अपने पति की बात सुनकर नीलिमा ने कहा, “सौरभ ये क्या कह रहे हो, आप शांत हो जाओ।”
“नहीं नीलिमा, मैं तुम्हारा तिरस्कार होता देख नहीं सकता। सच पूछो तो यह तिरस्कार हमारा नहीं है, यह तिरस्कार है उस बुढ़ापे का जो हर इंसान को एक ना एक दिन अपने शिकंजे में ले ही लेता है परंतु पता नहीं फिर क्यों लोग …?”
बीच में ही सौरभ को टोकते हुए नीलिमा ने कहा, “तुम शांत हो जाओ सौरभ, ऐसा नहीं है कि हमारे बच्चे हमें प्यार नहीं करते। परिस्थितियों और हालातों ने उन्हें मजबूर कर दिया है। तुम बच्चों को ग़लत मत समझो।”
“हाँ मैं समझ रहा हूँ नीलिमा, गलती हमारी ही है। हमें ख़ुद ही बच्चों को हमारी जिम्मेदारी से बचा लेना चाहिए था। हमें ख़ुद ही अपने घर वापस चले जाना चाहिए था।”
चिराग अपने पिता की नाराजगी के आगे कुछ भी ना कह सका। वह चुपचाप खड़ा सुन रहा था।
इस तरह सौरभ और नीलिमा ने चिराग का घर छोड़ दिया और पहुँच गए अपने पुराने आशियाने में। घर खोला तो वहाँ उन्हें वही अपनापन दिखाई दिया। यह था उनका स्वयं का घर जहाँ से कभी कोई उन्हें कहीं भी जाने के लिए नहीं कह सकता था। यहाँ सब कुछ उनके नियंत्रण में था। वह अपनी मर्जी के मालिक थे वहाँ की तरह हर काम पूछ-पूछ कर करने की ज़रूरत नहीं थी। ना ही यहाँ से वहाँ भेज दिए जाने की चिंता ही थी।
कुछ समय बीता लेकिन नीलिमा अंदर ही अंदर कुढ़ती रहीं, यह सोच कर कि कितना किया सब के लिए लेकिन उनके लिए किसी के पास समय नहीं बचा। यह ऐसा कड़वा सच था जिसे वह जानती थीं बस सौरभ के सामने छुपाती थीं ताकि उन्हें दुख ना पहुँचे।
धीरे-धीरे नीलिमा की तबीयत बहुत खराब रहने लगी। सौरभ अब हमेशा उनकी सेवा करते रहते। वह चाहते थे कि जब तक नीलिमा की सांसें चल रही हैं, उन्हें भी अपने आप को संभालना है। लेकिन भगवान सब की हर इच्छा पूरी कहाँ होने देते हैं। शारीरिक थकान और मानसिक पीड़ा ने आखिरकार उन पर हमला कर ही दिया और अंततः वह नीलिमा का और अधिक समय तक साथ ना निभा पाए। अचानक ही हार्ट अटैक से उनका जीवन समाप्त हो गया।
अब नीलिमा सच में अकेली हो गईं जो सबसे ज़्यादा उनका अपना था वही साथ छोड़ कर चला गया। नीलिमा का दिल टूटा जा रहा था, बच्चों को ख़बर कर दी गई थी। कुछ अड़ोस पड़ोस के लोग भी जमा हो गए थे। नीलिमा अपने पति के अंतिम दर्शन के लिए भी स्वयं नहीं उठ सकती थीं। अपने बेटों के इंतज़ार में उनकी आँखों की पुतलियाँ बार-बार यहाँ से वहाँ घूम रही थीं कि तभी उन्हें अपने घर के आँगन में कुछ शोर सुनाई दिया। उनका बड़ा बेटा पराग अपने परिवार के साथ वहाँ पहुँच चुका था। धीरे-धीरे चिराग, अनुराग और शुभांगी भी अपने-अपने परिवार सहित इस दुख की घड़ी में वहाँ पहुँच गए।
पिता का अंतिम संस्कार होने के बाद अब समस्या थी माँ; उन्हें कौन संभालेगा? चारों भाई बहनों के बीच यह चर्चा का विषय बन गया था। वह सभी बात कर रहे थे कि माँ ने तो अब पूरी तरह से बिस्तर पकड़ लिया है। उन्हें संभालना अब बहुत मुश्किल काम है।
पराग ने अपने भाई-बहनों को बुला कर कहा, “देखो हम सब मिल कर तीन-तीन महीने माँ को रखेंगे। यह सब की जवाबदारी है उन्होंने कोई मुझे अकेले को पाल-पोसकर बड़ा नहीं किया है, तुम्हें भी किया है।”
उस जगह सन्नाटा-सा छा गया था मानो सभी को सांप सूंघ गया हो। सब के पास यूं तो कोई ना कोई बहाना था।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः