Yugantar - 35 in Hindi Moral Stories by Dr. Dilbag Singh Virk books and stories PDF | युगांतर - भाग 35

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युगांतर - भाग 35

दुख आदमी को चिंतन करने पर मजबूर करता है। दुखी होकर आदमी अपनी उन गलतियों को याद करता है, जिसे करने से वह बच सकता था। दुख में वह उनके बारे में भी सोचता है, जिनके बारे में उनकी सोच ज्यादा बेहतर नहीं रही होती। रमन से उसके संबन्ध उस समय से बढ़िया थे, जबसे उसने रश्मि को स्वीकार कर लिया था, लेकिन शुरुआत में वह रमन के स्वभाव से परेशान रहता था। रमन का स्वभाव अब भी उसे हैरान कर रहा है। वह सोच रहा है रमन उससे लड़ती क्यों नहीं? बेटे के मौत को वह इतनी आसानी से कैसे सह सकती है, लेकिन रमन खुद को सहज बनाए हुए थी। वह उन्हें कहती, "हमें अब यही नहीं रुके रहना, आगे बढ़ना है। आप और कुछ नहीं करना चाहते तो अपने खेतों में ही चक्कर लगा आया करो। यूँ पड़े-पड़े आप भी बीमार हो जाएँगे।"
"तो क्या होगा। अब तो मर ही जाऊँ, वही अच्छा है।" - यादवेंद्र ने दुखी होकर कहा।
रमन ने उनके मुँह पर हाथ रखते हुए कहा, "शुभ-शुभ बोलिए।"
"अब क्या शुभ और क्या अशुभ?"
"रश्मि तो है अभी, हमें उसके लिए जीना है।"
"रश्मि तो है, लेकिन वह यशवंत तो नहीं बन सकती।" - यादवेंद्र की आँखें भर आई। थोड़ा रुककर बोला, "रमन तुम्हें नहीं लगता कि यशवंत का कातिल मैं हूँ।"
"आप ऐसा क्यों सोचते हैं। आदमी तो कुदरत के कामों का जरिया है। गुरुग्रन्थ साहिब में कहा गया है 'जो तुझ भावे सोई भली कार' और रामचरितमानस भी यही कहती है, 'होइहि है सोई जो राम रचि राखा'।
"फिर कुदरत हमसे ऐसे काम क्यों करवाती है। क्यों बेटे की मौत का कारण मुझे बनाया।" - यादवेंद्र फूट फूटकर रोने लगा।
"हम उसके खेल को क्या जानें?" - रमन ने यादवेंद्र की बात पर प्रतिक्रिया नहीं दी, लेकिन यादवेंद्र आज अपने सब गुनाहों को कबूलना चाहता था, इसलिए बोला, "क्या तुम यह जानना नहीं चाहोगी कि मैं अपने बेटे का कातिल कैसे हूँ।"
"अब जानकर क्या होगा। बेटा तो हम खो चुके।"
"पर मुझे बताना है कि चुनावों में मुझ पर लगे आरोप सच्चे थे। स्मैक बेचने का काम नेताजी के इशारों पर मैं ही करता था।"
"यह तो आपको तब सोचना चाहिए था, बुरे काम का नतीजा बुरा ही होता है।" - रमन अब भी सहज बनी हुई थी।
"एक और बात बताऊँ..." - यादवेंद्र ने कहा। दरअसल यादवेंद्र चाहता था कि रमन उससे लड़े, लेकिन रमन चुप थी।
"कहो।"
"रश्मि मेरी बेटी है।"
"जी।"
"तुझे कुछ बुरा नहीं लग रहा। मेरे किसी औरत से नाजायज संबन्ध थे, मैं स्मैक बेचता था, इन बातों से तुझे गुस्सा नहीं आ रहा।"
"कुछ वर्ष पहले अगर इन दोनों बातों में से किसी भी बात का पता चलता तो ज़रूर आता, लेकिन अब नहीं आ रहा।"
"पर क्यों?"
"मुझे नहीं पता, लेकिन अब लगता है कि हम महज खिलौने हैं, खेलने वाला कोई और है। जैसा वह ईश्वर चाहता है, वैसा ही हो रहा है।"
"नहीं है ईश्वर कहीं। अगर ईश्वर होता तो मुझे पहले ही सज़ा मिल जाती।"
"ईश्वर न गलत काम करने को कहता है, न सज़ा देता है।"
"बस तमाशा देखता है।" - यादवेंद्र गुस्से से बोला।
"ईश्वर का संबन्ध भौतिक जगत से नहीं, आत्मा से है, लेकिन हम ईश्वर को सिर्फ भौतिक चीजों से जोड़ते हैं। अगर कुछ बुरा होता है, तो तुरंत ईश्वर से हमारा विश्वास उठ जाता है या फिर हम उसे गालियाँ देने लगते हैं।"
"अगर कुछ बुरा होगा, तो ईश्वर के कारण ही होगा।"
"नहीं, अच्छा-बुरा तो जीवन का अंग है। अगर अच्छा ही अच्छा हो, तो जीवन कितना नीरस होगा। अच्छे के साथ बुरा है, इसीलिए यह जीवन जीने लायक है। ईश्वर तो इन चीजों से परे हमें अच्छा-बुरा सब करने की छूट देता है। वह न बुरा करने पर हाथ पकड़ता है और न सज़ा दिलवाने जमीन पर आता है।"
"मैं मानता हूँ कि जो कर्म हम करते हैं, उनका फल तो भुगतना ही होता है। मैंने अपने बुरे कर्मों का फल ही तो भुगता है, लेकिन मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि जो और बच्चे भी नशे के कारण मर रहे हैं, उनके माँ-बाप किस गुनाह की सज़ा भुगत रहे हैं।"
"मुझे नहीं लगता कि भगवान ऐसा करता है कि जो बुरा काम करे, उसे तुरंत सजा दे दी, जो अच्छा करे, उसे ईनाम दे दिया। आपने देखा होगा, बहुत से बुरे लोगों को कोई सज़ा नहीं मिलती, इसी कारण कुछ लोगों का भगवान से विश्वास उठ जाता है।"
"मैं कुछ समझा नहीं। तुम्हारी यह बात तो उन्हीं लोगों जैसी है, जो कहते हैं ईश्वर होता ही नहीं।"
"नहीं, उनसे बिल्कुल विपरीत है। जो नास्तिक हैं, उनकी सोच है कि अगर ईश्वर है, तो वह न्याय करे, लेकिन मैं कहती हूँ कि ईश्वर का भौतिक जगत से कुछ लेना-देना नहीं। इस भौतिक संसार में जो आया है, उसे मरना है। सुख-दुख भोगने हैं। बड़ी-बड़ी बीमारियाँ उनको भी हुई, जो भगवान के अवतार कहे गए, क्योंकि शरीर भौतिक जगत की वस्तु है और भौतिक चीज़ें इसे प्रभावित करती हैं। भौतिक जगत की सज़ाएँ और ईनाम भी भौतिक जगत के अन्य कारकों से निर्धारित होते हैं। ईश्वर का इनमें कोई हाथ नहीं।"
"जब ईश्वर का इस जीवन में कुछ हाथ ही नहीं, तो उसका होना-न-होना एक बराबर है।"
"ईश्वर का होना आत्मा के लिए महत्त्वपूर्ण है।"
"आत्मा को किसने देखा है?"
"आप जो पश्चाताप की आग में जल रहे हैं, यह आत्मा ही है। ईश्वर हर आदमी को आत्मा की जरिए सचेत करता है। कभी हम उसकी सुन लेते हैं, कभी नहीं। जो समय रहते सुन लेते हैं, वे गलतियों से बच जाते हैं और जो नुकसान उठाने के बाद सुनते हैं, वे पश्चाताप की आग में जलते हैं।"
"जो कभी नहीं सुनते?"
"जीवन के किसी-न-किसी मोड़ पर आत्मा सबको झकझोरती है, बस हमें लगता है कि दूसरे इस आग में नहीं जलते।"
"चलो इसको मान भी लें, तो यह बात तो समझ नहीं आती कि यशवंत को किस गलती की सज़ा मिली।"
"देखो, हमारे सामने एक मिठाई पड़ी है और एक कड़वी चीज़। अगर हमने मिठाई खाई तो मुँह मिठास से भरेगा और कड़वी चीज खाई तो कड़वाहट से। यशवंत ने संसार मे मौजूद अनगिनत चीजों को छोड़कर स्मैक को चुना, तो उसका नतीजा भुगता।"
"पर उसने स्मैक को ही क्यों चुना?"
"यह होश की बात है। जो काम हम होश से करते हैं, वह सही काम को चुनते हैं और जो बेहोशी से कार्य करते हैं, उससे सही भी चुना जाता है और गलत भी। यशवंत को होश नहीं था, इसलिए उससे स्मैक चुनी गई।"
"फिर ईश्वर का फायदा?"
"ज्यादा तो मुझे समझ नहीं, लेकिन जितना मैंने समझा है, ईश्वर का संबन्ध होश से है। हर पल का जागरण ही ईश्वर की भक्ति है। ईश्वर हमें जगाने के लिए है। वह जागकर कर्म करने के लिए कहता है, इसीलिए तो कृष्ण युद्ध को भी धर्म कहते हैं, क्योंकि जागकर हम कुछ भी बुरा नहीं कर सकते।"
"तो ईश्वर को यह होश सबको देना चाहिए। यशवंत को होश उसी ने देना था।"
"ईश्वर न होश देता है, न बेहोशी। वह दोनों चीज़ों में से किसी को एक को चुनने का मौका देता है। हम बेहोशी को चुनते हैं, तो ये हमारी गलती है।"
"जो बुरा हम कर चुके, उसका क्या हल है?" - यादवेंद्र धर्म की बहस को छोड़कर अपनी समस्या का समाधान चाहता है।
"जो तीर चल चुके, वे वापिस नहीं लौटते। हाँ, अतीत को भुलाकर वर्तमान को अच्छा बनाने का प्रयास किया जा सकता है। अब भी यह कोशिश की जा सकती है कि हम जो करें, उसे सजग होकर करें।"
"अब क्या हो सकता है। हम तो बेटे को खो चुके, हमारा बेटा तो वापिस आने से रहा।"
"हम तो अपना बेटा खो चुके, कोई और अपने बेटे को न खोये, इसके लिए प्रयास करके हम पश्चाताप तो कर सकते हैं। रश्मि ने वकील बनने का निर्णय इसीलिए लिया है। वह नशे के दानव से समाज को मुक्त करना चाहती है। आप तो नशे के धंधे की रग-रग से वाकिफ़ हैं। आप उसका साथ दीजिए। अपने गुनाह कबूल कर यहाँ आप अपनी आत्मा पर पड़े बोझ को हल्का कर लेंगे, वहीं नशे के कारोबार में लिप्त लोगों को पकड़वाकर समाज को नशे से मुक्त करवा सकेंगे।"
"क्या ऐसा हो सकता है कि मेरे गुनाह कबूलने से, मेरे गवाही देने से नशे का व्यापार बंद हो जाएगा।" - यादवेंद्र ने उत्सुकता से पूछा।
"क्या हो सकता है, यह सोचना हमारा काम नहीं, हम क्या कर सकते हैं, यही हमें सोचना होगा। फिर गीता कहती है कि कर्म करो, फल की इच्छा न करो।"
"अगर ऐसा है, तो मैं अपनी बेटी का साथ ज़रूर दूँगा। अगले वर्ष उसकी डिग्री पूरी हो जाएगी। वह पहला केस नशे के खिलाफ ही लड़ेगी।"-यादवेंद्र ने दृढ़ता से कहा। उसकी आँखों में अब निराशा की बजाए आशा की चमक थी।

क्रमशः