरा कड़ा बन कर तैयार हो गया। मेरा स्वास्थ्य अति उत्तम था; गुरुदेव की भविष्यवाणी मेरे दिमाग से निकल भी गयी। वे काशी में कुछ दिन रहने के लिये श्रीरामपुर से चले गये। हमारे उस वार्तालाप के तीस दिन बाद यकृत के आसपास मुझे अचानक पीड़ा होने लगी। उसके बाद के कुछ सप्ताह भयंकर यातना के दुःस्वप्न की भाँति गुजरे। गुरुदेव को इसके लिये कष्ट देने की मेरी इच्छा नहीं थी, अतः मैंने सोचा कि इस यातना को मैं स्वयं ही हिम्मत करके सहन कर लूंगा।
परन्तु तेईस दिन की भयंकर यातना ने मेरे संकल्प को कमजोर कर दिया और काशी जाने के लिये मैं रेलगाड़ी पर सवार हो गया। वहाँ श्रीयुक्तेश्वरजी अस्वाभाविक उत्साह और प्रेम के साथ मुझसे मिले परन्तु अकेले में अपनी पीड़ा उन्हें बताने का कोई अवसर उन्होंने मुझे नहीं दिया। उस दिन अनेक लोग उनके केवल दर्शन के लिये वहाँ आये। रुग्ण और उपेक्षित अवस्था में मैं एक कोने में बैठा रहा। रात को भोजन के बाद ही सारे अतिथियों से छुट्टी मिली। तब मेरे गुरु ने मुझे उस घर की अष्टकोणी बाल्कनी में बुलाया।
“तुम अवश्य अपनी यकृत पीड़ा के सम्बन्ध में यहाँ आये होगे।” मेरी ओर न देखते हुए श्रीयुक्तेश्वरजी बाल्कनी में चहलकदमी कर रहे थे और यदा-कदा चाँद के और मेरे बीच में जाते थे। “मुझे देखने दो, तुम चौबीस दिनों से बीमार हो, है न?”
“जी, गुरुदेव।”
“मैंने तुम्हें पेट का जो व्यायाम सिखाया है, उसे करो।”
“गुरुदेव! आप यदि जानते कि मुझे कितनी पीड़ा हो रही है तो मुझसे व्यायाम करने के लिये न कहते।” किन्तु फिर भी मैंने उनकी आज्ञा का पालन करने का क्षीण सा प्रयास किया।
“तुम कहते हो तुम्हें पीड़ा है; मैं कहता हूँ तुम्हें कोई पीड़ा नहीं है। ये परस्पर विरोधी बातें एक साथ सच कैसे हो सकती हैं ?” मेरे गुरु ने मेरी ओर प्रश्नार्थक दृष्टि से देखा।
मैं स्तम्भित हो गया और फिर आनन्दयुक्त स्वस्थता से विभोर हो गया। अब उस पीड़ा का कहीं लवलेश मात्र भी नहीं था जिसने कई सप्ताहों तक मुझे सोने भी नहीं दिया था। श्रीयुक्तेश्वरजी के मुख से शब्द निकलते ही रोग इस प्रकार लुप्त हो गया जैसे कभी हुआ ही न हो।
कृतज्ञता से भरकर मैं उनका चरण स्पर्श करने के लिये झुकने लगा परन्तु उन्होंने तुरन्त मुझे रोक लिया।
“बचपना मत करो। खड़े हो जाओ और गंगा पर चमकते चाँद के सौन्दर्य का आनन्द लो।” किन्तु जब मैं उनके साथ खड़ा हो गया तब उनकी आँखें खुशी से चमक रही थीं। उनके भाव से मैं समझ गया कि वे चाहते थे कि मैं इस बात को समझू कि मुझे उन्होंने नहीं बल्कि भगवान ने स्वस्थ किया था।
उस सुदूर अतीत की मुझे सदा ही प्रिय लगने वाली स्मृति के चिह्न रूप में मैं आज भी वह चांदी और सीसे का भारी कड़ा पहने रहता हूँ, क्योंकि उस दिन मुझे फिर एक बार यह ज्ञात हुआ कि मैं एक महामानव के साथ रह रहा हूँ। बाद में अनेक अवसरों पर जब मैं अपने मित्रों को रोगमुक्ति के लिये श्रीयुक्तेश्वरजी के पास लाता, तब वे निरपवाद रूप से हर बार उनके लिये कोई रत्न या कड़ा बताते थे और ग्रहशान्ति में ही बुद्धिमानी है यह उन्हें जता देते थे।
बचपन से ही मेरे मन में ज्योतिषविद्या के विरुद्ध पूर्वाग्रह बस गया था। इसका कारण अंशतः यह था कि मैंने अनेक लोगों को ज्योतिषी जो भी बतायेगा उसीके अनुसार चलते देखा था और कुछ हमारे परिवार के ज्योतिषी की मेरे लिये की गयी एक भविष्यवाणी के कारण: “तुम दो बार विधुर हो जाओगे और कुल तीन बार विवाह करोगे।” मैं जब भी इस पर विचार करता तो मुझे ऐसा लगता मानो मैं तीन विवाहों के मन्दिर के बाहर बलि के लिये बँधा बकरा हूँ।
“अब अच्छा यही है कि तुम अपने भाग्य के सामने समर्पण कर दो,” मेरे भाई अनन्त ने कहा था “तुम्हारी जन्मकुंडली के फल ज्योतिष में लिखी गयी बात कि तुम बचपन में घर से भागकर हिमालय की ओर जाओगे, पर जबरदस्ती वापस ले आए जाओगे भी सही हो गयी। तुम्हारे विवाहों की भविष्यवाणी भी सच होकर ही रहेगी।”
एक रात मेरे मन में स्पष्ट अंतर्ज्ञान उभर आया कि यह भविष्यवाणी पूर्णतः मिथ्या है। मैंने जन्मकुंडली को आग लगा दी और उसकी राख को एक लिफाफे में भरकर उस पर लिख दिया “दिव्य ज्ञान की अग्नि में जला देने पर अतीत के कर्मबीज अंकुरित नहीं हो सकते।” मैंने उस लिफाफे को ऐसी जगह रख दिया जहाँ आसानी से वह सबको दिखायी पड़े। अनन्तदा ने मेरे विद्रोही मन्तव्य को तुरन्त पढ़ लिया।
“जिस आसानी से तुमने इस कागज को जला दिया उतनी आसानी से तुम सत्य को नष्ट नहीं कर पाओगे।” अनन्तदा तिरस्कार से हँसे।
“यह सत्य है कि मेरे बालिग होने तक मेरे परिवार ने तीन बार मेरा विवाह निश्चित करने का प्रयास किया था। तीनों बार मैंने उनकी योजनाओं² पर पानी फेर दिया। मैं जानता था कि अतीत के द्वारा मुझे मनाने के लिये किये जा रहे किसी भी ज्योतिषीय प्रयास से ईश्वर के लिये मेरा प्रेम कहीं अधिक प्रबल है।
“जितनी अधिक गहरी किसी मनुष्य की आत्मानुभूति होती है, उतना ही अधिक वह पूरे ब्रह्माण्ड को अपने सूक्ष्म आध्यात्मिक स्पन्दनों से प्रभावित करता है और उतना ही कम वह स्वयं ब्रह्माण्ड के परिवर्तनों से प्रभावित होता है।” गुरुदेव के ये शब्द प्रायः मेरे मन में उठकर मुझे प्रोत्साहित करते रहते।
कभी-कभी मैं ज्योतिषियों से ग्रहदशा के अनुसार अपना सबसे बुरा समय चुनने के लिये कहता और उसी समय में जो काम हाथ में लेता उसे पूर्ण कर देता। हाँ, यह सच है कि ऐसे प्रसंगों पर सफलता मिलने से पूर्व असाधारण कठिनाईयाँ मेरे सामने आतीं । परन्तु मेरा यह विश्वास सदा ही सत्य सिद्ध हुआ– ईश्वरीय संरक्षण में पूर्ण विश्वास और मनुष्य की ईश्वरप्रदत्त इच्छाशक्ति, ये दोनों ऐसी प्रचण्ड शक्तियाँ हैं कि इन के सामने ग्रहनक्षत्रों से प्रवाहित होने वाली शक्तियाँ ठहर नहीं सकतीं।
यह बात मेरी समझ में आ गयी कि जन्म वेला के समय की ग्रहों की स्थिति का अर्थ यह नहीं होता कि मानव अपने अतीत के हाथों केवल एक कठपुतली है, बल्कि उसका संदेश तो मानव के स्वाभिमान को जगाने के लिये एक शूल है। स्वयं अंतरिक्ष हर प्रकार की सीमा से मुक्त होने के लिये मानव के दृढ़ निश्चय को जगाना चाहता है। ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य को आत्मा के रूप में बनाया है, उसे स्वतंत्र व्यक्तित्व दिया है। इसलिये वह विश्व रचना का एक अनिवार्य अंश है, फिर अपनी अल्पकालिक भूमिका में चाहे वह आधार स्तम्भ हो, चाहे एक परजीवी। यदि मनुष्य चाहे तो उसकी मुक्ति तत्काल और अंतिम होगी। यह बाह्य विजयों पर नहीं बल्कि आंतरिक विजयों पर निर्भर है।
श्रीयुक्तेश्वरजी ने हमारे वर्तमान युग के संदर्भ में एक चौबीस हजार के महा विषुव चक्र (आवर्तन) के गाणितिक प्रयोग की खोज की थी।³ यह चक्र बारह हजार वर्ष के एक आरोही अर्द्धचक्र और उतने ही काल के एक अवरोही अर्द्धचक्र में विभाजित किया गया है। इस प्रत्येक अर्द्धचक्र में चार युग होते हैं, यथाः कलि, द्वापर, त्रेता और सत्य। ये चार नाम यूनानी विचारधारा के लौह, कांस्य, रौप्य और स्वर्ण युग के समानार्थी हैं।
मेरे गुरु ने विभिन्न गणितीय गणनाओं से यह निश्चित किया कि आरोही अर्द्धचक्र का कलियुग या लौह युग ईसवी सन् ५०० के लगभग शुरू हुआ। लौह युग, जिसकी अवधि १२०० वर्ष होती है, भौतिकतावादी काल होता है; यह ईसवी सन् १७०० के लगभग समाप्त हुआ। उस वर्ष द्वापर युग शुरू हुआ। विद्युत् शक्ति और अणु शक्ति के विकास का यह युग २४०० वर्षों का होता है। इसमें टेलिग्राफी, रेडियो, हवाई जहाज और दूरी को नष्ट करने वाले अन्य साधनों का विकास होता है।
३६०० वर्षों के त्रेता युग का आरम्भ ईसवी सन् ४१०० में होगा; इस युग में निकट या सुदूर स्थित व्यक्तियों में विचारों का आदान-प्रदान और दूरी को ध्वस्त करने वाले अन्य साधनों का सामान्य जन को भी ज्ञान होगा। आरोही अर्द्धचक्र के अंतिम युग, सत्ययुग में मनुष्य अत्यंत विकसित होगा। तब वह ईश्वरीय योजना के साथ सुसामंजस्य रखते हुए कार्य करेगा।
फिर विश्व में बारह हजार वर्षों का अवरोही अर्द्धचक्र शुरू होगा जिसका आरम्भ ४८०० वर्षों के अवरोही सत्ययुग से होगा (ईसवी सन् १२५०० में) और इसी के साथ मनुष्य अज्ञान में डूबता चला जायेगा। ये कालचक्र माया-गोचर जगत् के परस्पर विरोध (द्वन्द्व) और सापेक्षता–के अनन्त तक निरन्तर चलते रहने वाले आवर्तन³ हैं। जैसे-जैसे मनुष्य एक-एक करके स्रष्टा के साथ अपनी अटूट दिव्य एकता की चेतना में जागते हैं, वैसे-वैसे वे प्रकृति के द्वैत की कारागार से मुक्त होते जाते हैं।
गुरुदेव न केवल ज्योतिष शास्त्र बल्कि विश्व के अनेकों धर्मशास्त्रों के ज्ञान के बारे में मेरी समझ में विस्तार किया। पवित्र धर्मशास्त्रों को अपने मन के निर्मल, स्वच्छ आपरेशन टेबल पर रखकर वे अन्तःप्रेरणात्मक बुद्धि के चाकू से उनका विच्छेदन कर उनमें अन्तर्वेशित हुई पंडितों की गलत व्याख्याओं को द्रष्टा महात्माओं द्वारा व्यक्त किये गये मूल सत्यों से पृथक् कर सकते थे।
“नाक के सिरे पर दृष्टि स्थिर करो।” भगवद्गीता के छठे अध्याय के १३वें श्लोक के 'सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं' के पौर्वात्य पंडितों और पाश्चात्य अनुवादकों द्वारा मान्य किये गये इस गलत अर्थ पर गुरुदेव हमेशा हँस पड़ते थे।
“योगी का मार्ग वैसे ही काफी विचित्र है,” वे कहते थे। “उससे और यह क्यों कहा जाय कि उसे भेंगा भी बनना होगा ? 'नासिकाग्रं' का वास्तविक अर्थ है 'नासिका का मूल', न कि 'नासिका का सिरा।' नाक का मूल दोनों भौंहों के बीच में है, उस भ्रूमध्य में, जो दिव्य दृष्टि का स्थान हैं।”⁵
सांख्यशास्त्र⁶ का एक सूत्र है: ‘ईश्वर असिद्धे’ ('सृष्टि के स्वामी को सिद्ध नहीं किया जा सकता' या 'ईश्वर का प्रमाण नहीं होता') मुख्यतः इस वाक्य के आधार पर ही अधिकांश पंडितगण समस्त सांख्य दर्शन को ही अनीश्वरवादी कहते हैं।
“वह सूत्र नास्तिकतासूचक नहीं है,” श्रीयुक्तेश्वरजी कहते थे। “उसका केवल इतना ही अर्थ है कि अज्ञानी मनुष्य के लिये, जो अपने सारे निष्कर्षों के लिये केवल अपनी इन्द्रियों पर ही निर्भर रहता है, ईश्वर का प्रमाण सदा अज्ञात ही रहेगा और इसलिये उस प्रमाण का अस्तित्व नहीं हो सकता। सच्चे सांख्य साधक ध्यानजनित अचल अंतर्दृष्टि के द्वारा यह जानते है कि ईश्वर का अस्तित्व भी है और उसे जाना भी जा सकता है।”
गुरुदेव ईसाइयों की बाइबिल की अत्यंत सुन्दर स्पष्टताके साथ व्याख्या करते थे। ईसाई सदस्यता की नामावली को पूर्णतः अपरिचित अपने हिन्दू गुरू से मैंने बाइबिल के अमर सत्त्व को पहचानना और ईसा के उस वचन की सत्यता को समझना सीखा जो मानव वाणी द्वारा उच्चरित समस्त वचनों में निश्चय ही सबसे अधिक रोमांचक दृढ़ता से भरा हुआ था: “स्वर्ग और पृथ्वी का लोप हो जायेगा पर मेरे शब्दों का कभी लोप नहीं होगा।”⁷
भारत के महान् सिद्धजन उन्हीं देवतानुरूप आदर्शों के आधार पर अपना जीवन जीते हैं जिन्होंने ईसामसीह को प्रेरित किया था और यही लोग ईसा के सगे-सम्बन्धी हैं जिनके बारे में उन्होंने कहा था “जो भी स्वर्ग में स्थित मेरे पिता की इच्छा का पालन करेगा वही मेरा भाई, बहन और माता है।”⁸ ईसा ने कहा था: “तुम यदि मेरे शब्दों का पालन करोगे तो तुम सचमुच मेरे शिष्य हो; तब तुम सत्य को जान जाओगे और सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा।”⁹ स्वयं अपने स्वामी बन चुके भारत के जीवन्मुक्त योगी- मुनि उस अमर बिरादरी का हिस्सा हैं, जिस के सदस्य उस एक ही परमपिता का मुक्तिदायक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
“यह आदम और हौवा की कहानी मेरी समझ में नहीं आती!” इस दृष्टान्त को समझने के मेरे प्रारंभिक प्रयासों के बीच एक दिन मैंने काफी गरम होकर कहा। “ईश्वर ने न केवल उस दोषी दम्पति को, बल्कि निर्दोष भावी पीढ़ियों को भी क्यों दण्डित कर दिया ?”
मेरे अज्ञान से अधिक मेरी उग्रता से गुरुदेव को हँसी आ गयी। “बाइबिल की उत्पत्ति नामक पुस्तक (Genesis) में गहरी प्रतीकात्मकता भरी है। इसकी शब्दशः व्याख्या करने से कुछ भी समझ में नहीं आ सकता,” उन्होंने समझाया। “उसमें जिस 'जीवन-वृक्ष' का उल्लेख है, वह मानव शरीर है। मेरुदण्ड उलटे किये गये वृक्ष के समान है जिसमें मानव के केश उसकी जड़ें हैं और अन्तर्वाही और बहिर्वाही नाड़ियाँ उस वृक्ष की शाखाएँ हैं। नाड़ीतंत्र के इस वृक्ष में आनन्द देने वाले अनेक फल लगते हैं, अर्थात् शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध के संवेदन। इनका आनन्द लेने की मनुष्य को पूरी-पूरी छूट थी; परन्तु उसे शरीर के मध्य में स्थित ('बगीचे के मध्य में स्थित')¹⁰ 'सेब' रूपी काम सुख का अनुभव लेने से मना किया गया था।
“उसमें 'सर्प' मेरुदण्ड में कुंडली मारकर बैठी कुंडलिनी शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है जो कामेन्द्रिय से संबंधित नाड़ियों को उत्तेजित करती है। 'आदम' विवेक है और 'होवा' भावना है। जब किसी भी मनुष्य में भावना या हौवा मानसिकता पर काम वासना हावी हो जाती है, तब उसका विवेक या आदम भी विनिष्ट हो जाता है।¹¹
“ईश्वर ने अपनी इच्छाशक्ति के बल द्वारा पुरुष और स्त्री के शरीरों का निर्माण कर मानवजाति का सृजन किया। उसने इस नवसृष्ट जाति को उसी 'निष्कलंक' या दिव्य तरीके से संतानोत्पत्ति करने की शक्ति प्रदान की।¹² चूँकि तब तक विलग आत्मा के रूप में परमात्मा की अभिव्यक्ति नैसर्गिक प्रवृत्तिबद्ध और विवेकहीन पशुओं तक ही सीमित थी, अतः ईश्वर ने प्रथम मानव-शरीरों का सृजन किया जिन्हें प्रतीकात्मक रूप से आदम और हौवा कहा जाता है। इन शरीरों में उसने लाभप्रद उन्नतिकारक क्रमविकास के उद्देश्य से दो पशुओं की आत्माओं को या उनके दिव्य सत्त्व को प्रस्थापित कर दिया।¹³ आदम या पुरुष में विवेक का और हौवा या स्त्री में भावना का प्राधान्य था। इस प्रकार गोचर सृष्टि में विद्यमान द्वैत या ध्रुवत्व की अभिव्यक्ति हुई। विवेक और भावना तब तक परस्पर सहयोग के आनन्द के स्वर्ग में रहते हैं जब तक मानव मन पशु वृत्ति वाली सर्प-शक्ति या कामवासना के बहकावे में नहीं आता।
“अतः मानव शरीर केवल पशुओं के क्रमविकास का परिणाम मात्र नहीं था, बल्कि ईश्वर के विशेष सृजन से उत्पन्न हुआ था। पशु शरीर इतने अविकसित थे कि पूर्ण ईश्वरत्व की अभिव्यक्ति उनमें नहीं हो सकती थी; केवल मानव को ही सर्वशक्तिमत्ता की संभावना से युक्त सहस्रदल कमल मस्तिष्क में दिया गया, साथ ही मेरुदण्ड में आध्यात्मिक शक्ति के पूर्ण जागृत गुप्त केन्द्र दिये गये।
“अस्तित्व में आये उस प्रथम नर-नारी युगल में विद्यमान ईश्वर या ईश-चैतन्य ने उन्हें सब इन्द्रियानुभूतियों का सुख लेने के लिये कहा, केवल एक को छोड़करः यौन अनुभूति।¹⁴ यह मनाही इसलिये की गयी थी कि मानवजाति वंशवृद्धि की निकृष्ट पशु-पद्धति में उलझकर न रह जाये। सुप्त अवस्था में स्थित पाशविक स्मृतियों को न जगाने की चेतावनी की उपेक्षा की गयी। संतानोत्पत्ति की पाशविक पद्धति को पुनः अपनाकर आदम और हौवा मूल सम्पूर्ण मानव में सहज ही विद्यमान स्वर्गीय आनन्द की अवस्था से गिर गये। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि 'वे नग्न थे', तब जैसा कि उन्हें ईश्वर ने पहले ही सावधान किया था, उनकी अमरता की चेतना खो गयी; उन्होंने स्वयं ही अपने को जड़ सृष्टि के नियम के अधीन कर दिया था जिसमें जन्म लेने वाले शरीर की मृत्यु निश्चित रूप से होती है।
“सर्प ने हौवा को जिस 'अच्छे-बुरे' के ज्ञान का वचन दिया था उसका अभिप्राय द्वैत भाव और परस्पर विरोधी अनुभवों से है जो माया के अधीन जीने वाले सभी जीवों को सहने ही पड़ते हैं। अपनी भावना और विवेक या हौवा और आदम-चैतन्य के दुरूपयोग से माया के भ्रमजाल में गिरकर मनुष्य दिव्य आत्म निर्भरता की स्वर्गीय वाटिका में प्रवेश करने का अपना दायित्व खो बैठता है¹⁵ मानव प्राणी का यह दायित्व है कि वह अपने 'माता-पिता' या द्विमुखी प्रकृति को एकता के तालमेल में या ईडेन में पुनः प्रतिष्ठित करे।”
जब श्रीयुक्तेश्वरजी का प्रवचन समाप्त हुआ, तो मैंने नयी श्रद्धा के साथ उत्पति के पृष्ठों पर पुनः दृष्टि डाली ।
मैंने कहा: “पूज्य गुरुदेव! आज प्रथम बार मैं आदम और हौवा के प्रति सन्तान का यथोचित दायित्व अनुभव कर रहा हूँ!”¹⁶
¹ प्राचीन हिन्दू साहित्य में मिलने वाले खगोलशास्त्रीय घटनाओं के उल्लेखों से विद्वज्जन उन ग्रन्थकारों का काल निर्धारण कर पाये हैं। ऋषियों का वैज्ञानिक ज्ञान अति विशाल था। कौशीतकी ब्राह्मण में खगोलशास्त्र विषयक ऐसे सुस्पष्ट परिच्छेद मिलते हैं जो इस बात का संकेत देते हैं कि इसा पूर्व सन ३१०० में हिन्दू खगोलशास्त्र में अत्यंत निपुण थे और मुहूर्त आदि निकालने में इस ज्ञान का व्यावहारिक उपयोग किया जाता था। ईस्ट-वेस्ट के फरवरी १९३४ के अंक में छपे तारामाता के लेख में ज्योतिष या वैदिक खगोलशास्त्रीय भाष्यों के बारे में कहा गया है: “इसमें ऐसा वैज्ञानिक ज्ञान है जिसके कारण सारे प्राचीन राष्ट्रों में भारत सबसे अग्रणी रहा। इस ज्ञान ने भारत को ज्ञान पिपासुओं का परम तीर्थ बना दिया। एक ज्योतिष ग्रन्थ ब्रह्मगुप्त खगोल विज्ञान पर एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें हमारे सौरमण्डल के ग्रहों की सूर्य परिक्रमा, पृथ्वी के परिक्रमा पथ (Orbit) का विषुववृत्त के साथ बना हुआ कोण, पृथ्वी की गोलाकृति, चन्द्रमा का सूर्य प्रकाश को परावर्तित करना, प्रतिदिन पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना, आकाशगंगा में नक्षत्रों की अचल स्थिति, गुरुत्वाकर्षण नियम और अन्य अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का वर्णन है जिनकी कोपरनिकस और न्यूटन के समय तक पाश्चात्य जगत को गंध भी नहीं थी।”
पाश्चात्य गणित के विकास में अमूल्य योगदान देने वाले तथाकथित अरबी संख्यांक भी भारत से ही नवम शताब्दी में अरबों के माध्यम से यूरोप पहुँचे। भारत में यह अंक लेखन प्रणाली अत्यन्त प्राचीन काल में ही विकसित की गयी थी। भारत की विशाल वैज्ञानिक ज्ञानसम्पदा की अधिक जानकारी इन पुस्तकों में मिलेगीः सर पी. सी. राय लिखित हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री, बी. एन. सील लिखित पॉज़िटिव साइन्सेज् ऑफ द एन्शियन्ट हिन्दूज़, बी. के. सरकार लिखित हिंदू एचीवमेण्ट्स इन एक्ज़ैक्ट साइन्स और द पॉज़िटिव बैकग्राउण्ड ऑफ़ हिन्दू सोशियालॉजी तथा यू. सी. दत्त लिखित मैटीरिया मैडिका ऑफ़ द हिन्दूज़।
² मेरे परिवार के लोगों ने मेरे लिये सम्भावित वधू के रूप में जिन लड़कियों को चुना था, उनमें से एक के साथ बाद में मेरे चचरे भाई प्रभासचन्द्र घोष का विवाह हो गया। (२४ जनवरी १९७५ को श्री प्रभासचन्द्र घोष का देहान्त हो गया। तब वे योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के उपाध्यक्ष थे)। (प्रकाशक की टिप्पणी)
³ इन चक्रों का पूर्ण स्पष्टीकरण श्रीयुकेश्वरजी द्वारा लिखित पुस्तक “द होली साईन्स” के प्रथम विभाग में दिया गया है।
⁴ हिन्दू शास्त्रों में हमारे विश्व के वर्तमान युग को एक अति विशाल ब्रह्माण्डीय कालचक्र के अन्तर्गत चलता कलियुग बताया गया है जो श्रीयुक्तेश्वरजी के इस सरल २४००० वर्षों के महा विषुव चक्र की अपेक्षा बहुत अधिक लम्बा है। शास्त्रों का यह ब्रह्माण्डीय कालचक्र ४,३०,०५,६०,००० वर्षों का है और यही ब्रह्मा का एक दिन है। यह विशालकाय संख्या एक सौर वर्ष की लम्बाई तथा वृत्तकी परिधि एवं व्यास के अनुपात के प्रतीक पाई (८३.१४१६) के एक गुणज के सम्बन्ध पर आधारित है।
प्राचीन द्रष्टाओं के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का जीवन काल ३१,४१,५९,००,००,००,००० सौर वर्षों का है। इसे ही ब्रह्मा का एक युग कहते हैं।
हिन्दू शास्त्रों में कहा गया है कि हमारी पृथ्वी के समान किसी भी जगत् का दो में से किसी भी एक कारण से लोप (प्रलय) हो जाता है जब उसके सारे निवासी या तो पूर्णतः भले या पूर्णतः बुरे हो जाते हैं। विश्व मन इस प्रकार एक ऐसी शक्ति को उत्पन्न कर देता है जो पृथ्वी के रूप में एकत्र अणुओं को मुक्त कर देती है।
यदा-कदा प्रलय या विश्व का अंत होने की भयंकर घोषणाएँ छपती रहती हैं। तथापि ग्रहों का कालचक्र एक सुव्यवस्थित दैवी योजना के अनुसार चलता है। पृथ्वी पर कोई प्रलय अभी दिखायी नहीं देता; अभी तो अनेकानेक आरोही और अवरोही महा विषुव चक्रों में से हमारी पृथ्वी को इसी वर्तमान रूप में गुजरना है।
⁵ “शरीर का प्रकाश नेत्र है इसलिये जब तुम्हारा नेत्र एक हो जाएगा, तब तुम्हारा सारा शरीर भी प्रकाश से भर जायेगा; परन्तु जब तुम्हारा नेत्र बुरा होता है, तब तुम्हारा सारा शरीर भी अंधकार से भरा होता है। इसलिये इसका ध्यान रखो कि तुम्हारे अन्दर जो प्रकाश है, वह कभी अन्धकार न बन जाय।” लूका ११:३४-३५ (बाइबिल)।
⁶ सांख्यदर्शन– हिन्दू षड्दर्शनों में से एक। सांख्य की शिक्षा यह है कि प्रकृति से पुरुष तक के पच्चीस तत्त्वों के ज्ञानलाभ से ही परामुक्ति प्राप्त होती है।
⁷ मत्ती २४:३५ (बाइबिल)।
⁸ मत्ती १२:५० (बाइबिल)।
⁹ यूहन्ना ८: ३१-३२ (बाइबिल)। सेंट जॉन ने विश्वास दिलाया है: “परन्तु जितने लोगों ने उन्हें स्वीकार किया, उन सब को उन्होंने ईश्वरपुत्र बनने की शक्ति प्रदान की, यहाँ तक कि उन्हें भी प्रदान की जिन्हें उनके नाम पर विश्वास है (जो सर्वव्यापी क्राईस्ट चैतन्य या कूटस्थ चैतन्य में स्थित हो गये हैं)।” यूहन्ना १:१२ (वाइबिल)
¹⁰ “हम बाग के सभी वृक्षों के फल खा सकते हैं, किन्तु बाग के बीच में स्थित वृक्ष के फल के बारे में ईश्वर ने कहा है कि तुम उसका फल मत खाना: यहाँ तक कि उसका स्पर्श भी मत करना, नहीं तो तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी।” उत्पति ३:२-३ (बाइबिल)
¹¹ “जिस स्त्री को तूने मेरी संगिनी के रूप में दिया था, उसने मुझे उस वृक्ष का फल दे दिया और मैंने खा लिया। स्त्री ने मुझसे कहा, सर्प ने मुझे फुसलाया और मैंने खा लिया।” उत्पति ३:१२-१३ (बाइबिल)
¹² “ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाया, ईश्वर के प्रतिरूप में उसने मनुष्य को बनाया: उन्हें नर और नारी बनाया और ईश्वर ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उनसे कहा, फूलो, फलो और वंशवृद्धि करो और पृथ्वी को समृद्ध करो और उसे विजित करो।” उत्पति १:२७-२८ (बाइबिल)।
¹³ “और प्रभु ईश्वर ने भूमि की मिट्टी से मनुष्य की रचना की और उसकी नासिका में जीवन का श्वास फेंक दिया और मनुष्य जीवित आत्मा बन गया।” उत्पति २:७ (बाइबिल)।
¹⁴ अब सर्प (काम शक्ति) भूमि के किसी भी प्राणी (शरीर की अन्य इन्द्रियों) की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म (चतुर व धूर्त) हो गया। उत्पति ३:१ (बाइबिल)।
¹⁵ “और प्रभु ईश्वर ने ईडेन में पूरब की ओर एक बाग लगाया और वहाँ उसने मानव को रखा जिसे उसने स्वयं बनाया था।”– उत्पति २:८ (बाइबिल)। “इसलिये प्रभु ईश्वर ने उसे ईडेन के बाग की उस भूमि को जोतने के लिये भेज दिया जिसको मिट्टी लेकर उसे बनाया गया था।” उत्पति ३:२३ (बाइबिल)। ईश्वर द्वारा प्रथम निर्मित दिव्य मानव की चेतना उसके माथे (पूरब की ओर) में स्थित सर्वशक्तिमान एकमात्र नेत्र में केन्द्रित थी। उस बिन्दु में केन्द्रित मानव की इच्छाशक्ति की सर्व-सृजनकारी क्षमता तब लुप्त हो गयी जब उसने अपनी स्थूल प्रकृति की “भूमि को जोतना” शुरू कर दिया।
¹⁶ “श्रीमद्भागवत में हिंदुओं की “आदम और हौवा” की कहानी का वर्णन है। प्रथम नर और नारी (स्थूल देह रूप) को स्वयंभुव मनु (स्रष्टा से उत्पन्न मानव) और उनकी पत्नी शतरूपा कहा गया है। उनकी पाँच सन्तानों ने प्रजापतियों (स्थूल शरीर धारण कर सकने में समर्थ पूर्ण जीव) के साथ विवाह किये। इन प्रथम दिव्य परिवारों से ही मानवजाति की उत्पत्ति हुई।
न पूरब में और न पश्चिम में मैंने कभी किसी से ईसाई धर्मग्रन्थों की ऐसी व्याख्या सुनी जिसमें श्रीयुक्तेश्वरजी के समान गहन आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि का ज्ञान प्रकट होता हो। गुरुदेव कहते थे: “ईसाई धर्मशास्त्रियों ने ईसामसीह के शब्दों का ऐसे परिच्छेदों में गलत अर्थ लगा लिया है जहाँ वे कहते हैं, 'मैं ही मार्ग हूँ, मैं ही सत्य हूँ, मैं ही जीवन हूँ: मेरे माध्यम के बिना कोई भी परमपिता तक नहीं पहुँच सकता' (यूहन्ना १४:६, बाइबिल)। ईसा के कहने का अर्थ यह कभी नहीं था कि वे ही ईश्वर के एकमात्र पुत्र थे, बल्कि यह था कि कोई भी सृष्टि से परे उस निर्गुण ब्रह्म या परमपिता को तब तक प्राप्त नहीं कर सकता जब तक वह पहले सृष्टि में व्याप्त क्राईस्ट चैतन्य (कूटस्थ चैतन्य) या पुत्र को अपने में प्रकट न कर दे। ईसा ने उस क्राईस्ट चैतन्य के साथ पूर्ण एकात्मता प्राप्त कर ली थी, उसके साथ वे इस प्रकार एकरूप हो गये थे कि उनका अपना अहं कब का विलीन हो चुका था।” (प्रकरण १४ दृष्टव्य)
जब पॉल ने लिखा: “ईश्वर.. ने सभी वस्तुओं की सृष्टि ईसामसीह के माध्यम से की” (इफ़िसियों ३:९, बाइबिल) और जब ईसा ने कहा: “अब्राहम के पहले से मैं हूँ” (यूहन्ना ८:५८, बाइबिल), तब इन शब्दों का सार ही यह है कि यहाँ व्यक्तित्व से परे तत्त्व की बात हो रही हैं।
एक प्रकार की आध्यात्मिक कायरता के कारण अनेक सांसारिक लोग सुविधाजनक रूप से यह विश्वास कर लेते हैं कि केवल एक मनुष्य ही ईश्वर पुत्र था। वे कहते हैं: “ईसा को अद्वितीय ही बनाया गया था, अतः मैं, एक साधारण मर्त्य मानव उनका अनुकरण कैसे कर सकता हूँ ?” परन्तु सभी मानव ईश्वर द्वारा ही बनाये गये हैं और सब को किसी-न-किसी दिन ईसा के इस आदेश का पालन करना ही होगा: “इसलिये तुम पूर्ण बनो, जैसे स्वर्ग में स्थित तुम्हारे परमपिता पूर्ण हैं” (मत्ती ५:४८, बाइबिल)। “देखो किस प्रकार का प्रेम ईश्वर ने हमें प्रदान किया है ताकि हमें ईश्वरपुत्र कहा जा सके।” (१ यूहन्ना ३:१, बाइबिल) ।
कर्म सिद्धान्त और उससे उद्धृत पुनर्जन्म की धारणा का बाइबिल के अनेक वचनों में उल्लेख मिलता है, उदाहरणार्थ, “जो कोई भी मनुष्य का रक्तपात करेगा, उसका मनुष्य द्वारा ही रक्तपात होगा।” (उत्पति ९:६, बाइबिल)। यदि प्रत्येक हत्यारे की हत्या "मनुष्य द्वारा ही" होनी हो, तो स्पष्ट है कि अनेक मामलों में इस प्रतिक्रियात्मक प्रक्रिया में एक से अधिक जीवन-काल की आवश्यकता होगी। आजकल की पुलिस इतनी शीघ्रता से यह नहीं कर सकती!
आरम्भिक काल में ईसाई चर्च को अध्यात्म-ज्ञानवादियों द्वारा तथा चर्च के अनेक पादरियों द्वारा, जिनमें ऐलेक्झान्ड्रिया के क्लिमेन्ट, सुविख्यात ऑरिजेन (तीसरी शताब्दी पूर्व) और सेंट जेरोम (पांचवी शताब्दी) शामिल हैं, स्पष्ट किया गया, यह पुनर्जन्म सिद्धान्त मान्य था। पहले पहल ५५३ ईस्वी में कुस्तुन्तुनिया (कान्स्टैन्टिनोपल) को द्वितीय परिषद ने इसे धर्मविरोधी सिद्धान्त घोषित किया। उस समय अनेक ईसाइयों का यह विचार हुआ कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त मनुष्य को काल और देश का इतना बड़ा मंच उपलब्ध करा देता है कि उसे सद्यः मुक्ति के लिये प्रयत्न करने का प्रोत्साहन नहीं मिल सकता। परन्तु सत्य को दबा देने से अनेक भूलों का जन्म होता है। जिन लक्ष-लक्ष लोगों को प्रोत्साहन देने के लिये इस सिद्धान्त को झुठला दिया गया था, उन्हीं लोगों ने अपने उस "एकमात्र जन्म" का उपयोग ईश्वर को पाने के लिये नहीं किया, बल्कि इस संसार के सुख भोगने के लिये किया जो इतनी मुश्किल से तो हाथ आया है और इतनी जल्दी हमेशा के लिये हाथ से निकल जायेगा! सत्य यह है कि जब तक मनुष्य ईश्वर पुत्र के रूप में पुनः प्रतिष्ठित नहीं हो जाता, तब तक वह पृथ्वी पर बार-बार जन्म लेता ही रहता है।