Mujahida - Hakk ki Jung - 31 in Hindi Moral Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 31

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 31

भाग 31

तलाक के करीब तीन महीने बाद फिज़ा ने कोर्ट में केस दायर कर दिया था। वकील साहब के तजुर्बे और उस वक्त के हालात को देखते हुये ज़हेज, घरेलू हिँसा, अबार्शन का केस बना था। जिसके लिये धारा चार सौ अठठानवें, तीन सौ तेरह, तीन सौ तेइस, चार सौ बावन, पाँच सौ छ: के तहत छ: मुकदमें फाइल हुये थे।
केस फाइल होते ही ये खबर पूरे शहर में जंगल की आग की तरह फैल गयी थी। सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात तो ये थी कि उसका साथ देने के बजाय ज्यादातर लोग उसके खिलाफ खड़े हो गये थे। इस्लाम में किसी औरत का तलाक के खिलाफ मुकदमा दायर करना अपने आप में एक गुनाह की तरह था। कभी किसी ने ऐसा सोचा भी नही था और न ही हिम्मत की थी? कि कोई मज़लूम औरत ऐसा कर सकती है? एक मज़लूम औरत के अन्दर इतनी हिम्मत और हौसला देख कर उन्हे यकीन ही नही हो रहा था।
वैसे भी ये दुनिया दूसरों को उठता हुआ या वह करता हुआ नही देख पाती जो वो खुद कभी न कर पाई हों। इसलिये टाँग पकड़ कर खीचनें के अलावा उन्हें और कुछ सूझता ही नही।
आरिज़ का पूरा खानदान तिलमिला उठा था। उनके खानदान की नाक कट गयी थी। वो लोग बौखलाए हुये घूम रहे थे। लोग तरह-तरह की बातें बना रहे थे। उन्हे समझ नही आ रहा था कि कहाँ जाकर मुँह छिपायें? और किसके सवालों के क्या जवाब दें? कैसे कहें, कि उनकी तलाक शुदा दुल्हन ने उनके रसूखे खानदान के खिलाफ आवाज़ उठाने की जुर्रत करके उनकी इज्जत को मिट्टी में मिला दी थी?
उस खानदान में जहाँ औरतें बेजान खिलौनें की तरह इस्तेमाल की जाती हैं। वो उस घर का गुलदान भर हैं। जिसके फूलों को वक्त-वक्त पर बदल दिया जाता है। या फिर फूलों की डंडियों को गुलदान के हिसाब से तोड़-मरोड़ कर उसके अन्दर फिट कर किया जाता है। उसके भी ख्याबों को, ख्बाइशों को और उसके ह़क को तोड़- मरोड़ कर उनके खानदान के मुताबिक ढ़ालने की कोशिश की गयी थी। जिसे फिज़ा ने नामंजूर कर दिया था।
ये उनके लिये बहुत बड़ी बेइज्जती की बात थी। लोग कानाफूसी करने लगे थे। ऊँगलियाँ तो उनके खानदान पर उठ ही चुकी थीं। सब अपनी-अपनी तरह से बातें कर रहे थे। सो सब के सब बौखला गये थे। इस बात से उनका कीना और बढ़ गया।
ये खबर जब आरिज़ के घर के अन्दर पहुँची और उसकी भाभी अफ़साना ने सुनी तो वह फिज़ा की महफूज़ियत के तर्स से घबरा उठीं, वह जानती थी कि ये लोग किस हद तक जा सकते हैं। इन्हे सिर्फ और सिर्फ अपने रसूख से महोब्बत है। दूसरों के रसूख, उसकी ख्वाइशों से इन्हे कोई मतलब नही है। दूसरी तरफ वह मुतमईन भी थी- "कि अब कोई तो है जो मसीहा बन के आया है।" उसने दिल ही दिल में उस घर के लिये थोड़ी सी नफरत लिये हुये कहा था- "नारास्ती का नतीजा यही होता है। शायद फिज़ा के जरिये उसे भी इन्साफ मिल सके। अफ़साना को भी इस मुकदमें से बहुत उम्मीद बँध गयी थी। उसने फिज़ा के लिये अल्लाह ताला से दुआयें भी माँगी थी। बस इस बात का ख्याल उसने जरूर रखा था कि घर वालों को इसकी भनक भी न लग जाये कि वह फिज़ा के साथ है।
उसने मदीने पाक की तस्वीर के सामने खड़े होकर कहा- "अल्लाह ताला! रहम करना और फिज़ा को हिम्मत देना। फिज़ा की जीत अकेले उसकी जीत नही होगी बल्कि पूरे औरत जाति के लिये एक खूबसूरत तोहफा होगी। जहाँ हम औरतों भी खुल कर साँस ले पायेंगी। अपने लिये जी पायेंगी। गुलामी की जिन्दगी से बाहर आ जायेंगी। कितना अच्छा होगा? उस दिन खुले आसमान में हम औरतें भी जिन्दगी का लुत्फ उठायेंगी। कुदरत ने तो यह नजारें, ये हक सबके लिये बराबर बनाये हैं जहाँ अब तक सिर्फ मर्द का कब्जा रहा है और वह अपनी ऊँगली पर हम औरतों को नचाता रहा है। अफसाना ये सोच कर ही रोमान्चित होने लगी थी। फिज़ा हम आपके साथ हैं। आपके साथ हम खुल कर तो नही लड़ सकते क्यों कि हम आपकी तरह हिम्मती नही हैं, लेकिन हमारी दुआओं में आप हमेशा रहेंगी। खुदा आपकी मदद करे और आपको इन्साफ मिल जाये। आप इस लड़ाई को जीतें, ताकि आज़र्दाह से डूबी औरतौं को अपना ह़क और हिम्मत मिल सके। जफ़ा से जूझ रही औरतें सुकून पा सकें।"
इस खबर से आज अफसाना के जिस्म में गजब की फुर्ती आ गयी थी। वह दौड़-दौड़ कर घर के सब काम निबटाने लगी थी जैसे आज ही वह सब खुशियाँ पा लेगी। सोच कर वह खुद ही हँस पड़ी।
सुना तो फ़रहा ने भी था। मगर वह खामोश रही। उसने कोई भी ऐसी प्रतिक्रिया नही दिखाई जिससे पता चले कि वह खुश है या नही। उस घर में खुश तो वह भी नही थी मगर दुखी भी इतना ज्यादा नही थी जो लड़ाई कर बैठे। चूंकि वह ही थी जिसकी घर में थोड़ी बहुत चलती थी। इस बात से वह अक्सर गुमान में भी रहती थी। अगर शौहर की बात करें तो वह भी अपने भाईओं के जैसा ही था। ये जरुर था कि उनसे थोड़ा बहुत कम था। कभी-कभी उसकी सुन लिया करता था। घर के बाकि लोगों के मुकाबले थोड़ी तबज्जो भी दे दिया करता था। घुमाने-फिराने से लेकर खाने-पीने का भी ख्याल रखता था। एक-दो बार तो उसने अपनी अम्मी जान से उसके काम को लेकर भी सिफारिश की थी कि फरहा एम.बी.ए. है तो उसको जाव करने की इजाजत दे दी जाये। बेशक घर में उसकी इस पैरवी को दरकिनार कर दिया गया था मगर उसने कहने की हिम्मत तो की ही थी। इस बात की तसल्ली फरहा को थी।
आरिज़ की अम्मी जान ने दालान में खड़े होकर ऐलान कर दिया था- " कान खोल कर सुन लो तुम दोनों दुल्हनों, अगर किसी ने भी उस नामुराद, बेहया औरत से कोई भी रिश्ता रखा तो अन्जाम भुगतना होगा। कोई भी उससे फोन पर बात करते हुये देखा गया तो उसी दिन इस घर में उसका आखरी दिन होगा। हमारी बदकिस्मती थी जो वह इस घर में आई। बदजुबान और बददिमाग लड़की थी वो। किसी के सामने कुछ भी बोल देना, किसी की इज्जत ना करने की तो कसम खा रखी थी उसने। ऊपर से घमण्ड इतना जैसे कहीँ की हूर हो। अल्लाह ने अच्छा ही किया जो वो यहाँ से चली गयी। हमें तो पहले ही शक-शुब्हा हो गया था कि वो हमारे खानदान के लायक नही है। ये तो आरिज़ की मर्जी थी जो हमें उसके आगे झुकना पड़ा था। खैर अब जो हुआ अच्छा हुआ।" वह गुस्से से आग बबूला हो रही थीं और बहुत ही खिसियाई हुई थीं। थोड़ा साँस लेकर वह फिर कहने लगी - "आज तक किसी की इतनी हिम्मत नही हुई जो हमारे खानदान पर ऊँगली उठा सके और इस बददिमाग की इतनी जुर्रत? औरत की तरह तो रहना ही नही सीखा था उसने। बात-बात पर तुनकना और हर बात पर अपनी चलाना शरीफ घर की बेटियों के काम नही होते।" आरिज़ की अम्मी आज बेहद गमज़दा भी थीं उन्हें अपने रसूखे खानदान की बदनामी का बहुत अफसोस हो रहा था।
अफ़साना और फरहा दोनों अपने-अपनें कमरों से बाहर आ गयीं थीं। अफसाना अन्दर -ही -अन्दर खुश थी। पर वह ऊपर से बगैर कुछ बोले खड़ी रही। वह तो फिज़ा की सलामती की दुआयें कर रही थी।
वैसे तो फरहा भी चुप थी मगर वह शान्त नही थी। एक जर्रे को आँख गड़ा कर देख रही थी। उसने उनकी बातों को ध्यान लगा कर नही सुना था। वह थोड़ी खुदगर्ज सी लग रही थी। सबसे अजीब बात तो यह थी कि उस घर की दोनों में से कोई भी दुल्हन उनसे हमदर्दी जताने उनके पास नही आई थी। जिसकी बजह से वह और ज्यादा तिलमिला गयीं थीं।
आरिज़ इस हद तक बौखला गया था कि वह बगैर सोचे-समझे और बगैर किसी को बताये फिज़ा के घर पहुँच गया। जिस वक्त आरिज़ वहाँ पहुँचा वह बाहर दालान में ही पड़ी हुई डाइनिंग टेबुल पर बैठी थी और डिनर कर रही थी। आज शबीना ने उसकी पंसदीदा बिरयानी बनाई थी जिसे वह बड़े चाव से खा रही थी। उसने अभी एक -दो लुकमें ही खाये थे। बेस़ाख्ता आरिज़ को सामने देख कर उसके हाथ का लुक़मा नीचे गिर गया। वह विना किसी की इजाज़त के उनके घर में ऊपर चढ़ आया था। उसे देख कर फिज़ा की सारी हिम्मत धरी रह गयी थी। वह फौरन उठ कर खड़ी हो गयी और झट से दुपट्टे से सिर को ढ़क लिया। मुँह फेर कर धड़कते हुये दिल से बोली- "आपसे हमारा कोई रिश्ता नही है। आप हमारे लिये गैर हैं अब। क्यों आये हैं यहाँ? चले जाइये यहाँ से।" कह कर उसके दोनों पैर बुरी तरहा काँपने लगे थे।
वह डरी हुई इसलिए भी थी उस वक्त खान साहब घर पर नही थे और आरिज़ के तास्सुरात बता रहे थे कि वह गुस्से में है। उसके इरादें ठीक नही हैं। आवाज सुन कर शबीना भी किचिन से आ गई थी। उसने भी उसकी आवाज़ को सुन लिया था। उसका इस तरह आना किसी बला की माफिक था। शबीना को उसका आना बिल्कुल भी अच्छा नही लगा था। उसका बेधड़क अन्दर घुस आना एक इत्तेफाक ही रहा था वरना तो उनका लोहे का चैनल हर वक्त बंद ही रहता था।
आरिज़ ने आते ही निहायत ही फूहड़ लहजे में कहा- "तुम क्या समझती हो जीत जाओगी ये लड़ाई? और हरा दोगी मुझे? बनाओ कितना तमाशा बनाना है? देखता हूँ तुम्हे और तुम्हारे हिमायतियों को? जानती हो न किससे पँगा ले रही हो? हमारे खानदान से टकराने की जुर्रत कैसे हो गई तुम्हारी? अब इसका अन्जाम भुगतने को तैयार हो जाओ।" आरिज़ बुरी तरह खिसियाया हुआ था। बोलते वक्त कई बार उसके अल्फा़ज भी टूटे थे। इन्सान कितना भी गलत कर ले मगर कहीँ- न- कहीँ उसे पता होता है वह गलत कर रहा है। उसकी रुह उसे धिक्कारती है। मगर गुमान की परत इतनी मोटी होती है कि वह उससे बाहर नही आ पाता।
क्रमश: