दिन-प्रतिदिन लड़के की बिगड़ती हालत देखकर घर के सभी लोग चिन्तित हो उठे। दो दिन के भीतर वह इतना कमजोर हो गया कि उठना-बैठना मुश्किल हो गया। डॉक्टर ने कहा “यह हैजे का उग्र रूप है।”
लेकिन लड़के की माँ के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। उन्हें दृढ़ विश्वास था कि उनके मुकुन्द को यमराज भी स्पर्श नहीं कर सकेंगे। भले ही इसे कुछ दिन कष्ट भोगना पड़े। जिस बालक को गुरुदेव का आशीर्वाद मिला है, उसकी अकाल मृत्यु नहीं हो सकती। उन्हें याद है जब मुकुन्द गोद में था तब भगवती चरण घोष सपरिवार काशी में योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी का दर्शन करने आये थे। दरअसल वे शिष्य बनने आये थे। मुकुन्द को गोद में लेकर घोष-पत्नी काफी लोगों के पीछे बैठी थीं। एकाएक उनके मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि इस बालक पर अगर लाहिड़ी महाशय की दृष्टि पड़ जाय तो इसका जीवन मंगलमय हो जायगा।
अन्तर्यामी गुरुदेव ने इस इच्छा को जान लिया। घोष पत्नी को पास बुलाकर बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था– “आयुष्मान भव।”
बस, इस आशीर्वाद को सुनकर माँ मुकुन्द के भावी जीवन के प्रति आस्थावान हो गयी थीं। पति के साथ उन्होंने भी योगिराज के निकट दीक्षा ली थी।
केवल यही नहीं, एक और संत का आशीर्वाद मुकुन्द को मिला है। लाहिड़ी महाशय से दीक्षा लेने के कुछ दिनों बाद भगवती चरण की बदली लाहौर हो गयी।
एक दिन एक अपरिचित संन्यासी आया और घोष बाबू से कहा “मैं मुकुन्द की माँ से मिलना चाहता हूँ।”
मुकुन्द की माँ जब बाहर आई तब उक्त संन्यासी ने कहा– “माताजी, अब आप अधिक दिनों तक नहीं रहेंगी। अब जब कभी बीमार होंगी तब आपके जाने का समय होगा। लेकिन उसके पहले आपको एक काम करना होगा।” जेब से एक ताबीज निकालकर दिखाते हुए संन्यासी ने कहा– “कल जब आप ध्यान करने बैठेंगी तब अचानक शून्य से आपके हाथ में एक ताबीज गिरेगा। आप उस ताबीज को हिफाजत
से रख देंगी। जब आप बीमार होंगी तब किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में ताबीज देते हुए उसे बता देंगी कि आपके निधन के एक वर्ष बाद इसे मुकुन्द को दे दिया जाय, उसके पहले नहीं। वह ताबीज मुकुन्द का कल्याण करने के पश्चात् जिस प्रकार आयेगा, ठीक उसी प्रकार चला जायेगा।”
इतना कहने के बाद साधु चला गया। घोष पत्नी अवाक् होकर देखती रहीं। दूसरे दिन भगवती बाबू की पत्नी जब ध्यान में बैठीं तब संन्यासी के बताये हुए निर्देश के अनुसार न जाने कहाँ से एक ताबीज हाथ पर गिरा। चौंककर वे चारों ओर देखने लगीं। कमरे में कोई नहीं था। मुकुन्द की माँ को विश्वास हो गया कि यह ताबीज मेरे बच्चे की रक्षा करेगा। आज भी वह ताबीज उनके पास है।
इस घटना के बाद से वे मुकुन्द पर विशेष ध्यान देने लगीं। मुकुन्द जब अपने पलंग पर अकेला बैठता न जाने क्या सोचता रहता है तब उसके चेहरे के चारों ओर एक प्रकार की आभा प्रस्फुटित होती है। एक बार उन्होंने मुकुन्द से पूछा– “तू बैठा-बैठा क्या सोचता है?”
मुकुन्द ने कहा– “आँखों के सामने सब कुछ दिखाई देता है, पर आँखों के पीछे क्या है, पता नहीं चलता।” फिर अचानक जैसे भूली हुई बात याद आ गयी हो, इस तरह कहने लगा– “माँ, माँ, एक दिन मेरी आँखों के सामने कई संत आकर खड़े हो गये। मैंने उन लोगों से पूछा कि आप लोग कौन हैं? उन लोगों ने बताया कि हम सब हिमालय के संत हैं। वहीं जा रहे हैं। कभी तुम्हें भी वहाँ ले जायेंगे।”
यह बात सुनकर विस्मय से माँ की आँखें बड़ी-बड़ी हो गयीं। उन्हें लाहिड़ी महाशय की बातों पर विश्वास हो गया। उन्होंने कहा था– “आगे चलकर यह बालक संत बनेगा।”
गुरुदेव की याद आते ही घोष बाबू की पत्नी ने सामने की दीवार पर टंगे चित्र को नमस्कार किया। एकाएक उनके मन में विचार आया कि अगर मुकुन्द गुरुदेव के चित्र को प्रणाम करे तो अवश्य चमत्कार होगा। उन्होंने तुरंत मुकुन्द से कहा– “बेटा, सामने गुरुदेव का चित्र टँगा है, उन्हें प्रणाम करो।”
मुकुन्द ने प्रयत्न किया, पर कमजोरी के कारण उसके हाथ नहीं उठे। उसने कहा– “माँ, मेरे हाथ उठ नहीं रहे हैं।”
“कोई हर्ज नहीं। मन ही मन उन्हें प्रणाम करो। मुझे विश्वास है कि गुरुदेव की कृपा से तुम बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे।”
मुकुन्द ने माँ की आज्ञा का पालन किया। उसी दिन से वह स्वस्थ होने लगा।
बाबू भगवती चरण घोष बंगाल-नागपुर रेलवे के उपाध्यक्ष पद पर काम कर रहे थे। जिन दिनों वे गोरखपुर में थे, उन्हीं दिनों 5 जनवरी, सन् 1893 के दिन मझले
पुत्र के रूप में मुकुन्द ने जन्म लिया था। स्वयं सात्त्विक विचार के थे। घर पर माँ बच्चों को रामायण तथा महाभारत की कहानियाँ सुनाया करती थीं पिताजी के साथ अविनाश बाबू कार्य करते थे। अक्सर उनके यहाँ जाने पर अनेक संतों की कहानियाँ वह सुना करता था। खासकर वे अपने गुरुदेव श्यामाचरण लाहिड़ी की चर्चा करते थे जिनका चित्र उसके घर पर है।
स्वयं मुकुन्द को अपने ऊपर कभी-कभी आश्चर्य होता था। अगर वह कोई बात दृढ़ता से कहता है तो वह हो जाती थी। उसकी बहन उमा अपने पैर के फोड़े पर मरहम लगा रही थी। मुकुन्द ने डिबिया से थोड़ी सी दवा निकालकर अपनी बाँह पर लगाया। यह देखकर उमा ने पूछा– “तुमने दवा क्यों लगायी ? तुम्हें तो कुछ नहीं हुआ है।”
“दीदी, देखना कल यहाँ फोड़ा हो जायगा।”
“चल हट बेमतलब फोड़ा क्यों होगा?”
दूसरे दिन ठीक उसी जगह फोड़ा हो गया जहाँ मुकुन्द ने दवा लगायी थी। इस प्रकार की अनेक घटनाएँ उसके बचपन में हुई थीं।
एक अर्से के बाद बड़े भाई के विवाह की बातचीत करने के लिए माँ कलकत्ता चली गयीं। उन्हीं दिनों एक दिन मुकुन्द के स्वप्र में आकर माँ ने कहा– “मुकुन्द, तुम अपने पिताजी को लेकर शीघ्र कलकत्ता चले आओ, अन्यथा मुझे जीवित नहीं देख पाओगे।”
मुकुन्द ने सारी बातें पिताजी से कहने के पश्चात् कलकत्ता चलने का आग्रह किया। भगवती बाबू ने इस बात पर विश्वास नहीं किया। वे टाल गये। ठीक इसी समय कलकत्ते से पत्नी की अस्वस्थता का तार आया। इस तार को पाते ही वे कलकत्ता रवाना हो गये। यहाँ आने पर पता चला कि कल रात को ही पत्नी का निधन हो गया था।
माँ के निर्देशानुसार बड़े भाई अनन्त ने १४ माह बाद मुकुन्द को माँ का एक पत्र और उस ताबीज को दिया जिसका जिक्र किया जा चुका है। माँ के निधन के कारण घर के सभी लोग रिक्तता महसूस करते रहे। इन्हीं दिनों मुकुन्द को सनक सवार हुई कि वह बनारस जाकर योग की शिक्षा लेगा। उसकी जिद्द के आगे पिता को झुकना पड़ा।
बनारस आकर वह एक विद्यालय में दाखिल हुआ जहाँ योग की शिक्षा दी जाती थी। मुकुन्द के भावी गुरु बनारस में अपनी बीमार माँ की सेवा कर रहे थे। जब गुरु की अतीन्द्रिय-शक्ति ने उन्हें सूचित किया कि उनके शिष्य का आगमन नगर में हो गया है तब वे उसे अपनी ओर आकर्षित करने की क्रिया करने लगे।
एक दिन जब मुकुन्द बंगाली टोला से दशाश्वमेध की ओर आ रहा था तब उसने महसूस किया कि आगे बढ़ने से उसके पैर इंकार कर रहे हैं। पैर सुन्न पड़ गये हैं। ऐसा क्यों हो रहा है, इसे वह समझ नहीं पा रहा था। पीछे की ओर चलने पर पैरों में स्वाभाविक गति आ गयी। पुनः जब आगे बढ़ा तो पूर्ववाली स्थिति आ गयी। मुकुन्द समझ गया कि कोई अदृश्य शक्ति उसे आकर्षित कर रही है। अब वह आगे न बढ़कर पीछे की ओर मुड़ा एक गली की मोड़ पर आकर उसने देखा गेरुआ वस्त्रों से आच्छादित, दाढ़ी वाला एक संन्यासी उसे तीव्र दृष्टि से देख रहा है। पास जाते ही संन्यासी ने कहा– “आ गये वत्स, मेरे पीछे-पीछे चले आओ।”
एक अद्भुत आकर्षण से मुकुन्द उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। जलपान कराने के बाद संन्यासी ने कहा– “तुम यहाँ क्रियायोग की शिक्षा जिस ढंग से ले रहे हो, वह अवैज्ञानिक है। मेरे आश्रम में आओ, तुम्हें वास्तविक क्रियायोग का ज्ञान दूँगा जिसकी तुम्हें जरूरत है।”
मुकुन्द ने कहा– “जब यहाँ सीख रहा हूँ तब आपके यहाँ आने की क्या आवश्यकता है। मैं नहीं आऊँगा।”
संन्यासी ने हँसकर कहा तुम्हें आना ही पड़ेगा। आज से २८ वें दिन तुम मेरे आश्रम में अपने को पाओगे जो कि कलकत्ता से १२ मील दूर श्रीरामपुर में है। मुकुन्द ने कहा– “यह असंभव है।”
प्रत्युत्तर में संन्यासी केवल मौन रह गये। उनके चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान फैली हुई थी भवितव्य होकर ही रहता है।
मुकुन्द जिस आश्रम में रहता था, वहाँ नित्य उपद्रव होने लगा। वह अपने को अछूता नहीं रख सका। फलस्वरूप एक दिन उस आश्रम को नमस्कार कर घर की ओर रवाना हो गया। उन दिनों उसका परिवार कलकत्ता में रहता था।
एक अज्ञात प्रेरणा से मुकुन्द को श्रीरामपुर आना पड़ गया। आश्रम में प्रवेश करते ही उसने सुना– “आ गये वत्स?”
मुकुन्द इस स्वागत वाणी से प्रसन्न हो उठा। भीतर आकर संन्यासी के चरणों पर मस्तक रखते हुए उसने कहा– “मैं अपने आपको पूर्ण रूप से आपके निकट समर्पित कर रहा हूँ। कृपया मुझे योग्य बनाइये।”
संन्यासी ने कहा–“आओ, तुम्हें अपना आश्रम दिखा दूँ जहाँ तुम्हें रहकर साधना करनी है।”
एक कमरे में योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी का चित्र देखकर मुकुन्द चौंक उठा। कहा– “यह चित्र तो मेरे माता-पिता के गुरुदेव का है।”
संन्यासी ने कहा— “यही मेरे पूज्य गुरुदेव हैं। मुझे तुम्हारी सारी बातें मालूम हैं। अब मेर आदेश है कि क्रियायोग सीखने का चक्कर छोड़कर तुम मन लगाकर अध्ययन करो। आगे चलकर तुम्हें भारतीय योग पद्धति का ज्ञान देने के लिए पश्चिमी देशों में जाना पड़ेगा। केवल यही नहीं, वहाँ आश्रम स्थापित कर लोगों को अध्यात्म का ज्ञान देना पड़ेगा। वस्तुतः वहाँ के लोग भारतीय अध्यात्म से परिचित नहीं हैं। इस सम्पदा को विस्तार से बताने के लिए तुम्हें वहाँ जाना पड़ेगा। लेकिन उसके पहले भारत में आश्रम स्थापित करके योग विद्या की शिक्षा देनी पड़ेगी। इस कार्य के लिए शिक्षा और ज्ञान की आवश्यकता है जिसकी पूर्ति तुम्हें कालेज और विश्वविद्यालय से करनी होगी। मेरी इच्छा है कि तुम कालेज की शिक्षा में ढील मत दो।”
संन्यासी की आज्ञा मानकर मुकुन्द ने कालेज में दाखिला ले लिया। एक दिन संन्यासी ने कहा– “आज तुम्हें क्रियायोग की दीक्षा दूँगा।”
उस दिन के अनुभव के बारे में मुकुन्द ने लिखा है– “उनके स्पर्श मात्र से ही मेरे शरीर में एक प्रचण्ड ज्योति प्रवाहित होती प्रतीत हुई, मानो करोड़ों सूर्य एक साथ जाज्वल्यमान हो उठे हों। मेरे हृदय का अन्तर प्रदेश एक अपूर्व आनन्द की धारा से आप्लावित हो उठा। मैंने गुरुदेव में रूपान्तर करने की एक महाशक्ति का अनुभव किया।”
दरअसल सिद्ध योगी इस क्रिया के द्वारा शिष्य में ऐशी शक्ति का समावेश करते हैं। इसके बाद शिष्य क्रिया के द्वारा उन्नति करता रहता है। ऐशी शक्ति देने के बाद गुरु निरन्तर अपने शिष्य पर नजर रखते हैं ताकि उससे चूक न हो जाय या लापरवाही न करे।
गुरु के आश्रम से लौटने पर सर्वप्रथम पिता ने अपनी शुभकामना देते हुए कहा– “यह बड़े सौभाग्य का विषय है कि जिस आश्चर्यजनक ढंग से मैंने अपने गुरु लाहिड़ी महाशय को पाया था, उसी प्रकार तुमने पाया। जो हिमालय के संत नहीं हैं, बल्कि बिलकुल समीप रहते हैं। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि अब तुम पढ़ने की ओर ध्यान लगा रहे हो।”
गुरु के आदेशानुसार मुकुन्द कालेज में शिक्षा लेने के साथ-साथ नित्य उनके आश्रम में आता रहा। उन दिनों मुकुन्द का परिवार कलकत्ता में रहता था और गुरुजी का आश्रम यहाँ से १२ मील दूर श्रीरामपुर में था। संन्यासी गुरु का नाम युक्तेश्वर गिरि था जो कि योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी के प्रिय शिष्य थे।
बातचीत के सिलसिले में एक दिन गुरुदेव ने कहा– “जगत् में निरन्तर वैद्युतिक और चुम्बकीय शक्तियों का विकिरण होता रहता है। मानव शरीर पर उनका अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता रहता है। युगों पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों ने सूक्ष्म जागतिक शक्ति-किरणों के प्रतिकूल प्रभावों का सामना करने की समस्या पर गहन चिन्तन किया और आविष्कार किया कि शुद्ध धातुओं में से सूक्ष्म प्रकाश किरणें प्रस्फुटित होती रहती हैं जिनमें ग्रहों के प्रतिकूल प्रभावों को निष्फल बना देने की प्रचण्ड प्रतिशक्ति विद्यमान है। कई वृक्ष-लताओं का संयोग भी सहायक सिद्ध हुआ है। इन सब में विशुद्ध और निर्मल रत्न, जिसका वजन दो रत्ती से कम न हो, सबसे अधिक प्रभावकारी है। इस विषय पर भारत के बाहर बहुत कम अध्ययन हुआ है। यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि समुचित रत्नों, धातुओं और औषधि सामग्री से कोई लाभ नहीं होता, यदि वे उचित मात्रा या वजन में उपलब्ध न हों और उन्हें इस तरह न पहना जाय कि उनका स्पर्श त्वचा से होता रहे।”
इन बातों को सुनकर मुकुन्द को ध्यान आया कि गुरुदेव ने इसके पूर्व चाँदी और सीसे का कड़ा पहनने की आज्ञा दी थी। उसने कहा– “गुरुदेव, आपके आदेशानुसार मैं कड़ा जरूर धारण करूँगा।”
गुरुदेव युक्तेश्वर ने कहा– “तुम्हारे ऊपर शीघ्र ही ग्रहों की कुदृष्टि पड़नेवाली है, पर भय की आवश्यकता नहीं है तुम्हारी रक्षा होगी। एक माह के भीतर ही तुम्हारे यकृत में विकार उत्पन्न होनेवाला है जिसकी वजह से बहुत कष्ट भोगना पड़ेगा। ईश्वर की इच्छा से लगभग छः मास तक तुम कष्ट भोगोगे, पर अगर कड़ा धारण करोगे तो यह कष्ट घटकर चौबीस दिन की रह जायगी।”
दूसरे दिन मुकुन्द ने जौहरी की दुकान पर निश्चित मात्रा का कड़ा बनाने का आदेश दिया और कड़ा बनते ही पहन लिया। बाद में वह यह बात भूल गया। इसी बीच गुरुदेव आश्रम से काशी चले गये। इसके बाद मुकुन्द को अपार कष्ट होने लगा। तेईस दिन तक भयंकर कष्ट सहने के बाद साहस करके वह बनारस के लिए रवाना हो गया। वहाँ गुरुदेव अनेक लोगों से घिरे हुए थे। वह अपने कष्ट की बात कह नहीं सका। रात को जब गुरुदेव सभी कार्यों से निवृत्त हुए तब वे मुकुन्द के पास आये और कहा– “तुम अपनी पीड़ा की बात कहने आये हो न? तुम्हें मैंने पेट का व्यायाम करने को कहा था। उसे कर रहे हो या नहीं?”
मुकुन्द ने कहा– “अगर आप मेरे पेट की असह्य पीड़ा को समझ लेते तो ऐसी आज्ञा न देते।”
फिर भी गुरु की आज्ञा मानकर वह व्यायाम करने लगा।
एकाएक कह उठा– “गुरुदेव, अब मुझसे व्यायाम न होगा। बहुत कष्ट हो रहा है।”
गुरुदेव ने कहा– “ऐसा हो नहीं सकता। तुम कह रहे हो कि असह्य पीड़ा हो रही है और मैं देख रहा हूँ कि पीड़ा नहीं है।”
इतना कहने के बाद गुरुदेव ने प्रश्न सूचक दृष्टि से मुकुन्द की ओर देखा। तभी मुकुन्द ने अनुभव किया कि जादू की तरह उसका सारा कष्ट दूर हो गया है। इस पीड़ा के कारण वह लगातार कई सप्ताह तक सो नहीं सका था। इस वक्त वह पीड़ा बिलकुल गायब हो गयी है। उसे अपने कष्ट से मुक्ति पाने की बेहद प्रसन्नता हुई।
युक्तेश्वर गिरि के श्रीरामपुर स्थित आश्रम में मुकुन्द के अलावा अन्य कई शिष्य गुरुदेव की सेवा में लगे रहते थे। इनमें अधिकांश क्रियायोग की शिक्षा लेने के लिए आश्रम में आते-जाते थे। मुकुन्द ने अपने सहपाठी दिजेन से कहा कि तुम मेरे गुरुदेव के पास चलो। वे तुम्हें क्रियायोग की शिक्षा देंगे। इससे ईश्वरीय आन्तरिक विश्वास द्वारा द्वैतवादी खलबली को शान्ति प्राप्त होगी।
मुकुन्द के आह्वान पर दिजेन भी आश्रम में आया। युक्तेश्वरजी की कृपा हुई । मुकुन्द क्रियायोग में साधना करते-करते उन्नत अवस्था प्राप्त कर चुका था। अक्सर उसे गुरुजी का संदेश अथवा किसी घटना की सूचना अन्तर्देश से प्राप्त हो जाती थी।
एक दिन मुकुन्द और दिजेन शाम के समय जब आश्रम में आये तब उन्हें कन्हाई नामक एक बालक ने सूचना दी गुरुदेव यहाँ नहीं हैं। किसी आवश्यक कार्य से कलकत्ता चले गये हैं।
दूसरे दिन मुकुन्द को एक पोस्टकार्ड मिला। गुरुदेव ने लिखा था– “ मैं बुधवार को प्रातःकाल कलकत्ता से प्रस्थान करूँगा। तुम और दिजेन प्रातः काल 9 बजे श्रीरामपुर स्टेशन पर मिलो।”
बुधवार को 8.30 बजे मुकुन्द के मन में गुरुदेव द्वारा संचालित टेलीपैथी द्वारा समाचार मिला– “मैं रुक गया हूँ। 9 बजे की गाड़ी पर मत पहुँचो।”
यह समाचार जब मुकुन्द ने दिजेन को सुनाया तब उसने कहा– “अपनी अन्तर्ध्वनि को रखे रहो। मैं लिखित बातों पर अधिक विश्वास करता हूँ।” इतना कहकर दिजेन स्टेशन की ओर रवाना हो गया।
कमरा जरा अंधकार पूर्ण था। खिड़की से बाहर की ओर देखते समय मुकुन्द को सूर्य के प्रकाश में सहसा गुरुदेव की मूर्ति दिखाई दी। तुरंत श्रद्धा के साथ वह घुटनों के बल बैठ गया। उनका वस्त्र हवा में लहराता हुआ मुकुन्द के शरीर को स्पर्श करने लगा। गुरुदेव ने कहा– “तुमने मेरा मनः संदेश पढ़ लिया। कलकत्ते का काम पूरा हो गया। अब मैं १० बजे वाली गाड़ी से आ रहा हूँ।”
मुकुन्द अवाक् होकर गुरुदेव को एकटक देखने लगा। उसके लिए यह अद्भुत दृश्य था। उसे इस तरह देखते देख युक्तेश्वर ने कहा– “यह मेरा भूत नहीं, हाड़-माँस वाला शरीर है। ईशाज्ञा से मैं तुमको यह अनुभव प्रदान कर रहा हूँ जो पृथ्वी पर दुर्लभ है। स्टेशन पर मिलो। तुम और दिजेन मुझे इसी पोशाक में देखोगे।”
स्टेशन आने पर दिजेन ने कहा– “गुरुदेव न तो 9 बजे वाली गाड़ी से आये और न 9.30 बजे वाली से।
मुकुन्द ने कहा– “गुरुदेव 10 बजे वाली गाड़ी से आ रहे हैं।”
दिजेन को विश्वास नहीं। मुकुन्द ने कहा– “वह देखो गाड़ी आ रही है। उनके प्रकाश से सम्पूर्ण गाड़ी आलोकित है।”
इसके बाद उसने गुरुदेव किस पोशाक में रहेंगे, इस बात का उल्लेख किया।
दिजेन ने कहा– “तुम दिन-रात इसी तरह का सपना देखते रहो। मैं चला।”
मुकुन्द ने कहा– “केवल इस गाड़ी को देख लो। वह देखो, गुरुदेव गाड़ी से उतर रहे हैं।”
थोड़ी देर में चलकर गुरुदेव दोनों के पास आकर खड़े हो गये। दिजेन का आनन लज्जा से झुक गया।
क्रियायोग की चर्चा करते हुए युक्तेश्वर गिरि ने एक दिन मुकुन्द से कहा– “मेरे परमगुरु (गुरु के गुरु यानी योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी के गुरु महावतार बाबाजी) ने गुरुदेव को बताया था—इस 19 वीं शताब्दी जो क्रियायोग तुम्हें दे रहा हूँ, वह उसी विज्ञान का पुनरुज्जीवन है जिसे भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था। बाद में जिसे पातंजलि, ईसामसीह, सेण्ट जान तथा कबीर ने प्राप्त किया था। गीता में इसका उल्लेख है।
अपान वायु में प्राणवायु के हवन के द्वारा और प्राणवायु में अपान वायु के हवन के द्वारा योगी प्राण और अपान, दोनों की गति को निरुद्ध कर देता है। इस प्रकार वह प्राण को हृदय से मुक्त कर लेता है और प्राणशक्ति पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है यानी योगी फेफड़ों और हृदय की क्रिया को शान्त कर प्राण की अतिरिक्त पूर्ति के द्वारा शरीर के अपक्षय को रोक देता है। इस प्रकार वह अपक्षय और प्रवृद्धि को प्रभावहीन बनाते हुए प्राणशक्ति पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है।”
आगे आपने कहा– “क्रियायोगी अपनी प्राणशक्ति को मेरुदण्ड के छः चक्रों (आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधार) जो विश्व पुरुष के प्रतीक राशिचक्र की बारह राशियों के समान है, में मानसिक शक्ति के द्वारा ऊपर या नीचे की ओर प्रवाहित करता है। मनुष्य के संवेदनशील मेरुदण्ड के चारों ओर प्राणशक्ति की आधा मिनट की परिक्रमा से मनुष्य के विकास में सूक्ष्म प्रगति होती है। साधारण गति से जो आध्यात्मिकता एक वर्ष में प्रकट होती है, वह आधे मिनट के क्रिया-अभ्यास के समान होती है। यह याद रखना चाहिए कि अनेक मार्गभ्रष्ट उत्साहोन्मत्त व्यक्तियों द्वारा सिखाये जानेवाले अवैज्ञानिक श्वास व्यायामों से क्रियायोग का कोई सम्बन्ध नहीं है। फेफड़ों में बलपूर्वक श्वास को रोक रखने की चेष्टा अप्राकृतिक तथा निस्सन्दिग्ध रूप से कष्टकर भी है। इसके विपरीत आरंभ से ही क्रियायोग के अभ्यास के बाद शान्ति की भावना की और मेरुदण्ड में पुनरुज्जीवनी शक्ति के प्रभाव की सुखद अनुभूति होती है।”
योगसूत्र के रचनाकार महर्षि पातंजलि ने योग को दो श्रेणियों में विभक्त किया है— प्रथम समाधियोग और दूसरा क्रियायोग। जिस साधक का चित्त बहिर्मुख हो, उसे क्रियायोग करना चाहिए और जिसका चित्त अन्तर्मुख हो, वह समाधि-योग कर सकता है। क्रियायोग के रूप में तपस्या, स्वाध्याय यानी जप, सद्ग्रंथ पाठ तथा भजन करना चाहिए। इन तीनों साधनों का समान रूप से या मुख्य रूप से अनुष्ठान होने पर क्रियायोग सिद्ध होता है। चित्त की प्रकृति के अनुसार किसी की साधना तपस्या मुख्य रहती है। अन्य दोनों साधनों के अंग भी गौण रूप में उसमें रहते हैं। किसी की साधना में स्वाध्याय की प्रधानता रहती है अथवा भजन की, परन्तु गौण रूप में अन्य दो अंगों का सन्निवेश रहता है। दीर्घकाल तक यथाविधि अपने-अपने गुरु द्वारा निर्दिष्ट प्रक्रिया से क्रियायोग के मार्ग में अग्रसर हो सकने पर उसके प्रभाव से चित्त क्रमश: बहिर्मुखता त्यागकर शान्त भाव धारण करता है और अन्तर्मुख हो जाता है। इस समय साधक समाधि-योग का अभ्यास कर सकता है।
क्रियायोग का मुख्य फल है चित्त में स्थित अज्ञानादि सभी क्लेशों को सूक्ष्म करना। साधक के हृदय में अनन्त क्लेश संस्कार के रूप में संचित रहते हैं। क्रियायोग का समुचित ढंग से अनुष्ठान करने पर सभी क्लेश सूक्ष्म होकर निर्बल हो जाते हैं। क्रियायोग के अलावा अन्य किसी उपाय से उसे दबाया नहीं जा सकता।
क्रियायोग से कितना लाभ होता है, इसका उल्लेख करते हुए योगानन्दजी कहते हैं– “साढ़े आठ घंटे में एक हजार बार क्रिया का अभ्यास एक दिन में एक हजार वर्ष के स्वाभाविक विकास तुल्य है यानी ३ लाख ६५ हजार वर्षों का विकास एक वर्ष में क्रियायोगी अपनी आत्मप्रचेष्टा के द्वारा तीन वर्ष में वही परिणाम प्राप्त कर लेता है जिसे प्राकृतिक रूप से प्राप्त करने में १० लाख वर्ष लगते हैं। गुरु के मार्ग-दर्शन से ऐसे योगियों ने सावधानी पूर्वक अपने शरीर और मस्तिष्क को इस प्रकार तैयार किया है कि वे उग्र अभ्यास से उत्पन्न शक्ति सहन कर सकें।”
मुकुन्द के पिता इधर उस पर दबाव डालने लगे कि वह रेलवे की नौकरी में लग जाय। लेकिन इस दिशा में रुचि न रहने के कारण वह टोल-मटोल करता रहता। आखिर एक दिन अपनी समस्या युक्तेश्वरजी के सामने प्रकट करते हुए उनसे आग्रह किया कि वे उसे संन्यास दें। जोकि इसके पूर्व वह अपने मन की इच्छा को निरन्तर उनके सामने प्रकट करता रहा।
उस दिन गुरुजी ने न जाने क्या सोचा और कुछ देर चुप रहने के बाद कहा– “ठीक है। कल तुम्हें संन्यास दूँगा।”
वृहस्पतिवार, जुलाई, सन् 1914 के दिन युक्तेश्वर जी ने सिल्क के एक टुकड़े को गेरुआ रंग में रंगकर मुकुन्द को ओढ़ा दिया। फिर उन्होंने कहा– “एक दिन तुम्हें पश्चिम जाना है। वहाँ के लोगों को रेशमी वस्त्र बहुत पसन्द है। यही वजह है कि तुम्हें रेशमी वस्त्र से सजा रहा हूँ। अब तुम्हें अपनी रुचि के अनुसार नाम चुन लेने का अधिकार देता हूँ।”
मुकुन्द ने कहा– “योगानन्द।”
गुरुदेव ने कहा– “तथास्तु, अब से तुम्हारे पारिवारिक नाम मुकुन्दलाल घोष के स्थान पर तुम ‘स्वामी सम्प्रदाय’ की ‘गिरि’ शाखा के ‘योगानन्द गिरि’ के नाम से जाने जाओगे।”
युक्तेश्वरजी के चरणों के निकट साष्टांग प्रणाम करते हुए योगानन्द ने कहा– “आज का दिन गुरु कृपा से मेरे जीवन का महत्त्वपूर्ण दिन है।”
युक्तेश्वर ने कहा– “अब तुम्हें कार्य क्षेत्र में उतरना है। सबसे पहले यहाँ के बालकों को योग शिक्षा देनी है ताकि इसके माध्यम से उनमें मानवता का विकास हो। प्रचलित विषयों के अलावा योग-ध्यान पर भी नजर रखनी होगी ताकि बालकों में आध्यात्मिक विकास हो सके।”
योगानन्द ने कहा– “गुरुदेव, यह कार्य मेरी रुचि के अनुकूल है। आपका आशीर्वाद मिलता रहा तो मैं सहर्ष इस कार्य को करने का प्रयत्न करूँगा।”
योगानन्द ने बंगाल के एक नगण्य गाँव में केवल सात बालकों को लेकर कार्य प्रारंभ किया। यह सन् 1917 ई० की बात है। इसके बाद कासिम बाजार के महाराज सर मणीन्द्रचन्द्र चौधरी के दान से रांची में 'योगदा सत्संग ब्रह्मचर्य विद्यालय' की स्थापना हुई। यहाँ सामान्य शिक्षा के अलावा योग पर अधिक ध्यान दिया जाता था। आश्चर्य की बात है कि प्रथम वर्ष में इस विद्यालय में भर्ती होने के लिए दो हजार आवेदन-पत्र प्राप्त हुए। लेकिन वहाँ केवल १०० विद्यार्थियों के लिए व्यवस्था थी। शेष बच्चों के लिए केवल दिन की शिक्षा व्यवस्था की गयी। इस प्रकार विद्यालय क्रमशः उन्नति करता रहा।
एक दिन बाल मण्डली को लेकर योगानन्द विद्यालय से दूर एक पहाड़ी पर सैर कराने के लिए ले गये थे। वहीं एक बालक ने सहसा प्रश्न किया– “स्वामीजी, कृपया यह बताइये कि क्या में वैराग्य पथ पर सदा आपके साथ बना रहूँगा?”
योगानन्द की अतीन्द्रिय शक्ति ने जवाब दिया– “नहीं बच्चे, तुम बलपूर्वक ले जाये जाओगे और बाद में तुम्हारी शादी हो जायगी।”
बालक ने तेवर बदलकर कहा– “ऐसा नहीं हो सकता। मेरे मरने पर ही लोग मुझे यहाँ से ले जा सकते हैं।”
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसके अभिभावक आये और उसे जबरन अपने साथ ले गये। बाद में उसका विवाह हो गया।
इस बालक के प्रश्न को सुनकर काशी नामक बालक को अपने भविष्य के बारे में उत्सुकता हुई। उसने योगानन्द से प्रश्न किया– “मेरे भाग्य में क्या है?”
योगानन्द ने कहा– “शीघ्र ही तुम्हारी मृत्यु हो जायगी।” इतना कहने के बाद योगानन्द चौंक उठे। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था। इसके पहले अन्य लड़के अपने बारे में सवाल करें, वे तुरंत अपने कमरे में चले गये। अन्य लड़के प्रश्न करते रह गये, पर उन्होंने किसी को कोई जवाब नहीं दिया।
विद्यालय से लौटने के बाद काशीराम पुनः योगानन्द के कमरे में आया और प्रश्न किया– “अगर मैं मर जाऊँ और पुनर्जन्म लूँ तो क्या आप मुझे खोज निकालेंगे और पुनः आध्यात्मिक मार्ग पर ले आयेंगे?”
इस प्रश्न का उत्तर सहसा योगानन्द नहीं दे सके। कुछ देर बाद उन्होंने कहा– “अगर परमपिता मेरी सहायता करेंगे तो तुम्हें खोजने का प्रयत्न करूँगा।”
योगानन्द को कुछ दिनों के लिए बाहर जाना था। सहसा उन्हें बोध हुआ कि अगर काशी विद्यालय से बाहर न जाय तो उसका संकट टल सकता है। उसे बुलाकर योगानन्द ने कहा– “मैं कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा हूँ। मेरी अनुपस्थिति में तुम बाहर कहीं मत जाना।”
योगानन्द के जाने के चार दिन बाद काशी के पिता उसे घर ले जाने के लिए आये, पर वह जाने को राजी नहीं हुआ। पिता ने कहा– “तेरी माँ की तबीयत ठीक नहीं है। वह एक बार तुझे देखना चाहती है।”
इस बात पर भी जब काशी जाने को राजी नहीं हुआ तब पिता ने कहा कि मैं तुझे पुलिस की सहायता से ले जाऊँगा तब देखूंगा कि तू कैसे नहीं चलता। पुलिस के विद्यालय में आने से यहाँ की अप्रतिष्ठा होगी। यह सोचकर वह पिता के साथ चला गया। कलकत्ता जाकर बाजार का चाट खाने पर उसे हैजा हुआ और मर गया।
इधर जब योगानन्द विद्यालय आये तब सारा समाचार उन्हें ज्ञात हुआ। वे तुरंत काशी को ले आने के लिए कलकत्ता रवाना हो गये। जब हाबड़ा पुल पर से रवाना हो रहे थे तब उन्होंने काशी के पिता को अशौच अवस्था में देखा। तुरंत गाड़ी पर से कूदकर बोले– “तुम हत्यारे हो। तुमने मेरे काशी के प्राण जिद्दवश ले लिया।”
काशी के निधन के छः मास तक योगानन्द योगक्रिया का प्रयोग करते रहे। एक दिन सबेरे कलकत्ता में टहलते हुए अपनी आदत के अनुसार इन्होंने हाथ को ऊपर उठाया। तुरंत रेडियो की तरह उँगलियों में तरंगें महसूस हुई। योगानन्द वहीं गोल चक्कर काटते हुए यह महसूस करने लगे कि तरंगें किसी दिशा से आ रही हैं। दिशा का ज्ञान होते ही उस ओर बढ़ गये तो तरंगों का विकिरण तेजी से होने लगा। इसके बाद उस गली में तेजी से बढ़ते गये। सहसा एक मकान के पास आते ही उनके पैर अटक गये। योगानन्द को समझते देर नहीं लगी कि इसी मकान में किसी माता के गर्भ में काशी है।
दरवाजा खटखटाने पर गृहस्वामी बाहर निकल कर सवालिया सूरत में इन्हें देखने
लगे। योगानन्द ने पूछा– “कृपया मुझे यह बतायें कि क्या आपकी पत्नी छः माह से गर्भवती है?”
उन्होंने इस बात को स्वीकार किया तब योगानन्द ने काशी के बारे में सारी बातें कहने के बाद कहा– “आपको एक गौर वर्ण का पुत्र प्राप्त होगा जिसका मुँह चौड़ा होगा। ललाट पर भ्रमरी रहेगी। बड़ा होने पर उसकी अध्यात्म के प्रति बेहद रुचि होगी।”
बाद में पता चला कि गृहस्वामी ने योगानन्द के इस बात पर विश्वास करके लड़के का नाम काशी रखा था।
एक दिन गुरुदेव युक्तेश्वर ने कहा– “योगानन्द, अब समय आ गया है। तुम्हें अमेरिका जाना है जहाँ क्रियायोग का ज्ञान उचित व्यक्तियों को देना है।”
योगानन्द को इस बात की जानकारी थी कि दीक्षा लेने के पूर्व से ही गुरुदेव उन्हें पश्चिम जाने की प्रेरणा देते रहे। अतएव इस समय दिया गया यह आदेश समयानुकूल है। निश्चित रूप से यात्रा की सारी व्यवस्था गुरुदेव की ओर से होगी। योगानन्द ने कहा– “आपका आदेश शिरोधार्य है। मैं पिताजी से भी आज्ञा ले लूँ।”
युक्तेश्वर मुस्कराये। बोले– “अगर वे विरोध करेंगे तो क्या यात्रा स्थगित कर दोगे?”
योगानन्द ने कहा– “संभवतः वे ऐसे महान् कार्य के लिए विरोध नहीं करेंगे। अगर ऐसा संभव हुआ तो मैं गुरु के आदेश को महत्त्व दूंगा, क्योंकि अब मैं संन्यासी हूँ।”
दूसरे दिन जब यह समाचार पिताजी को सुनाया गया तो वे नाराज होकर बोले– “तुम अमेरिका नहीं जा सकते। यह मत समझना कि मैं तुम्हें यात्रा-व्यय दूँगा।”
योगानन्द ने कहा– “मैं आपसे यात्रा व्यय माँग कहाँ रहा हूँ? केवल अनुमति के लिए निवेदन किया है। गुरुदेव की इच्छा जब वहाँ भेजने के लिए है तब सारी व्यवस्था भगवद्कृपा से वे ही करेंगे।”
ठीक उन्हीं दिनों योगानन्द के नाम अमेरिका में आयोजित एक धार्मिक सम्मेलन में भाग लेने का निमंत्रण पत्र मिला। यह आयोजन बोस्टन में होनेवाला था। इस पत्र को पाकर योगानन्द विस्मय से अवाक् रह गये। उसी दिन गुरुदेव के पास आये।
सारी बातें सुनने के बाद युक्तेश्वर ने कहा– “तुम्हारे लिए यह सुनहला अवसर है। अगर चूक गये तो फिर कभी नहीं जा सकोगे।”
योगानन्द ने अपनी मजबूरी प्रकट करते हुए कहा– “मुझे सार्वजनिक रूप में व्याख्यान देने का अभ्यास नहीं है। अंग्रेजी में तो बोल ही नहीं सकता।”
“अंग्रेजी हो या न हो, पर योगक्रिया पर तुम्हारा भाषण लोग बड़े मनोयोग से सुनेंगे।”
घर वापस आने पर योगानन्द ने देखा कि पिताजी का क्रोध ठंडा हो गया है। उन्होंने एक बड़ी रकम का चेक उसे देते हुए कहा– “मैं तुम्हें यह रकम पिता होने के नाते नहीं, बल्कि लाहिड़ी महाशय का शिष्य होने के नाते दे रहा हूँ। तुम अमेरिका जाओ और वहाँ क्रियायोग का प्रचार करो।”
पिताजी से यात्रा व्यय मिल जाने के बाद योगानन्द यात्रा की तैयारी करने लगे। इसी बीच एक दिन सदर दरवाजे पर खड़खड़ आवाज सुनकर उन्होंने दरवाजा खोला तो सामने एक कौपीनधारी युवक को देखा। कौपीनधारी बाबा कमरे के भीतर आये। पल भर में योगानन्द ने आगन्तुक को पहचान लिया। आप परमगुरु के गुरु यानी बाबाजी थे। योगानन्द के मन की भावना को भाँपकर उन्होंने कहा– “हाँ, मैं बाबाजी हूँ। तुम्हें यह आदेश देने आया हूँ कि अपने गुरु की आज्ञा मानकर तुम शीघ्र अमेरिका चले जाओ। तुम्हें कभी कोई परेशानी नहीं होगी।”
इतना कहने के बाद वे अन्तर्धान हो गये। बाबाजी का आदेश पाने के बाद योगानन्द बिलकुल निर्भय हो गये। पासपोर्ट, वीजा आदि की व्यवस्था कर निश्चित दिन अमेरिका के लिए रवाना हो गये। उन्हें विश्वास था कि मार्ग में किसी प्रकार का संकट आने पर गुरु और बाबाजी सहायता करेंगे योगानन्द को इस विश्वास का फल जहाज में मिला।
बातचीत के सिलसिले में योगानन्द ने जब जहाज के सहयात्रियों को बताया कि वे अमेरिका में आयोजित धर्म-सम्मेलन में भाग लेने जा रहे हैं तब सभी को उत्सुकता हुई। सहयात्रियों में एक ने अनुरोध किया– “स्वामीजी, गुरुवार की रात्रि को आप अपने प्रवचनों से उपकृत करें। विषय मेरी समझ से “जीवन युद्ध और उस पर विजय पाने के उपाय” रखें तो हमें लाभ होगा।”
योगानन्द की हालत खराब हो गयी। ऐसे कठिन विषय पर अंग्रेजी में धारा प्रवाह कैसे बोल सकेंगे? बुधवार को अपने केबिन में बोलने का अभ्यास करने लगे। रह रहकर उलझ जाते। धाराप्रवाह बोलते समय अपने मन की बात स्पष्ट नहीं कर पा रहे थे। आखिर गुरुवार की रात्रि आ गयी। जहाज के हाल में लोग बैठ गये। योगानन्द भाषण देने के लिए खड़े हुए, पर उनके मुँह से एक शब्द नहीं निकला। लगा जैसे होंठ आपस में चिपक गये हैं। सामने बैठे कई दर्जन श्रोता योगानन्द की परेशानी गौर से देख रहे थे। दस मिनट तक योगानन्द को चुप रहते देख सभी श्रोता हँस पड़े।
शर्म से क्षुब्ध होकर योगानन्द अपने गुरु को स्मरण करते हुए प्रार्थना करने लगे। तभी उनकी अन्तरात्मा से आवाज आयी– “तुम बोल सकते हो। बोलना शुरू करो।”
इस प्रेरणास्पद संदेश को पाते ही योगानन्द की जड़ता क्षण मात्र में दूर हो गयी। गुरु-शक्ति ने उन्हें धारा प्रवाह भाषण देने के लिए प्रेरित किया। उन्हें अपने ऊपर आश्चर्य हो रहा था कि वे कैसे बोलते चले जा रहे हैं। भाषण समाप्ति के बाद उन्होंने श्रोताओं से अपने भाषण के बारे में पूछा। लोगों ने कहा कि शुद्ध अंग्रेजी में दिया गया उनका भाषण अपूर्व और अविस्मरणीय रहा। मन ही मन गुरुचरणों में प्रणाम करते हुए योगानन्द ने कहा कि इसी प्रकार सहायता करते रहें।
बोस्टन की धर्म-सभा में भी अपने भाषण के माध्यम से योगानन्द ने श्रोताओं को प्रभावित किया। उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि यह सब गुरुकृपा से हो रहा है। मैं तो अंग्रेजी में ठीक से बोलने में हिचकता रहा। गुरु का आशीर्वाद निरन्तर साथ दे रहा है। गुरु ने जिस महान् कार्य के लिए उन्हें अमेरिका भेजा है, अब उस दिशा में कार्य करने लगे। सन् 1920 से 1930 तक हजारों अमेरिकी जनता ने आपकी क्रियायोग पद्धति से आकृष्ट होकर शिष्यत्व ग्रहण किया। आपने स्थानीय साधकों को संस्था का अध्यक्ष बनाया और स्वयं अमेरिका के विभिन्न शहरों में भाषण देते रहे। इसी बीच कैलिफोर्निया में ‘सेल्फ रियलाइजेशन—फेलोशिप योगदा सत्संग सोसायटी ऑफ इण्डिया’ का अन्तर्राष्ट्रीय कार्यालय की स्थापना उन्होंने की। इस संस्था के माध्यम से अध्यात्म तथा क्रियायोग का प्रचार होने लगा।
इन सब कार्यों में वे इस तरह लगे रहे कि कब पन्द्रह वर्ष गुजर गये, इसका पता नहीं चला। ठीक इन्हीं दिनों अन्तरात्मा से गुरुदेव की वाणी सुनाई दी– “भारत लौट आओ। पिछले पन्द्रह वर्ष तक मैंने इन्तजार किया। मैं शीघ्र शरीर त्याग कर प्रस्थान करने वाला हूँ। योगानन्द, अब देर मत करो शीघ्र चले आओ।”
गुरुदेव के इस आदेश को उन्होंने अपने एक मित्र को सुनाया। उसने योगानन्द की यात्रा की सारी व्यवस्था कर दी। योगानन्द वापस जा रहे हैं जानकर अनेक छात्रों ने मिलकर विदाई समारोह का आयोजन किया। वे अमेरिका से 9 जून, सन् 1935 के दिन रवाना होकर भारत आ गये। बम्बई से कलकत्ता आने पर योगानन्द का अभूतपूर्व स्वागत हुआ। यहाँ से वे अपने अमेरिकी शिष्यों के साथ श्रीरामपुर स्थित गुरुदेव के आश्रम में आये। अमेरिका से गुरुदेव के लिए अनेक उपहार ले आये थे जिसे योगानन्द ने उन्हें समर्पित कर दिया।
इसके बाद गुरुदेव से अनुमति लेकर अपने शिष्यों के साथ वे भारत के विभिन्न स्थानों में भ्रमण करने लगे। कुछ दिनों बाद योगानन्द के गुरुभाई श्री अतुलचन्द्र राय के पास एक तार पहुँचा– “जल्द पुरी आश्रम आ जाइए।”
उन दिनों युक्तेश्वरजी अपने पुरी आश्रम में थे। इस तार की सूचना योगानन्द को अतीन्द्रिय-शक्ति ने दी। इस तार का क्या अर्थ है, समझते ही वे धम्म से जमीन पर बैठ गये । भगवान् से गुरुदेव के जीवन-दान के लिए प्रार्थना करने लगे। थोड़ी देर बाद वे कलकत्ता स्थित घर से स्टेशन की ओर रवाना हुए तो उनके अन्तर्मन से आवाज आयी– “आज रात पुरी मत जाओ। तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार्य नहीं है।”
“हाय भगवान्” कहते हुए योगानन्द बेचैन हो उठे। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि अंतिम समय में मेरा उपस्थित रहना भगवान् को मंजूर नहीं है। दूसरे दिन जब वे पुरी के लिए रवाना हुए तब मार्ग में श्री युक्तेश्वर प्रकट हो गये। उनकी मुद्रा गंभीर थी।
“क्या सब कुछ समाप्त हो गया?” विनयपूर्वक शून्य में प्रणाम करते हुए योगानन्द ने पूछा।
उन्होंने सिर हिलाया और फिर शून्य में वे धीरे-धीरे अन्तर्धान हो गये। पुरी स्टेशन पर उतरकर योगानन्द चारों ओर देख रहे थे, तभी एक व्यक्ति पास आकर बोला क्या आपने गुरुदेव के देहत्याग का समाचार सुन लिया है?
इतना कहकर वह व्यक्ति भीड़ में गायब हो गया। बोझिल मन से योगानन्द पुरी आश्रम में आये सामने गुरुदेव का निष्प्राण शरीर जीवन्त लग रहा था। योगानन्द चीख उठे– “बंगाल का शेर चला गया।”
9 मार्च को उनका निधन हो गया था। 10 मार्च के दिन संन्यासियों की परम्परा के अनुसार श्री युक्तेश्वर को समाधि दे दी गयी।
गुरुदेव के निधन के पश्चात् योगानन्दजी भारत के विभिन्न संतों से मिलते रहे। श्री आनन्दमयी माँ, निराहार योगिनी, महात्मा गाँधी आदि इनमें प्रमुख रहे। सन् 1938 में दक्षिणेश्वर में उन्होंने योगदा आश्रम स्थापित किया। इसके बाद वे पुनः पश्चिम चले गये और कई देशों में भाषण देने के बाद अमेरिका चले आये। यहाँ आकर 1940 से 1951 तक वे अनेक लोगों को योगक्रिया के बारे में प्रशिक्षण देते रहे।
7 मार्च, सन् 1952 के दिन भारतीय राजदूत श्री विनय रंजन सेन के सम्मान में आयोजित समारोह में भाषण देने के बाद योगानन्द ने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया। 7 मार्च से 27 मार्च तक उनका पार्थिव शरीर जनता के दर्शन के लिए रखा गया था। इसके बाद 27 मार्च को उन्हें समाधि दे दी गयी। स्वामी विवेकानन्द के पश्चात् योगानन्दजी ने भारतीय अध्यात्म का प्रचार पश्चिमी देशों में करके यह प्रमाणित कर दिया कि इस क्षेत्र में भारत अन्य देशों से आगे है।
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