जब अचलराज से वो कर्बला बन गई तो भैरवी ने उससे पूछा...
"यदि तुम कर्बला हो तो अचलराज कहाँ हैं,?
"अचलराज कुबेर के संग गया है",कर्बला बोली...
"मुझे ज्ञात है कि तुम कर्बला भी नहीं हो,यदि तुम कर्बला भी नहीं हो तो सत्य सत्य बताओ कि कौन हो तुम"?,भैरवी ने पूछा...
"तुम सुनना चाहती हो तो सुनो कि मैं कौन हूँ",कर्बला बनी कालवाची बोली....
कर्बला बनी कालवाची अपना सत्य बताने ही जा रही थी कि तब तक वहाँ पर व्योमकेश जी आ पहुँचे और उन्होंने भैरवी के भयभीत एवं चिन्तित मुँख को देखकर पूछा....
"क्या हुआ भैरवी? तुम इतनी चिन्तित क्यों दिखाई दे रही हो"
"कुछ नहीं!काकाश्री!यूँ ही ,बस तनिक थक गई हूँ",भैरवी बोली...
"तो विश्राम कर लो",व्योमकेश जी बोलें...
अब व्योमकेश जी और भैरवी के मध्य हो रहे वार्तालाप को देखकर कालवाची अपना भेद ना खोल सकी और वहाँ से चली,भैरवी से वार्तालाप के पश्चात व्योमकेश जी चले गए तो भैरवी पुनः चिन्तित हो उठी,अब तो भैरवी के मन में भय व्याप्त हो गया था कि अब सभी का क्या होगा?,ये तो रूप भी बदल सकती है, क्या पता कब किस का रूप धरकर ये कब किसको छल ले,ये हम सभी से चाहती क्या है?,ये तो मैं अवश्य ज्ञात करके रहूँगी और भैरवी ऐसे ही विचारमग्न थी तभी अचलराज उसके समीप आकर बोला....
"क्या हुआ भैरवी?तुम इतनी चिन्तित क्यों लग रही हो"?
"कुछ नहीं ऐसे ही तनिक थक गई थी",भैरवी बोली...
"झूठ मत बोलो भैरवी! तुम्हारी चिन्ता का कारण कुछ और ही है",अचलराज बोला...
"अब तुम्हें क्या बताऊँ मैं",?,भैरवी बोली...
और तभी वहाँ दोनों के वार्तालाप के मध्य कर्बला आकर बोली...
"क्या हुआ भैरवी? अपनी चिन्ता का कारण तुम अचलराज को क्यों नहीं बता देती,देखो तो बेचारा तुम्हें ऐसी दशा में देखकर कितना विकल हो रहा है"?
"हाँ! मैं भी तो कब से पूछ रहा हूँ किन्तु ये कुछ कहती ही नहीं है",अचलराज कर्बला से बोला...
"कहा ना कि कोई बात नहीं ",भैरवी बोली...
"तुम जाओ अचलराज! मैं इससे पूछकर तुम्हें बता दूँगी कि भैरवी किस बात को लेकर इतनी चिन्तित है", कर्बला बोली....
"ठीक है तो मैं जाता हूँ",
और इतना कहकर अचलराज वहाँ से चला गया तो कर्बला बोली....
"तुम यही ज्ञात करना चाहती थी ना कि मैं कौन हूँ तो मैं तुम्हें बताती हूँ कि मैं कौन हूँ"?
और तभी वहाँ कुबेर बना कौत्रेय आकर बोला....
"भला कौन हो तुम? ये कैसा परिहास हुआ,हम सभी जानते हैं कि तुम कर्बला हो"
कुबेर की बात सुनकर कर्बला ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा तो कुबेर ने भैरवी की दृष्टि बचाकर उसे संकेत दिया कि अभी शान्त रहो,इसलिए उस समय अपने उस वाक्य के आगें कर्बला और कुछ ना बोल सकी अन्ततः कुबेर ने कर्बला का हाथ पकड़ते हुए कहा....
"कर्बला!मेरे साथ चलो,मुझे तुमसे कोई बात करनी है",
और ऐसा कहकर कुबेर कर्बला को अपने संग एकान्त में ले आया एवं वहाँ जाकर उससे बोला....
"तुम्हारा मस्तिष्क संतुलन में तो है ना! तुम ऐसी मूर्खता कर सकती हो ये मैं सोच भी नहीं सकता था,ये तो अच्छा हुआ कि मैं समय पर वहाँ पहुँच गया, नहीं तो तुमने आज सारी योजना को मिट्टी में मिला ही दिया था",
"तुम ऐसा क्यों कह रहे हो कौत्रेय"?,कर्बला बनी कालवाची ने पूछा...
"वो इसलिए कि तुम भैरवी को अपनी सच्चाई क्यों बताने जा रही थी",कुबेर बना कौत्रेय बोला...
"वो इसलिए कि उसे ज्ञात हो गया है कि मैं कौन हूँ",?कर्बला बनी कालवाची बोली...
"उसे ये कैसें ज्ञात हुआ "?,कुबेर बने कौत्रेय ने पूछा...
"उसने कल रात मुझे रूप बदलते देख लिया था",कर्बला बनी कालवाची बोली...
"रूप बदलते ही देखा था ना! किन्तु उसे अभी तक ये ज्ञात नहीं हुआ ना कि तुम ही कालवाची हो",कुबेर बने कौत्रेय ने पूछा...
"हाँ! कदाचित! ये तो ज्ञात नहीं है",कर्बला बनी कालवाची बोली...
"और जब भी तुम उसे ये बताना कि तुम ही कालवाची हो तो उसे ये चेतावनी अवश्य दे देना कि यदि अचलराज और उसके पिता को ये बात ज्ञात हुई तो अचलराज के प्राण भी जा सकते हैं",कुबेर बना कौत्रेय बोला...
"ये चेतावनी तो मैं भैरवी को दे चुकी हूँ,",कर्बला बनी कालवाची बोली...
"अरे...वाह...तब तो तुम बड़ी बुद्धिमान हो गई हो,सब मेरी संगति का प्रभाव है",कुबेर बना कौत्रेय बोला...
"यदि उसने अचलराज को ये बात बता दी तो कहीं अचलराज मुझसे घृणा ना करने लगे",कर्बला बनी कालवाची बोली...
"नहीं बताएगी वो कुछ भी अचलराज से,क्योंकि वो अचलराज से प्रेम करती है",कुबेर बना कौत्रेय बोला...
"किन्तु!प्रेम तो मैं भी करती हूँ अचलराज से ,तो मैं ऐसी क्यों हूँ,मैं भैरवी जैसी अच्छी क्यों नहीं हूँ"?,कर्बला बनी कालवाची ने पूछा...
"क्योंकि! तुम प्रेतनी हो और वो मानवी है,उसके भीतर तुम्हारी अपेक्षा त्याग की भावना अत्यधिक है और वो तुम्हारी जैसी कदापि नहीं बन सकती और तुम उसके जैसी कदापि नहीं बन सकती",कुबेर बना कौत्रेय बोला...
तब कर्बला बनी कालवाची बोली....
"ये क्या कह दिया तुमने कौत्रेय?,वो सच में मेरी जैसी नहीं बन सकती क्योंकि उसका भोजन प्राणीहृदय नहीं है,किन्तु मेरा भोजन प्राणीहृदय है,वो अचलराज को जीवित देखने के लिए उसका त्याग कर सकती है,किन्तु क्या मैं अचलराज को प्रसन्न देखने के लिए उसका त्याग नहीं कर सकती,कौत्रेय! तुमने मुझे किस दुविधा में डाल दिया है,वो साधारण युवती इतने महान कार्य कर सकती है तो क्या मैं अचलराज का त्याग करके उसे उसका अचलराज नहीं लौटा सकती,वें दोनों तो बाल्यावस्था से मित्र हैं,कदाचित वें दोनों अब युवावस्था में पहुँचकर एक दूसरे को प्रेम करने लगे है,क्या मैं ने उन दोनों के मध्य आकर उचित किया,मुझे अब ऐसा प्रतीत होता कि मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई है जो मैं उन दोनों के मध्य आ गई,मैं उन दोनों को अब किसी भ्रम में नहीं रखूँगीं,मैं अब उन दोनों से जाकर कह दूँगीं कि मैं ही कालवाची हूँ,मुझे ही महाराज कुशाग्रसेन ने दण्डित किया था"...
"तुम ऐसी भूल कदापि नहीं करोगी कालवाची",कौत्रेय बोला...
"क्यों नहीं बताऊँ उन सभी को कि मैं ही कालवाची हूँ",?,कालवाची ने पूछा...
"क्योंकि वें सभी तुम्हारे शत्रु हैं",कौत्रेय बोला...
तब कालवाची बोली....
"मैं नहीं मानती कौत्रेय! कि वें सभी मेरे शत्रु हैं,क्योंकि उन सभी के मन में कोई कपट नहीं है,उन सभी का हृदय जल की भाँति निर्मल और पवित्र है,कपटी तो मैं और तुम हैं कौत्रेय! जो उन्हें अब तक अपने सत्य से वंचित कर रखा है,मैनें तुम्हारा कहा बहुत सुन लिया किन्तु अब मैं वही सुनूँगी जो मेरा हृदय कहता है",
"कालवाची!ऐसी भूल मत करो,तुम्हें अपना प्रतिशोध लेने का ऐसा अवसर कदापि नहीं मिलेगा",कौत्रेय बोला...
तब कालवाची बोली...
"मैनें कहा ना कि मुझे उन सभी से कोई प्रतिशोध नहीं लेना,मैनें अपना सारा जीवन यूँ ही व्यर्थ बिता दिया कौत्रेय! मैं सदैव एक कुटुम्ब हेतु तरसती रही,अब जा के जब मुझे मेरा कुटुम्ब मिला है तो मैं उस कुटुम्ब को स्वयं से दूर ना जाने दूँगी,मैं अब भूतेश्वर के बताएं हुए उस चामुण्डा पर्वत पर जाऊँगीं जहाँ उसका मित्र तंत्रेश्वर रहता है एवं वो मुझे अपनी शक्तियों द्वारा सदैव के लिए युवती रूप में बदल देगा,कौत्रेय ! अब मैं इस प्रेतनी रूप से अत्यधिक खिन्न हो चुकी हूँ,मैं अब इस प्रेतनी रूप से मुक्त होना चाहती हूँ और इस कार्य में तुम ही मेरी सहायता कर सकते हो,अब मुझसे उन सभी के विरुद्ध कुछ मत कहो,मेरा हृदयपरिवर्तन तो हो ही चुका है, अब केवल मेरे इस शरीर का परिवर्तन होना शेष है....कृपया मेरी सहायता करो...कौत्रेय! नहीं तो ये अन्तर्द्वन्द्व सदैव मेरे मन मस्तिष्क के भीतर चलता ही रहेगा...
अब कालवाची को व्यथित देखकर कौत्रेय का मन भी व्यथित हो चुका था....
क्रमशः....
सरोज वर्मा...