Mujahida - Hakk ki Jung - 38 in Hindi Moral Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 38

Featured Books
  • कोन थी वो?

    वो इक खाब है या हकीकत ये लफ्जों में बयान ना कर सकता है पता न...

  • क से कुत्ते

    हर कुत्ते का दिन आता है, ये कहावत पुरानी है,हर कोई न्याय पात...

  • दिल से दिल तक- 7

    (part-7)अब राहुल भी चिड़चिड़ा सा होने लगा था. एक तो आभा की ब...

  • Venom Mafiya - 1

    पुणे की सड़कों पर रात की ठंडी हवा चल रही थी। चारों ओर सन्नाटा...

  • बारिश की बूंदें और वो - भाग 6

    तकरार एक दिन, आदित्य ने स्नेहा से गंभीरता से कहा, "क्या हम इ...

Categories
Share

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 38

भाग 38
उसे अकेले बाहर निकलने की इज़ाज़त नही थी। फिर भी जब मंजिल सामने हो तो जोश आ ही जाता है और रास्तें दिखाई देने लगते हैं। वैसे भी आज वो किसी की प्रेरणा बाहर निकाल रही थी।
चेतना ने घर से निकल कर ई रिक्शा किया और उस इलाके में पहुँच गयी जहाँ वो जाँबाज लड़की अपने वालदेन के संग रहती थी। थोड़ी सी पूछताछ के बाद पता लग गया। किसी ने बताया- 'आगे से बायें मुड़िये, बस आपको पुलिस की बर्दी दूर से दिख जायेगी, जो उसकी हिफाज़त के लिये है। वहीँ उसका घर है।'
चेतना जब वहाँ पहँची तो उसने देखा कि वाकई वहाँ उसकी हिफ़ाजत का उम्दा इन्तजाम था। वह बगैर इजाजत लिये ऊपर जाने के लिये सीढ़ीयाँ चढ़ने लगी। तभी पीछे से एक पुलिस कर्मी ने उसे ऊपर जाने से रोक लिया। ये उनकी ड्यूटी का हिस्सा था। ये बात चेतना को पता थी। दर असल वह जाँचना चाहती थी कि हिफाज़त कितनी पुख्ता है? इसीलिए उसने धडल्ले से चढ़ना शुरू कर दिया था।
चढ़ते-चढ़ते वापस लौट कर उसे रजिस्टर में पूरी एन्ट्री करनी पड़ी। उसका नाम, पता, फोन नम्बर, फोटो आई डी सब चैक किया गया और रजिस्टर पर हस्ताक्षर भी करवाये गये। साथ ही मिलने की बजह भी पूछी गयी। उसके बाद ही उसे फिज़ा से मिलने की इज़ाज़त मिल सकी। जो भी हो, अपनी परेशानी से ज्यादा उसे ये अच्छा लगा था।
फिज़ा ने घर में दाखिल होते ही सबसे पहले फिज़ा को ढ़ूँढा। पर उसे ऊपर का गेट खान साहब ने ही खोला था। चेतना ने जब अपना तार्रुख दिया तो उन्होनें बहुत इज्ज़त के साथ उसे बैठाया।
चेतना की नजर फिज़ा को ढ़ूढँ रही थी मगर वह उसे कहीँ नजर नही आई। शायद वह अन्दर होगी? तब तक वह उस कमरे का जायजा ले रही थी। बहुत खूबसूरती से उस ड्राइंगरूम को सजाया गया था। वह काफी बड़ा हालनुमा कमरा था इसलिये दो सोफे एक साथ डाले गये थे जो कुछ पुरानी तरह के थे। सामने सेठी पड़ी थी जिसका सिरहाना कुछ-कुछ ब्हेल मछली के आकार का था। चेतना ने उसे छूकर देखा। उसे ऐसा करना अच्छा लगा। वह ब्हेल से झूठ-मूठ डरने लगी। हर इन्सान के अन्दर एक बच्चा छुपा होता है जो मौका मिलने पर मुँह उठाने लगता है।
अभी जो औरत कमरें में दाखिल हुई थी वो फिज़ा की अम्मी जान थीं। उनका अदब, उनके चेहरे से झलक रहा था। वो उसे देख कर मुस्कुराई थीं। जो चेतना को बहुत अच्छा लगा था। वह भी चेतना की इस जुम्बिश को देख कर हँस पड़ी थी।
"बैठो बिटिया, फिज़ा अभी आ रही है।"
"नमस्ते आँटी" चेतना ने सलीके से कहा।
उन्होनें चेतना को सेठी के साथ खेलते हुये देख लिया था सो इस बाबत खुद ही बताने लगीं कि - "ये सेठी बहुत पुरानी है, उनके दादा ससुर के जमाने की। उनकी यादगार बतौर हमने इसे नही हटाया है।"
जी, मुझे भी बहुत अच्छी लगी। अब ये सब देखने को कहाँ मिलता है? मुझे एन्टीक चीजें बहुत पसंद हैं।"
वह मुस्कुरा दी थीं। शायद उनके ज़हन में अपने ससुर जी की यादें होगीं जिन्हें वह महसूस कर रही होगीं? चेतना ने कयास लगाया।
ट्रे में पानी का गिलास आया फिर चाय और बिस्किट। हमनें खाना शुरू किया ही था तभी एक लड़की कमरें में दाखिल हुयी। जिसके चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट थी और जिस्म से यकीन की खुशबू आ रही थी। उसकी चाल में हौसला था। वो बेहद खूबसूरत थी। पहली दफ़ा की खूबसूरती तो चेहरे की ही दिखती है। उसके जिस्म की बनावट भी साँचें में ढ़ली हुई थी। एक अजीब सा खिचाव था उसकी शख्सियत में। वो उसके करीबी सोफे पर ही आकर बैठी थी। उसने चेतना को आदाब किया और बदले में उसने भी आदाब ही कहा। चेतना चाहती तो नमस्ते भी कह सकती थी मगर मायने ये नही रखता कि कौन सी जुवान में बोला गया, मायने ये रखता है कि कितनी शिद्दत और क़ल्ब से बोला गया। उसके चेहरे पर इल्म की आब थी।
वो चुप थी। इसलिये शुरूआत चेतना ने ही की। खान साहब उठ कर बाहर चले गये थे, ताकि वो लोग मुतमईन होकर बात चीत कर सकें। उसकी अम्मी जान उन्ही के साथ बैठी रही, तब तक, जब तक वह वहाँ रही। ये उनका शक नही आदमियत थी। मेहमाननवाजी थी।
"मैं चेतना हूँ। चाहो तो मुझे लेखिका कह सकती हो वैसे तो मैं सिर्फ एक इन्सान हूँ और उसके बाद एक औरत। तुमसे मिलने की ख्वाहिश यहाँ खींच लाई वरना तो मेरे पैरों में मेँहदीं रहती है।" चेतना कह कर मुस्कुरा दी थी।
" जी, अच्छा लगा आपसे मिल कर और ये कौन सी मेंहदीं की बात कर रहीं हैं आप?" फिज़ा ने आवाज़ में चाशनी घोल कर कहा।
धीमी सी खनकदार आवाज को सुन कर चेतना हैरत अंगेज सी हो गयी। वह सोचने लगी क्या ये वही लड़की है जिसे वह मलाला का दर्जा दे रही थी? उसने आगे कहा- " मेंहदीं वाली बात को जाने दो। तुम बहुत बहादुर हो। मैं तुम पर कुछ लिखना चाहती हूँ। क्या तुम चाहोगी तुम पर लिखा जाये?"
"जी जरुर, मगर हमें यकीन नही हो रहा कि हमने ऐसा क्या किया है?" फिज़ा ने हल्के -फुलके अन्द़ाज में कह दिया। उसकी भोली सी बात सुन कर चेतना भाव विभोर हो गयी।
"तुम जानती हो, पूरे मुल्क को नाज़ है तुम पर? खासकर औरतों को।"
" हम तो बस इतना जानते हैं कि तीन तलाक अब होने नही देंगे। चाहे जो हो जाये। दूसरा औरतों की मज़लूमियत अब देखी नही जाती उन्हें बेचारा बनने से रोकना होगा।"
"अगर तुम हार गयी फिर?" जानबूझ कर चेतना ने उल्टा सवाल किया था।"
"हम नही हारेंगें, इन्सान हारता तब है जब लड़ना छोड़ देता है। चेतना मैम, ये लड़ाई तो अब जारी रहेगी। हम नही होगें फिर भी।" उसकी आवाज़ बेसाख़्ता तल्ख हो गयी थी और यकीनमंद भी, उसने थोड़ा रुक कर आगे कहा- " तीन तलाक एक साथ नही दिये जा सकते। इसकी अपनी एक मियांद होती है। जबकि लोग अपनी मन मर्जी कर रहे हैं। शरआ को पढ़ने की ज़हमत कौन उठाये? इसीलिये मर्द चाहते ही नही कि औरत पढ़े। ताकि उस पर हुकूमत करना आसान हो जाये। हमें ये सब देख कर बड़ी तकलीफ हुई है।
"अच्छा ये बताओ, तीन तलाक के खिलाफ़ आज तक किसी ने आवाज़ नही उठाई, तुममें इतनी हिम्मत कहाँ से आई? मैंने तो आज तक तलाकशुदा औरतों को जहन्नुम जीते देखा है।"
" हमारी ताकत, हमारी हिम्मत, हमारी खै़र ख़्वाह हमारी अपनी अम्मी जान हैं जिन्होंने हमें आवाज़ उठाना सिखाया। जुल्म के खिलाफ़ लड़ना सिखाया। उन्होनें कहा- 'चुप रहना जुल्म को बढ़ावा देना है। अगर आप चुपचाप सह रहे हैं तो फिर शिकायत मत कीजिये।"
"आपके अब्बू जान?" चेतना ने उसे टटोला।
" अब्बू जान भी हमेशा हमारे साथ खड़े रहे हैं। अगर वो न होते तो हम यहाँ तक नही पहुँच पाते।"
"तुम नसीबों वाली हो फिज़ा, जो तुम्हें ऐसे वालदेन मिले हैं।"
"अफकोर्स मैम, हमें फ़क्र है अपने वालदेन पर, अपने नसीब पर।"
"कहते हैं जिन औरतों का तलाक होता है या जो ससुराल में सताई जाती हैं वो बदनसीब होती हैं। फिर....तुम.... ? "
"अल्लाह जो करता है अच्छा ही करता है। अगर तलाक न होता तो फिज़ा भी एक आम औरत होती। ये अन्दर की आग इतनी तेज न दहकती, भले ही हम अपने एन.जी.ओ. में जुल्म के खिलाफ लड़ रहे हैं। मज़लूम औरतों को इन्साफ़ दिलाने की कोशिश कर रहे हैं मगर जब तक खुद को चोट न लगे दर्द का अहसास नही होता।" फिज़ा बोलते-बोलते आवेश में आ गयी थी।
" मुझे फ़क्र है फिज़ा, तुम मेरी तरह कमजोर औरत नही हो।"
"हमें नही लगता आप कमजोर हैं? बल्कि हमें आप से हिम्मत मिल रही है। खुद पर नाज हो रहा है कि आप हम पर लिखना चाहती हैं। कलम बहुत ताकतवर होती है। आप नसीबो वाली हैं आपके पास इसकी ताकत और काबलियत है। आपने हमें पहाड़ पर चढ़ा दिया है।"
क्रमश: