संतों की महिमा अपरम्पार है। उनकी कृपा अहेतुकी होती है। उनके दर्शन मात्र से चारों धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, सभी कुछ प्राप्त हो सकता है। जैसा कि कबीरदासजी ने सोच समझकर अपनी वाणी में स्पष्ट कहा है –
तीर्थ नहाए एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले अनन्त फल, कहत कबीर विचार।।
श्री मदभागवत में भी संतों के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति के कल्याण की बात कही गई है –
नम्हम्यानि तीर्थानि न देवा कृच्छिलामाया:।
ते पुनन्त्युरुकलिन दर्शनदिव साधव:।।
4
आगत को देखा नहीं विगत हो गया स्वप्न।
आगत-विगत विभेद सब जाना बिना प्रयत्न।।
जीवन एक प्रहेलिका मृत्यू एक रहस्य।
बाबा अन्तर्मन लखा जीवन-मृत्यू दृष्य।।
पतझड़ और बसन्त में झरें फरें नित पात।
बाबा का जीवन सदा सन्त बसन्त प्रभात।।
जग बौराये पाय धन, ज्ञान, मान, सम्मान।
गौरी शंकर कै डरे, घूरे विविध विधान।।
ज्ञानी का धन ज्ञान है, योगी का धन ध्यान।
ज्ञान-ध्यान जिनको जपें, गौरीशंकर जान।।
स्वारथ वस रहते सभी, यह दुनिया की रीति।
गौरीशंकर को रही, सब पर एक प्रतीति।।
संकट टारे ‘शून्य’ के जब भी हुआ अधीर।
बाबा के बिन कौन जो समझे जन की पीर।।
जग समझा पागल तुम्है, तुम समघे जग मूढ़।
अट पट वाणी में छिपे कितने रहस निगूढ़।।
संतों की वाणी अमिट, अमिट तुम्हारे बोल।
ज्यों रेखा पाषाण की, वायु सकै नहिं डोल।।
जप तप सम्पति संत की, ध्यान धारणा कोष।
बो क्या पाऐं खोंय क्या, जिनके मन संतोष।।
खोजे से मिलता नहीं, ये धन परम अमोल।
संत कृपा से ही मिले, आत्म तत्व का झोल।।
राजा की गति राज में, ज्ञानी देश विदेस।
तीन काल तिहुं लोक में, गौरीशंकर शेष।।
जिनके ऊंचे भाग्य थे, पाई कृपा अनन्त।
कभी-कभी ही अवतरित, होते ऐसे संत।।
गति मति प्रभु सब आप ही, आप जगत का सार।
अब निज जन तारो तुरत कलि कुल कुलिश कुधार।।
लोहे को सोना करे, पारस परस पचार।
तुमने माटी से किये, हीरक खण्ड हजार।।
तन मैला मन ऊजरा भाव-कुभाव-अभाव।
जेहि के मन जस रुचि रही, सो तैसा फल पाव।।
जिसने जो चाहा, दिया, लिया न कछु प्रतिदान।
संत शिरोमणि ज्ञान घन, बाबा दया निधान।।
श्यामल कोमल गात का लख स्थूल प्रसार।
रच आत्मा पर आवरण, किया जगत व्यौहार।।
‘पार्वती’ के प्राण प्रिय, शंकर रूप सुजान।
मनुज रूप विचरत रहे किसने की पहिचान।।
तुमने तो सब कुछ दिया, जो चाहा वरदान।
पर ये मन भटका किया, हुआ न मन को भान।।
ज्ञान, मान, सम्मान, धन, ये थोथे असबाव।
चोखा तेरा प्यार है, मन दरशन का चाव।।
गौरीशंकर दर्शं बिन अब तो परे न चैन।
जोहत जोहत बाट नित, पथराये ये नैन।।
मन में दरशन की लगी, बाबा ललक अपार।
बिन जल ज्यों मछली विकल, चातक स्वांति विसार।।
नांव फंसी मंझधार में, हाथ छुटी पतवार।
अब तो बस बाबा करें, दीन दास उद्धार।।
जिनके गाये गीत नित, स्वारथ रत निर्मोह।
क्यों बाबा निष्ठुर बने।। हो बालक पर छोह।।
जो बाबा की शरण में, उसको क्या संताप।
बाबा तो पल में हरें, पाप शाप परिताप।।
मस्तराम के नाम से रहते पापी दूर।
जिनके मन बाबा बसें, रहे कृपा भर पूर।।
मारन हान अनेक हैं, तारन हार न एक।
मरना तज तरना चहे, ले बाबा की टेक।।
कितने नित आऐं यहां, कितने जांय सिधार।
जो चाहो जीवन सुफल, बाबा नमा पुकार।।
दास तुम्हारे नाम का करता जाप अखण्ड।
अब विलम्ब प्रभु मत करो, हरिये ताप प्रचण्ड।।
कितने तारे दीन जन, कितने किये विमुक्त।
जो तारो इस ‘शून्य’ को, तो हो नाम प्रयुक्त।।
जिन पकरे सद्गुरु चरन, ते न सहें भव भीर।
अस विचार दृढ़ आन मन, सेवहु गुरु धर धीर।।
मन बल, धन बल, बाहु बल, प्रबल काल बल होय।
पे श्रद्धा विश्वास युत, विजयी या जग सोय।।
मानव का जीवन मिला, यह अवसर अनमोल।
उठी हाट फिर कब लगे। गौरीशंकर बोल।।
कण कण में बाबा रमें, क्षण क्षण में कर याद।
जीवन तो कुल चार दिन, मत कर ये बरबाद।।
बाबा तो मन में रमें, कर में काम ललाम।
इस जग सुख-सम्पत्ति मिले, उस जग मन विश्वास।।
तेरे मन में कछु वसी, कर्ता के कछु आन।
कर्ता-भर्ता से परे संतों का स्थान।।
गौरीशंकर को जपो, निशिदिन आठों याम।
संत चरन अशरन शरन, दया धाम निष्काम।।
जब तक मन में हो नहीं, बाबा का आवास।
तब तक कैसे पाऐगा, शांति, सुमति, विश्वास।।
बाबा की महिमा अमित, वरनी कछु यह आश।
माखी जिमि निज बल उड़े, जदपि अनंत अकाश।।
वाणी मेरी अटपटी, कर लेखनी अशक्त।
विद्वदू करहहिं क्षमा, लख बाबा कर भक्त।।
उपसंहार
मौ सों कहत ‘सतीश’ जग, सक्सेना कायस्थ।
जदपि ‘शून्य’ बाब कृपा, करत रोगियन स्वस्थ।।
नहीं ज्ञान नहिं बुद्धि बल, नहिं कछु भक्ति, अयान।
’गौरीशंकर’ चरित की माल सुकृपा प्रमान।।
पित्र पक्ष की रीति यह, जग जल पुखन देंय।
’शून्य’ विनय दोहा सलिल, तरपन अंजुरी लेंय।।
को अस जो त्रुटि ना करे, गौरीशंकर छोड़।
मैं भण्डारी भूल का, भरूं कोष नित जोड़।।
गौरीशंकर की कथा, कहे, सुने छल छोड़।
’शून्य’ मिले प्रभु की कृपा, कटे कुकरनी क्रोड़।।
।।इति शुभम्।।
सर्वपित्री अमावस्या सम्वत् 2052 रचियता संत चरण दासानुदास
दिनांक 24.09.95 डॉ. सतीश सक्सेना ‘शून्य’
-आरती-
ॐ जय गौरीशंकर, (बाबा) जय गौरी शंकर।
पारवती पति भोले, हर शिव प्रलयकर।।
ॐ जय गौरी शंकर।। टेक।।
तुम भोले भण्डारी, रिधि सिधि के दाता।
भक्तन रक्षा करता, निज जन के त्राता।।
श्यामल गात मनोहर, तन अति सुधर धरे।
करत गूढ़ नित चरचा, सब गुन ज्ञान भरे।।
जनम बिलउआ लीन्हा, पावन थल कीन्हा।
जहां जहां पग धारे, तीरथ मन चीन्हा।।
पियो हलाहल स्वामी, अमृत जग बांटा।
पाप शाप सब मेंटे, शूल किया कांटा।।
गौरीशंकर बाबा, मस्तराम स्वामी।
परमहंस अवतारी, संत परम धामी।।
जिसकी ओर निहारो, उसकी नाव तरे।
जिनको आस तिहारी, तिनके काज सरे।।
प्रभु गौरीशंकर की, आरती जो गावे।
’शून्य’ सकल दुख, सब सुख, सुर पुर सो जावै।।
ॐ जय गौरीशंकर, (बाबा) जय गौरीशंकर।
पारवती पति भोले, हर शिव प्रलयंकर।।
ॐ जय गौरीशंकर ।।
डॉ. सतीश सक्सेना ‘शून्य’