Expectations in Hindi Motivational Stories by Disha Jain books and stories PDF | एक्सपेक्टेशन्स

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एक्सपेक्टेशन्स

प्रश्नकर्ता : पूज्यश्री, फेन्ड्स से कैसी और कितनी लिमिट तक एक्सपेक्टेशनस् रखनी चाहिए?

पूज्यश्री : जीरो एक्सपेक्टेशन रखनी चाहिए और एक्सपेक्टेशन पूरी होने की आशा कभी नहीं रखनी चाहिए। किसी को कुछ देने का भाव रखना! हम क्यों भीख माँगे कि मैंने तुम्हारे दस काम किए। तुम्हें मेरा एक काम तो करना चाहिए ना! हम क्यों भीखरीपना करें?

प्रश्नकर्ता : लेकिन फेन्डशिप में कहीं ना कहीं एक्सपेक्टेशनस् आ ही जाती हैं।

पूज्यश्री : हाँ, लेकिन अगर एक्सपेक्टेशनस् फूलफील नहीं हों तो रेडी रहना चाहिए कि संयोगवश पूरी ना भी हों। मुझे क्लेश नहीं करना है। जब अपेक्षा पूरी ना हो सके तब झगड़ा नहीं करना चाहिए। यदि पापा को घर पर फोन करके कहा हो कि “मैं सात बजे तक घर आ जाऊँगी” लेकिन रास्ते में ट्राफिक के कारण लेट हो गया हो, ऐसा कभी होता है क्या?

प्रश्नकर्ता : हाँ!

पूज्यश्री : उसके लिए पापा तुम्हें डाँटते है या समझ जाते हैं कि नहीं, ट्राफिक के कारण लेट हो सकता है। अहमदाबाद का ट्राफिक! अतः समझ जाते है कि नहीं, तुम्हारी भूल नहीं है। संयोगवश लेट हुआ है। तुमने कहा हो कि “मैं सात बजे तक घर आ जाऊँगी” और सात बजे तुम नहीं पहुँचती हो तो घरवालों को झगड़ा करना चाहिए, मारना चाहिए या घर से निकाल देना चाहिए?

प्रश्नकर्ता : नहीं, लेकिन फेन्ड्स में कैसा होता है कि एक्सपेक्टेशनस् पूरी ना हो सके तो उसके प्रति अभाव हो जाता है या गुस्सा आता है। ऐसा सब बहुत होता है।

पूज्यश्री : हाँ लेकिन, एक्सपेक्टेशन रखना वह तुम्हारी भूल है? या फिर उसने पूरी नहीं की तो उसकी भूल है?

प्रश्नकर्ता : एक्सपेक्टेशन रखना वह मेरी भूल है।

पूज्यश्री : तो फिर अपनी भूल सुधारो ना! और संयोगवश इस बार एक्सपेक्टेशन पूरी नहीं कर पाती है लेकिन पहले तो उसने दो-चार एक्सपेक्टेशनस् पूरी की होंगी ना?

प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन जब एक्सपेक्टेशन पूरी नहीं होती, उस समय समझ में नहीं आता है।

पूज्यश्री : समझ में नहीं आता, तो अब समझ लो आज यह ज्ञान मिला, तो अब जागृति रखो और पहले जहाँ-जहाँ अपेक्षा पूरी नहीं हुई हो, भाव-अभाव हुआ हो, भाव बिगड़े हों, उन सब के प्रतिक्रमण करना चालू करो। पूरा जीवन यही जागृति रखनी पड़ेगी। जहाँ अटैचमेन्ट होता है ना, वहाँ एक्सपेक्टेशनस् शुरू हो जाती है और एक्सपेक्टेशनस् पूरी नहीं हो पाएँ तो झगड़ा हो जाता है, द्वेष हो जाता है, भेद पड़ जाता है। फिर घर में सास के साथ, पति के साथ, बहु के साथ और ननंद के साथ भी ऐसा होगा। सभी प्रकार की तैयारी रखना, क्या? शुरुआत फेन्ड्स से करो और फिर मम्मी-पापा।

(अपेक्षा के परिणाम! )
गुरुजी को शिष्यों पर अत्यंत राग था। नियम है कि जिसके प्रति अत्यंत राग हो उसके प्रति अपेक्षा जन्म लेती है। अपेक्षा अर्थात् कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा।


अषाढ़ाभूति नाम के एक गुरु थे। उनके कई शिष्य थे। एक बार उनके एक शिष्य बीमार पड़ गए और उनकी मृत्यु का समय नज़दीक आ गया। अषाढ़ाभूति गुरु को अपने शिष्यों से बहुत लगाव था। शिष्यों ने भी गुरुजी के पास से धर्म के पाठ सीखकर बहुत पुण्य कमाया था। इसलिए उनकी ऊँची गति होना तय था। जब शिष्य कि अंतिम श्वास चल रहीं थीं तब गुरुजी ने उन्हें मंत्र सुनाया और कहा कि वत्स, यदि तुम देवलोक में जाओ तो वहाँ से आकर मुझे धर्म का पाठ पढ़ाना और उर्ध्वगति में जाने का रास्ता बताना।

शिष्य ने सिर हिलाकर 'हाँ' में स्वीकृति दी और वचन दिया कि हाँ, मैं ज़रूर आकर आपसे मिलूँगा।

शिष्य मृत्यु के बाद देवलोक में ही गए। लेकिन वे दवलोक के भोग-विलास और सुख में डूबकर गुरु की बातें और गुरुजी दोनों को भूल गए। जबकि यहाँ गुरुजी अपने शिष्य की राह देखते रहे।

इस तरह एक के बाद एक गुरुजी के चार शिष्यों की मृत्यु हुई। सभी से गुरुजी ने यही वचन लिया कि वे देवलोक में से आकर उनसे मिलेंगे और धर्म की बात करेंगे। लेकिन वर्षों बीत गए, फिर भी उनमें से कोई भी शिष्य गुरुजी के पास वापिस बात करने या धर्म का पाठ पढ़ाने नहीं आए।

गुरुजी को शिष्यों पर अत्यंत राग था। नियम है कि जिसके प्रति अत्यंत राग हो उसके प्रति अपेक्षा जन्म लेती है। अपेक्षा अर्थात् कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा। यहाँ गुरुजी के मन में ऐसी अपेक्षा जागी कि उनके शिष्य देवलोक से आकर उनसे मिलें और उन्होंने शिष्यों को जो शिक्षा दी थी उसके बदले वे उन्हें उर्ध्वगति में जाने का रास्ता बताएँ। लेकिन सभी शिष्य अपनी-अपनी दुनिया में मशगूल थे और वे गुरुजी की अपेक्षा पूरी नहीं कर सके। जब अपेक्षा पूरी नहीं हो पाती है तो रिएक्शन में द्वेष उत्पन्न होता है। गुरुजी को भी अपने शिष्यों पर क्रोध आया। इतना ही नहीं, गुरु महाराज को धर्म के उपर शंका होने लगी। जो गुरु शिष्यों को धर्म का पाठ पढ़ाते थे, उनका स्वयं ही धर्म के उपर से विश्वास उठ गया। ‘यह सब काल्पनिक बाते है! पाप-पुण्य जैसा कुछ है ही नहीं जप-तप सब बेकार के प्रयत्न है!’ यह सोचकर उन्होंने साधुपना त्यागकर संसारी वेश अपनाने का फैसला कर लिया।

गुरुजी के चौथे शिष्य ने अवधिज्ञान द्वारा देवलोक से देखा कि गुरुजी ने साधुता छोड़ने का फैसला कर लिया है। गुरुजी के साथ ऋणानुबंध होने के कारण शिष्य को लगा कि गुरुजी को गलत रास्ते पर चलने से रोकना चाहिए। इसके लिए वे पृथ्वीलोक पर उतरे और जिस मार्ग से गुरुजी जा रहे थे। वहाँ उन्होंने एक दैवी नाटक की रचना की।

देव ने सबसे पहले छः मायावी बच्चें बनाएँ, जो जंगल से जाते हुए गुरुजी को रास्ते में मिले। एकांत जंगल में सोने और हीरे के आभूषण पहने हुए बच्चों को देखकर अषाढाभूति के मन में लालच आ गया। साधुता छोड़कर संसार में जाने के लिए निकले तो थे परंतु संसार का खर्च कैसे चलेगा? यह प्रश्न उन्हें सता तो रहा ही था, तभी वहाँ उन नादान बच्चों के आभूषणों को देखकर वे विवेक भूल गए। उन्होंने बच्चों के गहने उतारकर अपनी झोली में छुपा लिए। अपना गुनाह छुपाने के लिए उन्होंने बच्चों को मार डाला और वहाँ से भाग गए।

देवकृत नाटक में आगे उन्हें एक साध्वी जी मिलीं। साध्वी जी ने उन्हें हिंसा, चोरी, झूठ आदि गुनाहों के भयंकर परिणामों के बारे में बताया और वीतराग धर्म की चर्चा की। इससे गुरुजी को अपनी गलती का अहसास हुआ और उनका मन कचोटने लगा।

आगे बढ़ने पर गुरुजी को एक बड़ी सेना मिली। जिसमें राजा-रानी और उनका परिवार था। धर्म में रुचि रखने वाले राज परिवार ने गुरु महाराज को देखा। धर्मलाभ पाने के उद्देश्य से उन्होंने गुरुजी को घेर लिया और उनसे दान-दक्षिणा लेने की विनती की। गुरुजी के मन में और ज्यादा पछतावा हुआ, अरेरे, यह लोग एक साधु के तौर पर मेरा इतना सम्मान कर रहे हैं, और मैंने कैसा घोर पाप किया! अगर इन लोगों को मेरी हकीकत पता चलेगी तो साधुओं पर से इनका विश्वास उठ जाएगा। यह सोचकर गुरुजी आनाकानी करके वहाँ से जाने लगे। लेकिन राजा ने उनकी झोली पकड़कर उन्हें रोकने का प्रयास किया। तभी अचानक उनकी झोली में से चोरी किए हुए गहने निकलकर बाहर गिर पड़े। गुरुजी थर-थर काँपने लगे। और उन्हें बहुत पछतावा हुआ वे अपने हाथों से मुँह छिपाकर रोने लगे।

गुरुजी का पश्चाताप देखकर देव प्रकट हुए और कहा, “गुरुजी, शांत हो जाइए। ये बच्चें, गहने, साध्वी जी, सेना, राज परिवार यह सब एक दैवी नाटक था, हकीकत नहीं। मैं आपका चौथा मृतक शिष्य हूँ। मुझे पहचाना?” यह सुनकर गुरुजी थोड़ा शांत हुए।

माफ कीजिए गुरुजी मैं आपको दिया हुआ वचन भूल गया था। आपकी कृपा से हमें देवलोक का सुख मिला लेकिन वहाँ के भोग-विलास में हज़ारों वर्ष निकल गए और हम सब भूल गए। पुण्य-पाप, स्वर्ग नर्क, मोक्ष सब सत्य है।

अषाढाभूति को अपनी गलती का अहसास हुआ। शिष्यों से अपेक्षा रखने के कारण धर्म पर से उनकी श्रद्धा जो उठ गई थी वह पुनः जीवित हुई। अपनी गलतियों का उन्होंने बहुत पछतावा किया और उन्होंने फिर से दीक्षा ग्रहण की। ऊँची भावना करते हुए उन्हें उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त हुआ।

दोस्तो, जब हम किसी के लिए कुछ अच्छा करते हैं तो बदले में ‘उसे भी मेरे लिए ऐसा करना चाहिए’ ऐसी अपेक्षा रखते हैं। यह अपेक्षा हमें कहाँ से कहाँ ले जा सकती है। और इसमें कितना जोखिम है।