नीलम कुलश्रेष्ठ
माँडू या माँडवगढ़ में रानी रूपमती के मंडप की आसमान को छूती इमारत की खुली लंबी छत के दोनों किनारे दो मंडप । कहते हैं रानी रूपमती नर्मदा नदी के तट पर बसे गाँव धर्मपुर की बेटी थी। वह सुबह उठकर नर्मदा के दर्शन करती थीं। फिर अन्न-जल ग्रहण करती थीं। रूपमती को संगीत बहुत प्रिय था। उनके मधुर कंठ का जादू मांडू के पठान वंश के आखिरी शासक बादशाह बाजबहादुर के सिर चढ़कर कुछ इस तरह बोला कि वह उनके प्रेमपाश में जकड़कर उन्हें ससम्मान मांडू ले आये थे। रूपमती के पति उनके संगीतप्रेम के कारण ही उनकी अवज्ञा करते थे।
रानी रूपमती की मांडू में एक समस्या थी, उन्हें नर्मदा नदी के दर्शन नहीं हो पाते थे और वह अन्न-जल नहीं ग्रहण करती थीं, इस लिये बाज बहादुर ने ये ऊँचा मंडप बनवाया था जिससे वे इस पर खड़े होकर नर्मदा के दर्शन कर सकें।
सुबह अपने महल से निकलकर डोली में बैठकर रानी इस मंडप में आती होंगी । डोली से उतरकर छोटी-सी पहाड़ी पर बने मंडप में जाने के लिये घुमावदार सड़क पर चलती होंगी तो कभी बीच में बनी सीढ़ियों से या हो सकता है डोली में बैठे ही बैठे मंडप तक आती हो ।
किंवदंती के अनुसार रानी का महल किले के दूसरे हिस्से में था तो क्या उस आतुर प्रेमी ने अपने संगीत कक्ष के पास ही जान-बूझकर ये मंडप बनवाया होगा ? जब भोर के उजाले में सुकुमार रानी रूपमती पायल छनकाती घुमावदार रास्ते पर चलती होंगी, तब बाज बहादुर की उंगलियाँ किसी वाद्य पर मचलती होंगी । संगीत की स्वर लहरियाँ उस महल से छनक-छनक चल रूपमती के शरीर को हौले से स्पर्श कर उनके मन को सुकोमल तरंगति भावनाओं से आप्लावित करती होंगी। उनकी चाल में कमनीय लचक आ जाती होंगी जो कि किसी आश्वस्त प्रेम को पाकर एक स्त्री की देह में संपूर्णत्व का बोध जगाते स्वतः ही आ जाती है।
बाज बहादुर आलाप लेते होंगे, ‘आऽऽऽ.... आऽऽऽ....।’ वे किसी गीत के माध्यम से अपने दिल की बात स्वर लहरियों में पिरो रानी रूपमती को प्रतिदिन भोर की प्रथम किरणों के साथ भेंट करते होंगे। उन संगीतमय शब्दों की धुन पर पग-पग चलती पत्थर की उन संकरी सीढ़ियों से चढ़ती होंगी जिन पर एक ही व्यक्ति अकेले चढ़ सकता है। उनके रक्षक नीचे तक आते होंगे। हो सकता है सिर्फ रानी को ही सर्वोच्च छत पर जाने की अनुमति हो।
रानी भी जान-बूझकर दाँयी तरफ वाले छोटे मंडप के नीचे न जाकर बाँई तरफ वाले मंडप की तरफ घूम जाती होंगी। बस यहीं...... बस यही होता होगा बाज बहादुर के दिल का सूर्योदय। वह अपने संगीत कक्ष के झरोखे से रानी का चेहरा दूर से ही देखते होंगे। उसकी किरणों के उजास से उनका दिल व दिमाग उद्भासित हो जाता होगा। स्फूर्तिमय, ऊर्जामय हो जाता होगा, मन एक पवित्र आभामंडल से सराबोर हो जाता होगा।
इसी प्रेममय ऊर्जा से वह सारे दिन राजकाज संभालते होंगे। और उधर रानी रूपमती सुबह में सुने बाज बहादुर के प्रणय गीत का उत्तर देने के लिये किसी गीत का अपने महल में रियाज़ करती होंगी। जिससे रात्रि के द्वितीय प्रहर में इस भावनामय प्रेम के स्वरों का अपने कंठ से, अपने संगीत से, अपने आतुर अधरों से उत्तर दे सकें। इस उद्दाम प्रेम की धड़कनें आज भी मांडू के किले में लगे बोर्ड पर धड़कती है, भारत जैसे दकियानूसी देश में ‘रानी रूपमती की प्रणयनगरी’ ।
ये थीं सुकोमल, रोमांटिक व हृदयस्पर्शी अनुभूतियाँ जो मांडू के किले में घूमते हुए मन में स्वयं प्रस्फुटित होने लगतीं हैं लेकिन क्या रूपमती का जीवन सच में प्रणय की रुन-झुन था ? या उनका सौंदर्य व उनके संगीत की कला ही उनकी दुश्मन बन गयी थी।
स्थानीय किवदंती के अनुसार उनकी शादी हुई तो पति मानसिंह ही उनके पहले दुश्मन बन बैठे थे। जब भी पारिवारिक समारोहों में रूपमती गातीं, वाह वाही लूटती, उनसे ये सब न देखा जाता। ये जलन इतनी बढ़ी कि बात-बात पर वे उनका अपमान करते, नज़र उठाकर भी उन्हें नहीं देखते थे, वह अपने दुःख से निजात पाने के लिये संगीत साधना में और लिप्त रहने लगीं थीं।
रूपमती के बारे में प्रसिद्ध साहित्यकारों की मान्यतायें पृथक हैं, जिनमें अहमद उलश्मारी उर्फमान जो रूपमती को यदुराय ब्राह्मण की बेटी मानते, जिसका निवास सारंगपुर बताया गया है। रूपमती राग सारंग गाया करती थीं। ध्रुपद की विख्यात गायिका के रूप में रूपमती का नाम अग्रणी रहा है।
वहीं राग बसंत रूपमती की पहचान मानी जाती थी। इनका जन्म मांडू से 28 कि.मी. दूर स्थल धर्मपुरी में हुआ था, जो नर्मदा तट पर बसा था। रूपमती राजपूत ज़मींदार थानसिंह की बेटी थीं। रूपमती का लालन-पालन उच्चस्तर का था, उनमें संगीत प्रतिभा के बीज देखकर उनके पिता ने उन्हें श्रेष्ठ गायकों व वादकों से शिक्षा दिलवाई थी। नर्मदा पवित्र नदियों का संगम है, रूपमती का भी प्रेम नर्मदा के प्रति असीम रहा था। वह प्रतिदिन नर्मदा के दर्शन करतीं थीं। उनके पिता ने उनकी सगाई चंदेरी नरेश से कर दी थी किन्तु वहाँ नर्मदा के दर्शन दुर्लभ थे, अतः शादी की तारीख निश्चित नहीं की थी।
इस बीच बसंत उत्सव के दिन रूपमती अपनी चुनिन्दा सखियों के संग नर्मदा किनारे पहुँची, उस समय बाज बहादुर भी शिकार के लिये आये हुए थे, जहाँ रूपमती की कोकिलकंठी आवाज़ बाज बहादुर के कानों तक पहुँची जिसे बाज बहादुर मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे। गायन समाप्त होने पर बाज बहादुर ने मुक्त कंठ से रूपमती की प्रशंसा करी। बाज बहादुर के दरबार में श्रेष्ठ गायकों का सम्मान हुआ करता था। उन्होंने इन्हें अपने दरबार में आने का आमंत्रण दिया एवं उनके पिता की अनुमति प्राप्त कर इन्हें अपने साथ ही मांडू ले आये। इन्हें मांडू स्थित शाही महल में रखा। रूपमती प्रतिदिन नर्मदा दर्शन के लिये रूपमती मंडप में जाती थी, इसके पश्चात् वह दैनिक दिनचर्या में संलग्न होती थी।
सुलतान बाज बहादुर पठान वंश के अंतिम शासक रहे हैं। बाज बहादुर ने गोंडवाना की रानी दुर्गावती से पराजित होने के बाद युद्ध को तिलांजलि दे दी थी। उन्होंने बाद का अपना जीवन संगीत की साधना में व्यतीत किया था। उनकी गिनती भारत के सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञों में होने लगी थी।
प्रसिद्ध इतिहासकार फरिस्ता के अनुसार बाज बहादुर राग दीपक गाया करते थे। आइन-ए-अकबरी में निज़ाम ने लिखा है कि बाज बहादुर अपने समय के प्रसिद्ध गायक थे जिनका मांडू में शासनकाल सात वर्ष रहा, वह पठानों की लड़ाकू व विध्वंसक प्रवृत्ति से कोसों दूर थे। मांडू का उनके शासनकाल का स्थापत्य उनकी सुरुचि को दर्शाता है।
‘हिस्टरी ऑफ़ मांडू बाय बॉम्बे’ के लेखक सांर्वल्टन ने लिखा है कि एक लेख है जिसमें वर्णित है कि महमूद चाँद व सैयद अली असगर की सेवा में एक मन्खान गवैया रहता था। जिसे अकबर बादशाह ने अपने दरबार में बुला लिया था। वह अपने गीतों में रानी रूपमती के सौंदर्य व गायन प्रतिभा का अक्सर वर्णन करता था, ये गीत सुनकर अकबर बादशाह की इच्छा रानी रूपमती के गायन को सुनने की हुई । इस संदर्भ में अकबर ने बाज बहादुर को लिखित फरमान भेजा जिसमें रूपमती को बुलाने की पेशकश रखी थी। ये बात बाज बहादुर के स्वाभिमान पर चोट थी इसलिये उसने रूपमती को भेजने से इन्कार कर दिया था।
दिल्ली का बादशाह आगबबूला हो उठा था। बाज बहादुर को सज़ा देने के लिये उसने मालवा विजय अभियान छेड़ दिया। जिसके प्रारंभिक दल का नेता अपने चचेरे भाई आदम ख़ान को बनाया था। कालीसिंध तट पर दोनों सेनाओं में टकराव हुआ। इतनी विशाल मुगल सेना के आक्रमण का जवाब देने में अफ़गान सैनिक असमर्थ रहे। उनके द्वारा आत्मसमर्पण कर दिया गया। मजबूरन अकेले हो जाने के कारण बाज बहादुर को अपने नाम के विपरीत जंग के मैदान से भागना पड़ गया था।
आदम ख़ान ने मांडू आकर रूपमती से मिलने की इच्छा व्यक्त की किन्तु बाज बहादुर की असहनीय जुदाई को वह बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। वह डर रही थी कि कहीं मुग़ल दरबार में उसका अपमान न हो। उसने बाज बहादुर को याद करते हुए सोलह-सिंगार किये व विषपान कर लिया।
मांडू स्थित शाही महल भी एक कलाकार स्त्री की रक्षा करने में असमर्थ रहा। रूपमती हिन्दू थीं लेकिन उन्हें सारंगपुर में दफनाया गया। उधर आदम ख़ान ने मांडू को हड़पने के लिये विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह के दमन के लिये अकबर बादशाह को मांडू आना पड़ा। रूपमती के इस अंत ने उन्हें भी व्यथित कर दिया था। मांडू के लोगों ने भी उन्हें रूपमती की आत्महत्या के कारण अपमानित किया। उधर बाज बहादुर भी भटकते हुए रूपमती की कब्र के पास आ गये। यहीं पर उन्होंने अंतिम साँस लीं। सारंगपुर में स्थित दोनों की पास-पास कब्रें उस प्रणय गाथा का बयान करतीं हैं।
(प्रस्तुत सामिग्री साभार बिंदिया गृप प्रकाशन इन्दौर से प्रकाशित विश्वनाथ तिवारी की पुस्तक ‘मांडू दर्शन’ से ली गयी है।)