सार्वभौम का उद्धार
संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् प्रभु श्री गौरसुन्दर प्रेम में उन्मत्त होकर वृन्दावन की ओर चल दिये, परन्तु नित्यानन्द प्रभु छलपूर्वक उन्हें शान्तिपुर में श्री अद्वैताचार्य के घर ले आए। वहाँ से वे अपनी माँ श्रीशची माता से आज्ञा लेकर कुछ परिकरों के साथ नीलाचल पहुँचे। पुरी से कुछ दूरी पर ही श्रीनित्यानन्द प्रभु ने उनका दण्ड तोड़कर नदी में प्रवाहित कर दिया। इससे श्रीमन् महाप्रभु दुःखित होकर अकेले ही आगे चल पड़े और श्रीमन्दिर में उपस्थित हुए। मन्दिर में श्रीजगन्नाथ देव का दर्शनकर प्रेमाविष्ट होकर वे उन्हें आलिङ्गन करने के लिए दौड़े। परन्तु बीच में ही मूर्च्छित होकर गिर पड़े। यह देखकर वहाँ के पण्डे प्रभु को पागल समझकर उन्हें मारने को तैयार हो गये। उसी समय सौभाग्य से वहाँ पर श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य भी विराजमान थे। वे वहाँ के राजपुरोहित थे। उन्होंने जब प्रभु के सौन्दर्य तथा उनके दिव्य भावों का दर्शन किया तो वे मुग्ध हो गये। वे समझ गये कि ये अवश्य ही कोई असाधारण महापुरुष हैं। अतः उन्होंने पण्डों को मारने से रोक दिया तथा प्रभु को अपने घर ले गये। बाद में जब श्रीनित्यानन्द एवं मुकुन्द आदि मन्दिर में पहुँचे तथा उन्हें पता चला कि श्रीमन्महाप्रभु श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य के घर पर हैं, तो वे भी वहाँ पहुँच गये परन्तु प्रभु अभी तक प्रेम में आविष्ट होने के कारण मूच्छित ही पड़े हुए थे। जब सभी भक्तवृन्द मिलकर जोर-जोर से कीर्त्तन करने लगे, तो प्रभु उठकर बैठ गये।
सार्वभौम भट्टाचार्य बहुत बड़े वैदान्तिक पण्डित थे। वे गृहस्थ होकर भी बड़े-बड़े मायावादी संन्यासियों को वेदान्त पढ़ाते थे। वे भगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला इत्यादि को नित्य नहीं, बल्कि मायिक मानते थे। उनका कहना था कि वास्तव में ब्रह्म निराकार है, जब वह माया की विद्यावृत्ति से ग्रस्त होता है, तो वह साकार ब्रह्म या भगवान् कहलाता है। एक दिन भट्टाचार्य प्रभु के भक्तों से कहने लगे– “ये संन्यासी तो अभी बालक ही हैं। इन्होंने संन्यास
तो ले लिया, परन्तु संन्यास-धर्म की रक्षा कैसे कर पायेंगे? अतः मैं इन्हें वेदान्त पढ़ाऊँगा, जिससे इनका हृदय कठोर हो जायेगा तथा ये संसार में नहीं फँसेंगे।” यह सुनकर भक्त लोग बोले भट्टाचार्यजी! आप इन्हें पहचान नहीं पाये। ये कोई साधारण संन्यासी नहीं, अपितु स्वयं भगवान् हैं। जगत् को शिक्षा देने के लिए ही इन्होंने संन्यास वेश धारण किया है। भक्तों के मुख से ऐसा सुनने पर भी उन्हें विश्वास नहीं हुआ।
भक्तों ने जब यह बात प्रभु से कही तो वे हँसते हुए बोले– “इसमें दुःखी होने की क्या बात है? मुझे तो प्रसन्नता है कि उनका मेरे प्रति वात्सल्यभाव है। तभी तो उन्हें मेरी चिन्ता लगी है। वे मुझे अपना पुत्र जैसा समझते हैं। अतः मैं उनसे अवश्य ही वेदान्त श्रवण करूँगा।
”
दूसरे दिन से सार्वभौम भट्टाचार्य ने महाप्रभु को वेदान्त पढ़ाना आरम्भ कर दिया। पढ़ते-पढ़ते सात दिन बीत गये। इन सात दिनों में प्रभु ने न कुछ प्रश्न ही किया, न कुछ कहा। यह देखकर भट्टाचार्य आश्चर्य में पड़ गये। अतः उन्होंने पूछा– “चैतन्य! आप सात दिनों से वेदान्त श्रवण कर रहे हैं, परन्तु एक बार भी आपने 'हाँ' अथवा 'न' कुछ नहीं कहा। मैं उलझन में हूँ कि आप कुछ समझ रहे हैं कि नहीं।
”
यह सुनकर प्रभु बोले— “भट्टाचार्यजी! वेदान्त सूत्रों का अर्थ तो सूर्य के समान स्पष्ट प्रकाशित हो रहा है, परन्तु आपकी काल्पनिक व्याख्या रूपी बादलों से मानो वह ढक जाता है।” यह सुनकर भट्टाचार्य कुछ आश्चर्यचकित होकर बोले– “आज तक किसी ने मेरी व्याख्या में दोष नहीं निकाला और तुम एक नवीन बालक मेरी व्याख्या में दोष निकाल रहे हो। यदि मेरी व्याख्या गलत है, तो तुम ही ठीक व्याख्या करो।”
इस पर प्रभु ने जब सुन्दर ढङ्ग से वेदान्तसूत्रों की सविशेष-परक व्याख्या की, तो सार्वभौम अचम्भित रह गये। श्रीमन्महाप्रभु ने कहा– “श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं। उनका अप्राकृत मदनमोहन सुन्दर रूप है, वे अप्राकृत गुणों के भण्डार हैं। इसलिए उन्हें गुणाकर भी कहते हैं। उनकी अनन्त दिव्यातिदिव्य लीलाएँ हैं, जो बड़े-बड़े आत्माराम मुनियों के
मन को भी हरण कर लेती हैं। उनकी लीलाओं से तो स्वयं ब्रह्मा आदि देवता भी मोहित हो जाते हैं।” इसके लिए प्रभु ने वेद-वेदान्त, उपनिषद आदि से पुष्ट प्रमाणों को प्रस्तुत किया।
यह सुनकर श्रीभट्टाचार्य अवाक रह गये। परन्तु फिर भी उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि श्रीमन्महाप्रभु भगवान् हैं। तब महाप्रभु बोले– “भट्टाचार्यजी! आप कृपाकर ‘आत्मारामश्च मुनयो निर्ग्रन्थाऽप्युरुक्रमेे’ श्लोक की व्याख्या कीजिये।”
यह सुनकर भट्टाचार्य ने इस श्लोक की नौ प्रकारकी अलग-अलग व्याख्या की। तब वे प्रभु से बोले– “अब आप इस श्लोक की व्याख्या कीजिये।”
यह सुनकर प्रभु ने इस श्लोक की अठारह प्रकार की व्याख्याएँ कीं आश्चर्य की बात तो यह थी कि उन्होंने भट्टाचार्य के किसी
भी अर्थ को स्पर्श नहीं किया तथा उनकी अपनी व्याख्याएँ भी एक दूसरे से सम्पूर्ण रूप से भिन्न थीं।
श्रीमन् महाप्रभु द्वारा ऐसी अपूर्व व्याख्यों को सुनकर भट्टाचार्य को विश्वास हो गया कि ये वास्तव में ही कृष्ण हैं, क्योंकि इनके जैसा पाण्डित्य साधारण मनुष्य में सम्भव नहीं है। अतः वे स्वयं को धिक्कारते हुए कहने लगे– “हे प्रभो पाण्डित्य के अभिमान के कारण मैं आपको पहचान नहीं पाया। आपके साथ तर्क-वितर्क करने के कारण मेरा भयङ्कर अपराध हो गया है।”
उनकी दीनता देखकर प्रभु की उनपर कृपा करने की इच्छा हुई। अतः प्रभु ने उन्हें अपना षड्भुजरूप का दर्शन कराया। यह देखकर भट्टाचार्य आनन्द से रोते हुए पुनः पुनः प्रभु को साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करने लगे। प्रभु की कृपा से शास्त्रों का वास्तविक तात्पर्य उनके हृदय में प्रकट हो गया तथा उन्होंने देखते-ही-देखते एक सौ श्लोकों की रचनाकर प्रभु की स्तुति की। प्रभु ने प्रसन्न होकर उन्हें गले से लगा लिया।
दक्षिण भारत की यात्रा
इस प्रकार कुछ दिन नीलाचल में ही रहकर रथयात्रा का दर्शन कर श्रीमन् महाप्रभु दक्षिण भारत के लोगों का उद्धार करने के लिए चल पड़े। श्रीमन् महाप्रभु प्रेम में उन्मत्त होकर कीर्तन करते हुए जा रहे थे। मार्ग में जो उनका दर्शन कर लेता, उसके मुख से स्वतः ही कृष्ण-कृष्ण निकलने लगता। जब उस व्यक्ति को कोई दूसरा व्यक्ति देखता, तो वह व्यक्ति भी कृष्ण-कृष्ण बोलने लगता। इस प्रकार प्रभु गाँव एवं नगरों को वैष्णव बनाते हुए चले जा रहे थे।
कुष्ठ-विप्र का उद्धार
एक दिन मार्ग में प्रभु एक गाँव में पहुँचे। उस गाँव में कूर्म नामक एक विप्र रहते थे। वे भगवान् के परम भक्त थे। उन्होंने प्रभु को अपने घर में भोजन के लिए आमन्त्रित कर उन्हें प्रेमपूर्वक अनेक प्रकार के व्यञ्जन खिलाये। इस प्रकार रात्रि वहीं व्यतीत कर प्रभु प्रातः काल स्नान आदि नित्य कृत्यों से निवृत्त होकर वहाँ से आगे चल पड़े। उसी
गाँव में वासुदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके समस्त शरीर में गलित कुष्ठ रोग हो गया था तथा उन घावों में कीड़े पड़ गये थे। जब उसके शरीर से वे कीड़े नीचे गिर जाते, तो वह उन्हें उठाकर पुनः उन घावों पर रख देता था। रात को जब उसने सुना कि प्रभु कूर्म ब्राह्मण के यहाँ पधारे हैं, तो प्रातः काल वह भी प्रभु के दर्शनों के लिए आया। परन्तु जब उसने सुना कि प्रभु वहाँ से चले गये हैं, तो वह अत्यधिक दुःख-मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़ा। कुछ देर बाद होशमें आनेपर वह बहुत विलाप करने लगा। उसी समय भक्त-वत्सल भगवान् श्रीगौरसुन्दर वहाँपर प्रकट हो गये तथा उन्होंने ब्राह्मण को गले से लगा लिया। प्रभु का स्पर्श होते ही उसका रोग दूर हो गया तथा उसके शरीर से दिव्य तेज निकलने लगा। अब वह परमानन्दित होकर प्रभुकी स्तुति करते हुए रोते-रोते कहने लगा– “प्रभो! मैं रोगावस्थामें ही अच्छा था, क्योंकि मुझमें दीन-हीन भाव बना रहता था। परन्तु अब आपने मुझे दिव्य शरीर प्रदान कर दिया है, अतः अब तो मुझेमें अपने रूप का अहङ्कार आ जायेगा और मेरी भक्ति नष्ट हो जायेगी।” यह सुनकर प्रभु बोलेे– विप्र! मेरी कृपा से तुम्हारे हृदय में अहङ्कार नहीं आयेगा तुम सदा सर्वदा कृष्ण-कृष्ण कहना। ऐसा कहकर प्रभु वहाँ से अन्तर्द्धान हो गये।