संतों की महिमा अपरम्पार है। उनकी कृपा अहेतुकी होती है। उनके दर्शन मात्र से चारों धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, सभी कुछ प्राप्त हो सकता है। जैसा कि कबीरदासजी ने सोच समझकर अपनी वाणी में स्पष्ट कहा है –
तीर्थ नहाए एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले अनन्त फल, कहत कबीर विचार।।
श्री मदभागवत में भी संतों के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति के कल्याण की बात कही गई है –
नम्हम्यानि तीर्थानि न देवा कृच्छिलामाया:।
ते पुनन्त्युरुकलिन दर्शनदिव साधव:।।
5
-: स्तुति :-
श्री मस्तराम कृपालु भज मन तज सकल अभिमान रे।
जिनकी कृपामय दृष्टि पाये, होत दु:ख अवसान रे।।
वे पार्वती पति संत भूषण, योग सिद्ध महान हैं।
जिनके चरण की शरण अनुपम, जग अभय वरदान है।।
जो जा वसे शमशान में ही, तन लपेट भिभूति को।
वह काट देते सकल शापित, तापयुत अनुभूति को।।
जो बांटते हैं नित्य वैभव, मुक्त हाथों दास को।
उनकी कृपा में आस रखकर, बांध निज विश्वास को।।
देती नहीं रोये बिना मां, दूध अपने लाल को।
अनहेतुकी करते कृपा जो, धन्य हृदय विशाल को।।
है कौन मजबूरी प्रभू जो, आप अब आते नहीं।
निज भक्त पर अपनी दया की वृष्टि बरसाते नहीं।।
पाते नहीं हैं शांति मन की, प्राण अकुलाते बड़े।
अब तो कृपा कर दीजिये, हैं दास चरणों में पड़े।।
है ‘शून्य’ शरणागत प्रभू जी, अब न देरी कीजिये।
अब काटकर बंधन जगत के, नाथ दरशन दीजिये।।
गौरीशंकर गायेजा
गौरीशंकर गौरीशंकर
गौरीशंकर गायेजा।
प्रभु पद प्रीति लगायेंजा।
गौरीशंकर गायेजा।।
यह संसार काल का डेरा।
फिरत जीव माया का प्रेरा।
देश पराया दूर बसेरा।
पग पग छाया निविड अंधेरा।
जिस पर सद्गुरु कृपा करेंगे।
वही सवेरा पायेगा।
गौरीशंकर गायेजा।
प्रभु पद प्रीति लगायेजा।।
मन की मानीं बातें झूठी।
आशा तृष्णा कभी न छूटी।
कभी न पी अमृत रस बूटी।
रही शांति जीवन से रूठी।
जो जन नित सत्संग करेगा।
वही धार चढ़ पायेगा।
गौरीशंकर गायेजा।
प्रभु पद प्रीति लगायेजा।।
गौरीशंकर गौरीशंकर
गौरी शंकर गायेजा।
प्रभु पद प्रीति लगायेजा।
गौरी शंकर गायेजा।।
।। श्री मद्द्यशंकराचार्य विरचित।।
।। गुर्वष्टकम् ।।
शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम्।
मनश्चेन्न लगनं गुरोरांधिपद्मे
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किं।।
सुन्दर विरुज शरीर त्रिया रूपसी सहाई।
धन, सुमेरू सम स्वर्ण कीर्ति सब जग में छाई।
किंतु न मन गुरु चरणों में अनुरक्त हुआ यदि
हुआ सभी उपलब्ध किंतु क्या हुई भलाई।।
कलत्रं धनु पुत्रपौत्रादि सर्व
गृहं बान्धवा: सर्वमेताद्धि जातम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरांधिपद्मे
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किं।।
पत्नी पुत्र सुपौत्र बन्धु बान्धव सुखदाई।
विषद धाम धनधान्य सकल सम्पतित सुहाई।
किन्तु न मन गुरु चरणों में अनुरक्त हुआ यदि
जागा उत्तम भाग्य किंतु क्या हुई भलाई।।
षडंगवेदा मुखे शास्त्र विद्या
कावित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरांध्रिपद्मे
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किं।।
वेद शास्त्र विद्या हो सब ही कण्ठ समाई।
ललित काव्य अरु गद्य शक्ति रचने की पाई।।
किन्तु न मन गुरु चरणों में अनुरक्त हुआ यदि
पाए सद्गुण सभी किन्तु क्या हुई भलाई।।
विदेशेषु मान्य: स्वदेशेषु धन्य:
सदाचार वृत्तेषु मत्रो न चान्य:
मनश्चेत्र लग्नं गुरोरांध्रिपद्मे
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किं ।।
भूपति जिनके चरण कमल पूजें हर्षाई।
भूमण्डल में आदर मान बड़ाई पाई।
किन्तु न मन गुरू चरणों में आसक्त हुंआ यदि
वैभव मिले समस्त किन्तु क्या हुई भलाई।।
यशो में गतं दिक्षु दान प्रतापात्
जगद्वस्त सर्व करे सत्प्रसादात।
मनश्चेत्र लग्नं गुरोरांध्रिपद्मे
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किं।।
दानवृत्ति फलरूप कीर्ति दिग्मण्डल छाई।
प्रभु प्रसाद सत्कृपा सम्पदा सकल सुहाई।
किन्तु न मन गुरू चरणों में अनुरक्त हुंआ यदि
पाऐ सव ऐश्वर्य किन्तु क्या हुई भलाई ।।
परमहंस संत गौरीशंकर चरित माल 6
संतों की महिमा अपरम्पार है। उनकी कृपा अहेतुकी होती है। उनके दर्शन मात्र से चारों धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, सभी कुछ प्राप्त हो सकता है। जैसा कि कबीरदासजी ने सोच समझकर अपनी वाणी में स्पष्ट कहा है –
तीर्थ नहाए एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले अनन्त फल, कहत कबीर विचार।।
श्री मदभागवत में भी संतों के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति के कल्याण की बात कही गई है –
नम्हम्यानि तीर्थानि न देवा कृच्छिलामाया:।
ते पुनन्त्युरुकलिन दर्शनदिव साधव:।।
न भोगे न योगे न बा वाजिराजौ
न कान्ता मुखे नैव वित्तेषु चित्त्म्।
मनश्चेत्र लग्नं गुरोरांध्रिपद्मे
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किं।।
भोग योग अरू अश्व राज्य म्त्री सुखदाई।
जिनके मन ने इनमें भी लौ नहीं लगाई।।
किन्तु न मन गुरू चरणों में अनुरक्त हुआ यदि
मन तो अति दृढ़ हुआ किन्तु क्या हुई भलाई।।
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये
न देहे मनो वर्तते में त्वनर्ध्ये।
मनश्चेत्र लग्नं गुरोरांध्रिनद्मे
तत: किं तत: किं तत: किं तत: किं।।
निर्जन वन या धवल धाम कछु प्रीति न लाई।
भण्डारों धन कोष न तन में वृद्धि समाई।
किन्तु न मन गुरू चरणों में अनुरक्त हुआ यदि
अनासक्ति तो हुई किन्तु क्या हुई भलाई।।
अनर्ध्याणि रत्नादि मुक्तानि सम्यक समालिंगता कामनी य। मिनीषु।
मनश्चेत्र लग्नं गुरोरांध्रिपद्मे तत: किं तत: किं तत: किं तत: किं।।
मुक्तामणि बहुमूल्य रत्न की देरी पाई।
रात्रि कामिनी सुघर अंकशायी सुखदाई।।
किन्तु न मन गुरू चरणों में अनुरक्त हुआ यदि
हुई कामनापूर्ण किन्तु क्या हुई भलाई।।
गुरोरष्टकं य: पठत्पुण्य देही यर्ति भूपति ब्रम्हाचारी च गेही।
लभेत् वांछिताथातं पदं ब्रम्हासंज्ञं गुरोरूच्य वाक्ये यनोयस्य लग्नं।।
राजा रंक गृहस्थ ब्रम्हचारी यति कोई।
गुर्वाष्टक नित पढ़े गुरू बचनन मन जोई।
पुन्यवान तन धारी सो मन इच्छित पाई।
परम ब्रम्ह पद पाय अंत सुरपुर सो जाई।।
। शिव स्तवन ।
(छन्द- भुजंग प्रयात)
उमा नाथ नागेश कैलाश वासी।
गणाधीश नन्दीश काशी प्रकाशी।।
त्रिपुण्डी त्रिनेत्री त्रिशूली त्रिकाली।
त्रितापी त्रिनाशी त्रिशासी त्रिपाली।।
कपूरम् सुगौरम सुविद्युत स्वरूपम्।
विभूति मले अंग शोभा अनूपम।।
गले मुण्ड माला बदन बांध छाला।
धरें नाग उपवीत कालाश कराला।।
जटा जूट माथे निशानाथ राजे।
धरा पावनी संग गंगा विराजे।।
महाकाल कालाधिपत्येश ज्वाली।
निराकार ओंकार व्याली कराली।।
अनंती अनादी अगाधी अवाधी।
अकाली अपाती अगेही अराधी।।
परेशम् सुरेशम् उमेशम् महेशम्।
अनंतम् सुरम्यम् विभुम् ज्ञान गम्यम्।।
भवानी विराजे सुबामांग जाके।
भरें ऋद्धि सिद्धि धराधाम ताके।।
गणेशोमयूरेश हैं अक्ड़ शायी।
सभी विघ्न वाधा विनाशें, सहायी।
करें केहरी बास नन्दी विराजें।
भयूरारुभूषा अही प्रीत छाजें।।
छई जो छटा सो कहे कौन कैसे।
धरा स्वर्ग में भी अचम्भे न ऐसे।।
करें नाद डमरु डमड्डम् डमड्डम्।
करें भक्त भोले बम्म्वम् बम्म्वम्।।
अजारी अचीन्ही सभी योग माया।
ऋषीषों मुनीशों नहीं भेद पाया।।
करें याचना लोक-लोकाधि जासे।
करे ‘शून्य’ हा नाथ । हा नाथ। हा नाथ। तासें।।
अबारो। उबारो। उबारो। उबारो।
उमा नाथ तारों। उमा नाथ तारों।।
।। समर्पण ।।
रत्नाकरस्तब गृहं गृहिणी च पद्मा किं देशमस्ति भवते जगदीश्वराय।
आभीरववामनयनाहृतमानसाय दत्तं मनो यदुपते कृपया गृहाण।।
- अब्दुल रहीम खान खाना
गृह रत्नाकर आपका, पत्नी लक्ष्मी साथ।
स्वयं आप जगदीश हैं, देंय तुम्हैं क्या नाथ।।
किंतु गोपियन मन हरा, नयन कटाक्ष संजोय।
अत:, समर्पित करहुं मन, गृहण करहु प्रभु सोय।।
- शून्य
बजरंग सप्तक
सीता के शोक को मृतक शरीर, निहार के सोचत वीर असंका।
केसे करू अंयेष्टि विशाल, सो बारी कपीस सुवर्ण की लंका।।
टारै टारै जो न बारै बरै, तासों पारै परै ऐसौ कौन है बंका।
पौन कौ पूत सपूत अवधूत को, अंजना कौ जायौ जानै जारी है लंगा।।
सीता का शौक बढ़ावत निशिदिन, लंका बनी ज्यों निशाचर नारी।
वृक्षावली अलकावाली ताकी, सो लूम लपक कपि जाय उपारी।।
हाटक की धुति पाय के लंक, दिखावत हनुमत कौ प्रभुताई।
ईर्षा करी कपि के सुवरानन सो, कारी परी कपि नाहीं जराई।।
अक्ष कौ भक्ष औं मेघ की बात, सो रावत कौन वन वंश विनाशन।
हनुमत के गुन ग्राम गने, प्रभु राम की भक्ति को होत प्रकाशन।।
ज्ञान के धाम औ भक्ति के भान, सो सागर हो बल के हनुमंता।
मुक्ति की जुक्ति, सो संकट मोचन, गावहिं गण शारद श्रति संता।।
अंजनी के लाल के पांय परु, अरु केसरी जी के बाल मनाऊं।
विनती करू सुत शंकर से, अरु तनय पवन जू के गुन गाऊं।।
तेरे सहारे ही ‘शून्य‘ डरौ, कपि वेगि कृपा को कोर निहारौ।
नाहीं तो बूढ़त जहाज, परौ भव बंधन छोर उबारौ।।
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