अमोघ का उद्धाररथयात्रा के कुछ दिन बाद एक दिन सार्वभौम भट्टाचार्यने श्रीमन्महाप्रभु को अपने घरमें प्रसाद पाने के लिए आमन्त्रित किया। जब महाप्रभु उनके घरमें उपस्थित हुए और प्रसाद पाने के लिए बैठ गये तो भट्टाचार्य ने उनके आगे अन्न एवं अनेक व्यज्जनों का ढेर लगा दिया। यह देखकर महाप्रभु बोले– “भट्टाचार्यजी! यह आप क्या कर रहे हैं? क्या मैं अकेला इतना खा सकता हूँ?”
यह सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य हँसते-हँसते कहने लगे– “प्रभो ! जगन्नाथ मन्दिर में तो आप 52 बार सैकड़ों मन अन्न खा जाते हैं तथा द्वारका में 16,108 रानियों के घरोंमें खाते हैं। इसके अतिरिक्त व्रज में अन्नकूट के समय आपने समस्त व्रजवासियों के द्वारा अर्पित किये गये हजारों मन खाद्य सामग्रियों को एक क्षण में ही खा लिया। फिर उसकी तुलनामें तो यह कुछ भी नहीं है। अतः आप मुझे ठगने की चेष्टा न करें। कृपापूर्वक मेरी इस तुच्छ सेवा को ग्रहण करें।” यह सुनकर महाप्रभु प्रसन्न होकर प्रसाद ग्रहण करने के लिए बैठ गये। अभी उन्होंने भोजन करना आरम्भ ही किया था कि उसी समय सार्वभौम भट्टाचार्य का दामाद अमोघ वहाँ आ पहुँचा। वह बहुत बड़ा पाखण्डी और साधु-सन्तों का निन्दक था। उस समय सार्वभौम भाटाचार्य हाथ में लाठी लेकर द्वार पर बैठे थे। उन्हें सन्देह था कि कहीं अमोघ ने महाप्रभु को प्रसाद पाते हुए देख लिया, तो वह अवश्य ही निन्दा करेगा, और वही हुआ। अमोघ ने दरवाजे से झाँककर महाप्रभु को प्रसाद पाते हुए देख लिया तथा कटाक्ष करते हुए बोला– “अहो! एक संन्यासी दस-बीस व्यक्तियों का भोजन अकेला ही खा जाता है। यह तो बड़े आश्चर्य की बात है।” यह सुनकर जैसे ही सार्वभौम भट्टाचार्य उसे मारने के लिए उसकी ओर लपके, वह जल्दी से वहाँ से भाग गया। अब भट्टाचार्य क्रोधित होकर उसे अभिशाप देने लगे। सार्वभौम की स्त्री भी महाप्रभु की परम भक्त थी। वह रोते-रोते दोनों हाथों से अपनी छाती पीटते हुए बार-बार कहने लगी– “मेरी लड़की षाठी विधवा हो जाये, तो अच्छा है, मेरी लड़की षाठी विधवा हो जाये तो अच्छा है।”
उन दोनों को इस प्रकार दुःखित और विलाप करते हुए देखकर महाप्रभु का हृदय द्रवित हो गया। उन्हें प्रसन्न करने के लिए प्रभु ने उनकी इच्छानुसार भरपेट प्रसाद ग्रहण किया। तत्पश्चात् भट्टाचार्य ने उन्हें आचमन कराया और महाप्रभु के चरणों में गिरकर कहने लगे– “प्रभो ! आप मेरा अपराध क्षमा करें। मैंने आपको अपने घरमें बुलवाकर आपका घोर अपमान करवाया।”
श्रीमन्महाप्रभु कहने लगे– “भट्टाचार्यजी अमोघ ने मेरी निन्दा नहीं की, बल्कि उसने तो सत्य ही कहा। इसमें आपका क्या अपराध हुआ?” ऐसा कहकर प्रभु अपने निवास स्थान की ओर चल पड़े। सार्वभौम भट्टाचार्य प्रभु को छोड़ने के लिए उनके साथ गये। प्रभु के निवास स्थान पर पहुँचकर वे महाप्रभु के चरणों को पकड़कर रोने लगे। प्रभु ने उन्हें सान्त्वना प्रदान कर वापस भेज दिया। अपने घर आकर वे पत्नी से कहने लगे– “आज मैंने जिसके मुँह से अपने प्राणनाथ की निन्दा सुनी, यदि मैं उसकी हत्या कर दूँ या स्वयं आत्महत्या कर लूँ, तभी मेरे अपराध का प्रायश्चित्त होगा। परन्तु मैं यह दोनों ही कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि अमोघ ब्राह्मण है तथा मैं भी ब्राह्मण हूँ। अतः मैं आज से उस दुष्ट का परित्याग कर रहा हूँ।” ऐसा कहकर वे पुत्री षाठी से बोले– “बेटी! तेरा पति पतित हो चुका है। अतः तू उसका परित्याग कर दे, क्योंकि अभक्त एवं नास्तिक पति का त्याग कर देना ही उचित है।” उस रात अमोघ भय के कारण घर नहीं आया। प्रातःकाल जब वह घर आया तो उसे हैजा हो गया। यह सुनकर भट्टाचार्य कहने लगे– “अच्छा हुआ, जो काम में स्वयं नहीं कर पा रहा था, वह स्वयं ही हो रहा है। यदि यह मर ही जाये तो अच्छा है। भगवान् के चरणोंमें अपराध कर कोई कुशलपूर्वक कैसे रह सकता है?”
दोपहर के समय जब महाप्रभु को यह समाचार मिला तो वे तुरन्त वहाँ पर आ गये और अमोघ की छाती पर हाथ रखकर कहने लगे– “ब्राह्मण तो स्वभाव से ही सरल और निर्मल होता है। परन्तु तुमने अपने हृदय में मात्सर्य (ईर्ष्या) रूपी चण्डालिनी को क्यों बैठा रखा है? अमोघ! उठो, कृष्णनाम-कीर्त्तन करो। अतिशीघ्र ही भगवान् तुम पर कृपा करेंगे।”
उसी क्षण अमोघ 'कृष्ण-कृष्ण' कहता हुआ उठकर खड़ा हो गया तथा प्रेममें उन्मत्त होकर नृत्य करने लगा। कुछ क्षण पश्चात् वह श्रीमन्महाप्रभु के श्रीचरणों को पकड़कर निवेदन करने लगा– “हे दयामय प्रभो! आप मुझे क्षमा करें। मैंने अपने इस घृणित मुख से आपकी निन्दा की।” ऐसा कहकर वह अपने गालों तथा मुख को अपने हाथों से पीटने लगा। उसकी ऐसी दशा देखकर प्रभु ने उसे गले से लगा लिया और सार्वभौम से कहने लगे– “सार्वभौम जी यह अमोघ तो बालक है, अतः आप इसे क्षमा कर दीजिये।” यह सुनकर सार्वभौम प्रभु के चरणों में गिर पड़े।
वृन्दावन-यात्रा एवं झाड़खण्ड में पशु-पक्षियों को प्रेमदान अब श्रीमन्महाप्रभु की वृन्दावन जाने की इच्छा हुई। उन्होंने यह बात सार्वभौम तथा अन्यान्य भक्तों से कही और साथ ही यह भी कहा कि वे वृन्दावन अकेले ही जायेंगे। यह सुनकर श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु श्रीसार्वभौम इत्यादि भक्तों ने प्रार्थना की– “प्रभो! आप कृपापूर्वक बलभद्र भट्टाचार्य तथा उनके एक सेवक को अपने साथ लेकर जाइये। मार्ग में ये दोनों आपकी सेवा करेंगे। भक्तों की प्रार्थनानुसार महाप्रभु उन दोनों को साथ लेकर वृन्दावन की ओर चल पड़े। उन्होंने राजमार्ग छोड़ दिया तथा जङ्गल का रास्ता पकड़ लिया। जङ्गल बहुत ही घना और गम्भीर था। प्रभु प्रेम में उन्मत्त होकर कीर्त्तन करते हुए चले जा रहे थे। मार्ग में प्रभु का दर्शनकर बाघ, भालू तथा हाथी इत्यादि हिंसक प्राणी भी रास्ता छोड़ देते थे। महाप्रभु तो प्रेम में आविष्ट होकर चले जा रहे थे, परन्तु उनके दोनों साथियों की अवस्था दयनीय हो रही थी। वे बहुत भयभीत हो रहे थे। एक स्थान पर बीच मार्ग में एक भयङ्कर बाघ सो रहा था। प्रेम में उन्मत्त महाप्रभु का चरण उसके शरीर पर पड़ गया। प्रभु बोले– “कृष्ण बोलो! कृष्ण बोलो!” बाघ तुरन्त उठ खड़ा हुआ तथा कृष्ण-कृष्ण कहकर नाचने लगा।
एक अन्य स्थान पर जब महाप्रभु नदी में स्नान कर रहे थे, उसी समय मत्त हाथियों का एक दल नदी में जल पीने के लिए आया। प्रभु ने ‘कृष्ण कहों’ कहते हुए उन पर जल के छींटे फेंक दिये। वे जल के छींटे जिन-जिन के शरीर पर पड़े, वे सभी ‘कृष्ण-कृष्ण’ कहकर प्रेममें उन्मत्त होकर नाचने और कीर्त्तन करने लगे। उनमें से कुछ तो भूमिमें गिरकर चीत्कार करने (चिघाड़ने) लगे। यह अलौकिक दृश्य देखकर भट्टाचार्य और उनके सेवक के आश्चर्य की सीमा न रही। श्रीमन्महाप्रभु मार्गमें मधुर कण्ठ से कीर्त्तन करते हुए जा रहे थे, उनकी मधुर ध्वनि सुनकर जङ्गल की हिरणियाँ भी बेसुध होकर उन्हें घेरकर उनके साथ चलने लगीं। यह देखकर प्रभु उनके शरीर पर अपना अति कोमल हस्तकमल फिराते हुए उन पर कृपा करने लगे। उसी समय कहीं से पाँच-सात शेर भी वहाँ पर आ पहुँचे। वे भी हिरणियों के साथ मिलकर प्रभु के साथ-साथ चलने लगे। इससे प्रभु को वृन्दावन का स्मरण हो आया। जैसे ही प्रभु ने 'कृष्ण-कृष्ण कहो' कहा, वैसे ही वे हिरणियाँ एवं शेर मिलकर आनन्दसे रोते-रोते 'कृष्ण-कृष्ण' कहते हुए नाचने लगे। शेर तथा हिरणियाँ एक-दूसरेको आलिङ्गनकर एक-दूसरे का मुख चूमने लगे। यह देखकर प्रभु हँसते हुए उन्हें छोड़कर आगे चल पड़े। महाप्रभु का दर्शनकर मोर, तोते, कोयल आदि पक्षी भी 'कृष्ण-कृष्ण' कहते हुए तथा नृत्य करते हुए प्रभु के साथ चल पड़े। जब प्रभु उन्मत्त होकर 'हरि-हरि' कहते तो जङ्गल के वृक्ष एवं लताएँ भी प्रफुल्लित हो जाते थे। इस प्रकार झाड़खण्ड में स्थावर (वृक्ष आदि) एवं जङ्गम (पशु-पक्षी) सभी को प्रेमदानकर प्रभु ने उन्मत्त कर दिया।