salvation of the white in Hindi Short Stories by DINESH KUMAR KEER books and stories PDF | श्वेत का उद्धार

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श्वेत का उद्धार

श्वेत का उद्धार

एक बार प्रभु श्रीरामचन्द्र पुष्पक यान से चलकर तपोवनों का दर्शन करते हुए महर्षि अगस्त्य के यहाँ गये। महर्षि ने उनका बड़ा स्वागत किया । अन्त में अगस्त्य जी विश्वकर्मा का बनाया एक दिव्य आभूषण उन्हें देने लगे । इस पर भगवान् श्रीराम ने आपत्ति की और कहा- 'ब्रह्मन्! आपसे मैं कुछ लूँ, यह बड़ी निन्दनीय बात होगी। क्षत्रिय भला, जान - बूझकर ब्राह्मण का दिया हुआ दान क्यों कर ले सकता है।' फिर अगस्त्यजी के अत्यन्त आग्रह करने पर उन्होंने उसे ले लिया और पूछा कि 'वह आभूषण उन्हें कैसे मिला था । '

अगस्त्यजी ने कहा- "रघुनन्दन ! पहले त्रेतायुग में एक बहुत विशाल वन था, पर उसमें पशु - पक्षी नहीं रहते थे। उस वन के मध्यभाग में चार कोस लंबी एक झील थी। वहाँ मैंने एक बड़े आश्चर्य की बात देखी।

सरोवर के पास ही एक आश्रम था, किंतु उसमें न तो कोई तपस्वी था और न कोई जीव - जन्तु । उस आश्रम में मैंने ग्रीष्म ऋतु की एक रात बितायी। सवेरे उठकर तालाब की ओर चला तो रास्ते में मुझे एक मुर्दा दिखा, जिसका शरीर बड़ा हृष्ट - पुष्ट था। मालूम होता था किसी तरुण पुरुष की लाश है। मैं खड़ा होकर उस लाश के सम्बन्ध में कुछ सोच ही रहा था कि आकाश से एक दिव्य विमान उतरता दिखायी दिया। क्षण भर में वह विमान सरोवर के निकट आ पहुँचा। मैंने देखा उस विमान स एक दिव्य मनुष्य उतरा और सरोवर में स्नान कर उस मुर्दे का मांस खाने लगा। भरपेट उस मोटे - ताजे मुर्देका मांस खाकर वह फिर सरोवर में उतरा और उसकी शोभा निहारकर फिर स्वर्ग की ओर जाने लगा। उस देवोपम पुरुष को ऊपर जाते देख मैंने कहा - 'महाभाग ! तनिक ठहरो। मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ। तुम कौन हो? देखने में तो तुम देवता के समान जान पड़ते हो, किंतु तुम्हारा भोजन बहुत ही
घृणित है। सौम्य ! तुम ऐसा भोजन क्यों करते हो और कहाँ रहते हो ।'

'रघुनन्दन ! मेरी बात सुनकर उसने हाथ जोड़कर कहा—'विप्रवर! मैं विदर्भ देश का राजा था । मेरा नाम श्वेत था। राज्य करते - करते मुझे प्रबल वैराग्य हो गया और मरणपर्यन्त तपस्या का निश्चय करके मैं यहाँ आ गया। अस्सी हजार वर्षों तक कठोर तप करके मैं ब्रह्मलोक को गया, किंतु वहाँ पहुँचने पर मुझे भूख और प्यास अधिक सताने लगी। मेरी इन्द्रियाँ तिलमिला उठीं। मैंने ब्रह्माजी से पूछा- 'भगवन् ! यह लोक तो भूख और प्यास से रहित सुना गया है; तथापि भूख-प्यास मेरा पिण्ड यहाँ भी नहीं छोड़ती, यह मेरे किस कर्म का फल है ? तथा मेरा आहार क्या होगा ?'

'इस पर ब्रह्माजी ने बड़ी देर तक सोच कर कहा- 'तात! पृथ्वी पर दान किये बिना यहाँ कोई वस्तु खाने को नहीं मिलती। तुमने तो भिखमंगे को कभी भीख तक नहीं दी है। इसलिये यहाँ पर भी तुम्हें भूख - प्यास का कष्ट भोगना पड़ रहा है। राजेन्द्र ! भाँति - भाँति के आहारों से जिस को तुमने भली भति पुष्ट किया था, वह तुम्हारा उत्तम शरीर पड़ा हुआ है, तुम उसी का मांस खाओ, उसी से तुम्हारी तृप्ति होगी। वह तुम्हारा शरीर अक्षय बना दिया गया है। उसे प्रतिदिन तुम खाकर ही तृप्त रह सकोगे। इस प्रकार अपने ही शरीर का मांस खाते - खाते जब सौ वर्ष पूरे हो जायँगे, तब तुम्हें महर्षि अगस्त्य के दर्शन होंगे। उनकी कृपा से तुम संकट से छूट जाओगे । वे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरोंका भी उद्धार करने में समर्थ हैं, फिर यह कौन-सी बड़ी बात है ? '

'विप्रवर! ब्रह्माजी का यह कथन सुन कर मैंने यह घृणित कार्य आरम्भ किया। यह शव न तो कभी नष्ट होता है, साथ ही मेरी तृप्ति भी इसी के खाने से होती है। न जाने कब उन महाभाग के दर्शन होंगे, जब इससे पिण्ड छूटेगा। अब तो ब्रह्मन् ! सौ वर्ष भी पूरे हो गये हैं।'

'रघुनन्दन ! राजा श्वेत का यह कथन सुनकर तथा उसके घृणित आहार की ओर देखकर मैंने कहा- 'अच्छा! तो तुम्हारे सौभाग्य से मैं अगस्त्य ही आ गया हूँ। अब नि:संदेह तुम्हारा उद्धार करूँगा।' इतना सुनते ही वह दण्ड की भाँति मेरे पैरों पर गिर गया और मैंने उसे उठा कर गले लगा लिया। वहीं उसने अपने उद्धार के लिये इस दिव्य आभूषण को दानरूप में मुझे प्रदान किया। उसकी दुःखद अवस्था और करुण वाणी सुनकर मैंने उसके उद्धार की दृष्टिसे ही वह दान ले लिया, लोभवश नहीं। मेरे इस आभूषण को लेते ही उसका वह मुर्दा शरीर अदृश्य हो गया। फिर राजा श्वेत बड़ी प्रसन्नता के साथ ब्रह्मलोक को चले गये।"

तदनन्तर और कुछ दिनों तक सत्सङ्ग करके भगवान् वहाँ से अयोध्या को लौटे।