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प्रणेता ;डॉ.उमाकान्त शुक्ल:
आद्यसम्पादक:
पद्म श्री –डॉ. रमाकान्त शुक्ल:
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मनुष्य के जीवन में विभिन्न मौसम आते हैं | बाल्यावस्था से किशोरावस्था फिर यौवनावस्था | उसके बाद क्रमश: जीवन के झरोखे खुलते,बंद होते ही रहते हैं | हर मौसम की भिन्न रवानी है तो भिन्न कहानी है | कभी पवन के वेग से पल्लवित झरोखे से सुगंधित वायु की बयार है जो कभी प्राणवायु बनकर उसकी श्वासों के साथ लहराकर चलती है तो कभी जीवन-तरंगों से उठती हुई ऐसी अद्भुत कहानी कहती है कि उसकी गति जीवंत कर देती है, कभी निराशा की आँधी भी मन के आँगन में अंधकार फैलाती है | आखिर, यह जीवन है जिसमें सभी परिवर्तन होने स्वाभाविक हैं |
यहाँ पर भी मैं शब्दों के सही टाइप न होने के कारण परेशान भी हुई हूँ और लज्जित भी | आदरणीय गुरु डॉ. शुक्ल जी ने संस्कृत में अपने कमनीय भाव प्रकट किये हैं अत:उन पद्यों का संस्कृत में ही लेखन होना अति आवश्यक है किन्तु बहुत प्रयास के पश्चात् भी कई शब्द त्रुटिपूर्ण टाइप हो रहे हैं | अत: मैं केवल उनके भाव ही पाठकों तक पहुँचा पा रही हूँ | क्षमा !
देववाणी-परिषद,दिल्ली के महासचिव श्री ऋषिराज पाठक जी ने इस पुस्तक का सम्पादकीय संस्कृत में लिखा है जिसे पढ़कर मुझे पता चला कि आ.कवि श्रेष्ठ ने अपने पद्यों में कितने सुंदर अलंकारों का प्रयोग किया है | पद्यों में वर्णित सरल,सलिल शैली पाठक को मंत्रमुग्ध करती है | उन्होंने इस सुंदर पद्यों से युक्त पुस्तिका से जुड़े हुए सभी विद्वानों के प्रति अपनी मंगलकमनाएँ प्रेषित की हैं |
ज्ञानपीठ-पुरुस्कार–सम्मानित परम आदरणीय प्रो.सत्यव्रत जी शास्त्री ने हिन्दी में इसकी भूमिका लिखी है | रुचिपूर्ण यह है कि उन्होंने इसमें एक दंतकथा का वर्णन किया है जो बड़ी मनोरंजक लगी | कथा कुछ इस प्रकार है कि कोई कवि एक राजकन्या के प्रेम पाश में पड़ गया | अब वह तो राजकुमारी थी अत” उसके पिता राजा का कवि के प्रति कठोर होना बड़ा स्वाभाविक ही था | राजा ने क्रोध में कवि को मृत्युदंड आज्ञा दी |
वध स्थल की ओर जाते हुए भी कवि अपनी प्रेमिका के प्रेम में इतना निमग्न था कि वह अपनी मृत्यु को भी अनदेखा करके अपनी प्रेमिका की स्मृति में ही खोया रहा | उसके प्रेम का चरमोत्कर्ष देखकर राजा ने मृत्युदण्ड वापिस ले लिया और अपनी पुत्री का विवाह उस कवि के साथ कर दिया | यह सकारात्मक सुखांत पढ़कर आनंद आया | वैसे भी हम भारतीयों की दृष्टि व झुकाव सुखांत की ओर ही अधिक होता है | मैं अपनी सूक्ष्म बुद्धि से कभी सोचती हूँ कि आखिर कौन अपने जीवन में सुखांत की अभिलाषा नहीं रखता | अब वह बात अलग है कि जो प्रारब्ध में है, प्राप्त तो वही होता है | बस,यही समझना पड़ता है ---यही तो जीवन है !!
कवि बिल्हड़ की चर्चा करते हुए प्रो.शास्त्री लिखते हैं कि कुछ लोगों का मानना है कि यह घटना कवि बिल्हड़ के स्वयं के जीवन में घटित प्रतीत होती है | इस घटना विशेष से प्रेरित होकर उनकी ‘चौरपंचाशिका’ का लेखन हुआ | साथ ही वे अपने मित्र डॉ. शुक्ल के बारे में परिहास भी करते हैं कि ईश्वर की अनुकंपा से उनके जीवन में इस प्रकार की कोई घटना घटित नहीं हुई फिर भी उन्होंने स्वयं को एक विशिष्ट परिवेश में प्रतिष्ठापित करके अपनी कल्पना शक्ति से इस प्रकार के काव्य की रचना की | यह रचना इस बात को भी बल देती है कि’जहाँ न पहुँचे रवि,वहाँ पहुँचे कवि’!
विद्वान प्रो.शास्त्री ने यह भी स्पष्ट किया है कि इस प्रकार का काव्य उस कोटि में आता है जिसे अँग्रेजी में (Alegy) कहा जाता है | आप कहते हैं;
“जिस प्रकार अलंकार (आभूषण)शरीर को और सुंदर बनाते हैं—उत्कर्षाधायकत्वम--उसी प्रकार अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा अलंकार भी काव्य को यदि वह उत्कृष्ट हो भी उसे और उत्कृष्ट एवं आकर्षक बनाते हैं | कवि ने अपने काव्य में इनका भरपूर उपयोग किया है | ”
काव्य मूल रूप से संस्कृत में है किन्तु हम जैसे सूक्ष्म बुद्धि वालों के लिए इसका अँग्रेज़ी भाषांतर आ. गुरुदेव डॉ.जगदीश प्रसाद जी सविता ने एवं हिन्दी में सुन्दर अनुवाद आ.गुरुदेव की सुपुत्री डॉ.सुष्मिता शर्मा के द्वारा किया गया है | इससे मुझे तो कम से कम पढ़ने में बहुत आनंद की अनुभूति हुई है | भावानुवाद की यही सफलता है कि वह मन की भीतरी सतह को छूकर एक संवेदना को ऐसे जन्म देती है जैसे मूल भाषा का प्रभाव!तब वह मूल भाषा के बहुत समीप होती है और न समझ पाने की कमी काफ़ी हद तक कम कर देती है |
आ.सत्यव्रत जी शास्त्री कहते हैं कि डॉ.उमकान्त शुक्ल उस प्रकार के कवि हैं जिन्हें लक्षित कर ही यह कहा गया होगा ----
जयंति ते सुकृतिनो रससिद्धा:कवीश्वरा: |
नास्ति येषां यश:काये जरामरणजं भयम् | |
संस्कृत में लिखने का मोह न रोक सकने के कारण मैंने उपरोक्त श्लोक लिख दिया व अन्य भी लिखने का प्रयास किया है किन्तु मैं त्रुटियों के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ | न जाने क्यों मैं आसानी से हलन्त तक नहीं लगा पा रही हूँ,त्रुटिपूर्ण शब्दों का वाचन व लेखन अपराध है | पुन:पुन: क्षमाप्रार्थी हूँ |
Alegy वैसे तो शोक गीत के अंतर्गत समाविष्ट होता है, मुझे इन पद्यों में प्रिया के प्रेम में पगे हुए क्षण, ‘रोमांस’ अर्थात् प्रणय के दर्शन हुए | एक-एक पद्य में कवि ने अपने भावों की प्रस्तुति कितनी कोमल-कमनीय पदावलि से की है कि प्रेम में भीगे हुए समस्त चित्र जीवंत हो उठते हैं |
मैंने संस्कृत लिखने का प्रयास भर,अनधिकार चेष्टा की है,कितनी सफ़ल हूँ,नहीं जानती | अपनी बात केवल कुछ पद्यों के अँग्रेज़ी, हिन्दी भाव्यभिव्यक्ति के माध्यम से कहने का प्रयास करती हूँ |
1-प्रफुल्लपद्माभमखण्डकान्ति
स्मितप्रभापूर्णकलेन्दुबिम्बम् |
कोपोद्गतैरश्रुभिराननं तत्
स्मरामि तस्या हिमकुन्दगौरम् | |
Of snow and Lily and blooming Lotus
A rare collage—her face
Wow penumbral smile and eyes drenched
Thanks to that hot embrace .
मुझे अपनी प्रिय का मुख;हिम और कुंद के समान गौर,खिलते हुए कमाल की तरह आभा-सम्पन्न,समग्र कान्ति से भरपूर,मुस्कान की ओप से पूर्णचन्द्रबिम्ब के समान और प्रणय–कोप में छलकते आँसुओं से और भी प्रिय लगता था;याद आ रहा है |
इतनी सुखद स्मृति का होना अर्थात् एक सुगंधित पोटली का खुलकर बिखर जाना जिसमें आभा, कान्ति, मुस्कान, के साथ ही प्रणय-स्मृति में छलकते अश्रु कवि को उन्ही क्षणों में खींचकर ले जाते हैं जब वह अपनी प्रियतमा के साथ थे | मधुर संबंधों की ये स्वाभाविक स्मृतियाँ मन को बेचैन करती हैं |
8-
लावण्य-माधुर्य-निवेशभूमिर् -
निशात-सौन्दर्य-मनोहरश्री:
स्मरामि तां या हृदयं मदीय-
(माचछिद्य) कुत्रापि पलाय्य नष्टा | |
The very avatar of honeyed cuteness
Whetted as if on a stone
She played upon me this puckish prank
Stole my heart—be gone !
मुझे वह याद आ रही है जो मेरा मन छीन कहीं दौड़ कर छिप गई है, जिसमें लावण्य और माधुर्य ने पड़ाव डाल रखा था और जो सान पर चढ़ा कर तेज किए हुए सौन्दर्य की मनोहर शोभा थी |
कवि की बेचैनी स्पष्ट झलकती हुई उनके हृदय की स्थिति का वर्णन करती प्रतीत होती है | मन चंचल है, उस पर प्रिया का लावण्य और मधुर तेज सान पर चढ़ा हुआ यौवन का ऐसा प्रभाव जो मन छीनकर कहीं छिप गई हो, कवि के मन को स्मृति की खोह में खींचकर ले जा रही है |
15-
न तादृशी कापि कृता विधात्रा
न विद्यतेअद्यापि च नो भवित्री |
स्मरामि मारस्य विशिष्टतूणी –
भूतां प्रपूर्णां विशिखैश्शितैस्ताम् | |
Call her the secret quiver of Kamdev**
Her charms being arrows keen !
Of her ilk there never was or is
Nor shall ever be seen !
विधाता ने वैसी स्त्री न पहले रची होगी ,न आज रची है और न ही भविष्य में रच पाएगा ,मुझे याद है वह तो कामदेव के विशिष्ट तूणीर के समान थी,जिसमें सौन्दर्य के समस्त तीर पैना कर सहेज दिए गए थे |
इस पद्य में कवि के मन की छटपटाहट प्रतिबिंबित हुई है जो उसके लिए अनमोल है | अपनी प्रेयसी के समक्ष वह किसी और की तुलना करने में असमर्थ हैं | वह विवश भी हैं और पूरे विश्वास व शिद्दत के साथ स्वीकारते हैं कि भूत, वर्तमान व भविष्य में कभी भी विधाता की इतनी सुंदर रचना धरती पर नहीं उतरी है जितनी उनकी प्रेमिका !
35-
भालं भ्रमात् कज्जलरेखया स्व-
माज़्जत् प्रिया मामवलोकयन्ती |
स्मरामि हैमानि दिनानि तानि
निशाश्च माध्वीश्च विनोदपूगान् | |
Eyeing me, she let cohl pencil
Her fair forhead besmear
Will ever those crazy golden days
‘n night revels RE-appear ?
जब कि प्रिया ने मुझे देखते हुए भूल से काजल की लकीर से अपना भाल आँज लिया था ,वे सोने के दिन, मधुमती रातें और ढेर सारी खुशियाँ सब कुछ मुझे याद हैं |
प्रेम की इंतिहा का कैसा अद्भुत चित्रण है । इस बिम्ब पर विशेष दृष्टि जाती है | कवि अपनी प्रिया की स्मृति में मधुमति रातों और सोने के दिनों को अपने हृदय-पटल पर सँजोये हैं | प्रेम की पराकाष्ठा है कि प्रिया आँखों के स्थान पर माथे पर काजल आँज लिया था | प्रेम में पगी हुई प्रेमिका का ऐसा सहज चित्रण मैंने पहली बार पढ़ा और मुख पर मुस्कान थिरक उठी |
51 —
वसन्त–हाला–सरसीरुह श्री –
परागरागै रचितं विधात्रा |
रूपं न मातुं कमनीयमस्या:
प्रकारतो वा परिमाणतो वा | |
‘How’ and ‘how much’ of heavenly vintage
With vernal wealth combined
To that beauty non pareil
No mortal can find !
विधाता ने उसका रूप वसन्त, मदिरा, कमलश्री और पराग की सुगन्ध और रंगों से रचा था, उसका वह कमनीय रूप ईदृक्ता और इयत्ता से नाप नहीं जा सकता था |
उपरोक्त पद्य अनुबोधपंचाशिका का अंतिम पद्य है जिस तक पहुँचते हुए पाठक कवि की पूर्ण मन:स्थिति को अपने भीतर महसूस करने लगता है | शोक-गीत की श्रेणी में रखे गए इस काव्य में कवि की कलम उस शोक में डूबी हुई है जिसमें से होकर उसका प्रेममय जीवन सुगंधित बना | कवि के मन में प्रेमिका का कोमल, कान्त व्यक्तित्व किसी से भी तुलना अथवा नापने में असमर्थ है | संभवत: इसीलिए उस समय के गुज़र जाने के पश्चात् कवि पुन:पुन: अपने उन्हीं दिनों को अपनी साँसों में भरकर जीना चाहता है |
प्रेम के क्षण जीवन के अंग बनकर अंतिम समय तक साथ चलते हैं,बेशक कोई भी स्थिति हो किन्तु प्रेम की गहनता कभी समाप्त नहीं होती | अपनी अल्प बुद्धि से मुझे महसूस होता है कि जीवन की यात्रा भौतिक से होकर ही आध्यात्म के शिखर पर पहुँचती है | प्रेम ही जीवन है क्योंकि हम प्रेम हमारे भीतर है | प्रेम के साथ स्थाई संबंध लेकर ही हम इस पृथ्वी पर आते हैं और प्रेम के वास्तविक स्वरूप की ओर अग्रसर होते हैं |
आदरणीय गुरुवर डॉ.उमकान्त जी शुक्ल को व इस पुस्तिका से जुड़े सभी विद्वानों के मेरा सादर नमन व अनन्त अभिनंदन !
सादर,विनम्र
डॉ. प्रणव भारती