बौद्ध आचार्यका उद्धार
इस प्रकार जब प्रभु दक्षिण यात्रा के समय मार्ग में लोगों को वैष्णव बनाते जा रहे थे, तो वहाँ के मायावादी, तार्किक, मीमांसक तथा बौद्ध आदि लोग इसे सह न सके। उन्होंने प्रभु को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। परन्तु प्रभु ने खेल-खेल में ही उनके मतों का खण्डन कर वैष्णव मत (अचिन्त्यभेदाभेद-तत्त्व) की स्थापना की एक दिन एक बौद्ध-आचार्य अपने बहुत से शिष्यों को साथ लेकर श्रीमन् महाप्रभु से शास्त्रार्थ करने आया, परन्तु प्रभु से बुरी तरह पराजित हो गया। यह देखकर वहाँ पर उपस्थित हजारों लोग बौद्ध आचार्य का उपहास करने लगे तथा प्रभु की जय-जयकार करने लगे। इससे वह क्रोधित हो गया। प्रभु को वैष्णव जानकर वह अपने घर चला गया तथा वहाँ जाकर प्रभु को नीचा दिखाने के लिए विचार करने लगा। बहुत विचार करने के बाद वह एक थाली में अपवित्र एवं अखाद्य वस्तुओं को एक कपड़े से ढककर प्रभु के पास ले आया तथा प्रभु को प्रसाद के नाम पर देने लगा। अन्तर्यामी प्रभु सब जानते थे। तथापि उन्होंने जैसे ही हँसते-हँसते उस थाली को लेने के लिए हाथ बढ़ाया, उसी समय एक विशालकाय पक्षी कहीं से उड़ता हुआ आया तथा उस थाली को अपनी चोंच में पकड़कर पुनः आकाश में उड़ गया। ऊपर जाकर उसने वह थाली चोंच से छोड़ दी, जिससे थाली में रखी अपवित्र वस्तुएँ बौद्ध आचार्य के शिष्यों के ऊपर ही गिर गयीं और थाली बौद्ध आचार्य के सिर पर गिर पड़ी तिरछी थाली लगने से उसका सिर कट गया तथा वहाँ से रक्त की धारा बहने लगी, जिससे वह भूमि पर गिरकर बेहोश हो गया। यह देखकर उसके शिष्य लोग हाहाकार करने लगे। सभी ने आकर प्रभु के चरण पकड़ लिये तथा उनसे प्रार्थना करने लगे– “हे प्रभो हमसे अपराध हो गया। हमने अहङ्कारवश आपको न पहचानकर एक साधारण संन्यासी समझा। आप तो दयालु हैं, अतः कृपा कर हमारे अपराधों को क्षमाकर हमारे गुरुदेव को जीवित कर दीजिये।” यह सुनकर प्रभु बोले – “तुम सभी लोग मिलकर अपने गुरु के कान में उच्च स्वर से कृष्ण नाम का कीर्त्तन करो। ऐसा करने से तुम्हारे गुरु जीवित हो जायेंगे।” अब सभी लोग गुरु के कान के पास जोर से कृष्ण कीर्त्तन करने लगे। कुछ ही क्षण पश्चात् आचार्यको होश आ गया तथा वह भी खड़ा होकर नृत्य करते हुए कृष्णनाम कीर्त्तन करने लगा। यह देखकर वहाँ पर उपस्थित हजारों लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही। उसी क्षण प्रभु वहाँ से अन्तर्धान हो गये। कोई भी उनका पुनः दर्शन न कर पाया।
श्री वेङ्कटभट्ट पर कृपा
इस प्रकार श्रीचैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत के विभिन्न तीर्थों, देवालयों का दर्शन करते-करते श्रीरङ्गम के प्रसिद्ध श्रीरङ्गनाथ जी मन्दिर में उपस्थित हुए। श्रीरङ्गम में वैङ्कटभट्ट नामक एक श्री (रामानुज) सम्प्रदाय के वैष्णव रहते थे। जब श्रीमन् महाप्रभु वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने प्रभू से निवेदन किया– “प्रभो अब चातुमांस्य प्रारम्भ हो गया है अतः आप कृपापूर्वक मेरा आतिथ्य स्वीकार करके श्रीरङ्गममें ही चातुर्मास्य व्यतीत कीजिये।” प्रभुने भी उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। इस भट्ट परिवारमें बेटभट्ट, त्रिमल्लभट्ट और प्रबोधानन्द सरस्वती तीन भाई थे। वेङ्कटभट्ट के पुत्रका नाम श्रीगोपाल भट्ट था।
श्रीवेङ्गभट्ट श्रीलक्ष्मी नारायणके उपासक थे। अतः वे श्रीनारायणको परतत्त्व मानते थे। एक दिन प्रभुने हँसते हुए उनसे पूछा– “भट्ट ! तुम्हारी आराध्या श्रीलक्ष्मीजी परम पतिव्रता हैं तथा श्रीनारायणके वक्षःस्थलपर निवास करती हैं और हमारे आराध्य श्रीकृष्ण गोप होनेके कारण गौएँ चराते हैं। अतः पतिव्रता श्रीलक्ष्मी ब्राह्मणी होनेपर भी श्रीकृष्णसे क्यों मिलना चाहती हैं? इसके लिए वे समस्त प्रकारके सुखभोगोंको त्यागकर बहुत समयसे तपस्या भी कर रही हैं।”
यह सुनकर भट्ट बोले– “प्रभो ! श्रीकृष्ण एवं श्रीनारायण तो एक ही तत्त्व हैं। श्रीकृष्णमें केवल लीला-माधुरी अधिक है। अतः श्रीकृष्ण को स्पर्श करने से उनका पतिव्रताधर्म नष्ट नहीं हो सकता।”
प्रभु बोले– “इसमें दोष नहीं है, यह तो ठीक है परन्तु ऐसा सुना जाता है कि उन्हें रासमें प्रवेश नहीं मिला, जब कि श्रुतियों ने तपस्या के द्वारा रासमें प्रवेश पा लिया था, इसका क्या कारण है?”
भट्ट बोले– “प्रभो ! मेरी बुद्धि अति तुच्छ है, अतः मैं इसका कारण समझ नहीं पा रहा हूँ। भगवान् की लीलाएँ तो करोड़ों
समुद्रों के समान गम्भीर हैं। आप तो स्वयं कृष्ण ही हैं, अतः आप ही कृपापूर्वक इसका कारण बतलाइये।
प्रभु बोले– “कृष्ण की एक विशेषता है कि वे अपनी माधुरी के द्वारा सबके चित्त को आकर्षित करते हैं। एकमात्र व्रजभाव के द्वारा ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। व्रजवासी लोग कृष्ण को भगवान् नहीं, बल्कि अपना पुत्र, सखा तथा प्राणवल्लभ मानते हैं। यदि कोई श्रीकृष्ण को पाना चाहता है, तो उसे इन व्रजवासियों का आनुगत्य स्वीकार करना ही पड़ेगा। श्रुतियों ने गोपियों के आनुगत्यमें श्रीकृष्ण का भजन किया, जिसके फलस्वरूप उनका व्रजमें गोपीरूपमें जन्म हुआ तथा वे रासमें प्रवेश कर सकीं। श्रीकृष्ण गोप हैं तथा वे गोपियों के साथ ही रास करते हैं। परन्तु श्रीलक्ष्मीजी उसी ब्राह्मणी शरीरसे रासमें प्रवेश करना चाहती थीं, क्योंकि उन्हें ग्वालिनियों (गोपियों) का आनुगत्य स्वीकार नहीं था। यही कारण है कि उन्हें रासमें प्रवेश नहीं मिला।”
वेङ्कटभट्ट काविचार था कि श्रीनारायण ही मूल भगवान् हैं तथा श्रीकृष्ण नारायणके अंश हैं, उनके इस विचारको दूर करनेके लिए ही प्रभुने हास-परिहासके माध्यमसे ये बातें कहीं। प्रभु बोले– “भट्ट ! तुम विश्वास करो कि श्रीकृष्ण ही स्वयं भगवान् हैं तथा श्रीनारायण उनकी विलास-मूर्ति हैं। श्रीनारायणकी अपेक्षा श्रीकृष्णमें अधिक गुण हैं इसीलिए श्रीकृष्ण नारायणकी सेविका श्रीलक्ष्मीके मनको भी हर लेते हैं। परन्तु श्रीनारायण कदापि गोपियोंका मन हरण नहीं कर पाते।
[ इसका प्रमाण है–एकबार कृष्णकी इच्छा हुई कि गोपियोंके प्रेमकी परीक्षा ली जाय। इसके लिए वे राससे अन्तर्धान हो गये। जब गोपियाँ उन्हें खोज रही थीं, तो कृष्ण नारायणस्वरूप धारणकर उसी मार्गमें खड़े हो गये, जिस मार्गसे गोपियाँ जा रही थीं। जब गोपियाँ उनके निकट पहुंची तो कहने लगी– हे प्रभु नारायण आप कृपा करके हमें हमारे प्राणनाथके विषयमें बता दीजिये। उस समय राधिकाजी कुछ पीछे थी किन्तु जब वे नारायण स्वरूपधारी कृष्णके निकट पहुँची, तो कृष्ण उस चतुर्भुज स्वरूपको नहीं रख सके। उनके दो हाथ उनके पेटमें प्रविष्ट हो गये। जिसके कारण उस
स्थानका नाम पड़ गया ‘पेंठा’। आज भी व्रजमें वह स्थान पैंठाके नामसे प्रसिद्ध है। ]
यह सुनकर भट्ट कहने लगे— भगवान् की लीलाएँ तो अगाध हैं, उन्हें मेरे जैसा तुच्छ जीव कैसे समझ सकता है? आप तो स्वयं श्रीकृष्ण ही हैं, अतः आपकी कृपासे ही मैं आज समझ पाया हूँ कि वास्तवमें श्रीकृष्ण ही समस्त अवतारोंके मूल हैं तथा भक्ति ही सर्वोपरि है। ऐसा कहकर वैङ्कटभट्टने आनन्दसे रोते हुए प्रभुके चरणकमलोंको पकड़ लिया तथा प्रभुने भी उन्हें उठाकर गलेसे लगा लिया। उनका सारा परिवार श्रीकृष्ण भक्त बन गया। इस प्रकार चार मास वहीं बिताकर प्रभु आगे चल दिये।