dream of open eyes in Hindi Short Stories by DINESH KUMAR KEER books and stories PDF | खुली आँखों का अधूरा सपना

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खुली आँखों का अधूरा सपना

* खुली आँखों का अधूरा सपना *


जब शादी कर के लाये थे
खुली आँखों से सपने दिखाए थे
की छोटा सा परिवार होगा “जिसमे
हम तुम और हमारा प्यार होगा"

ख़ुशी - ख़ुशी अपने बच्चो का पालन करेंगे
थोड़े में ही गुजारा करेंगे “क्यूँकी
सात फ़ेरों के बंधन ने है हमको बांधा
तुम अर्धांगिनी हो मेरी"
सारे जीवन का सहारा

तुम्हारी भी ज़िम्मेदारी उठाऊँगा
हर अरमान पूरे करूँगा
टूटने ना दूँगा कोई सपना “तुम्हारा
ऐसा प्रयत्न करता जाऊँगा “मग़र
अब ये सभी वादे तुम भूल चुके हो

अपनी ज़िम्मेदारी से मुँह फेर चुके हो
अपने तो सभी काम करवा लेते हो
मैं कुछ भी करने की कहूँ तो
बच्चो को सम्भालो अभी
ये कह कर टाल देते हो

ये कैसा फिर जीवन भर का साथ है
मेरी जिम्मेदारीयाँ तो पहली रात से ही
शुरू हो जाती है “ लेकिन
तुम्हारी ज़िम्मेदारियों की
कब और कहाँ से होती शुरुआत है

तुम पुरुष हो सोचते हो “ कि
बाहर काम करेगी तो
घर को भूल जायेगी “मगर
मैं नारी ज़रूर हूँ “कमजोर नहीं

तुम बाहर काम करके थक जाते हो “मग़र
मैं बाहर और घर में काम करने से कभी थकती नहीं

क्यूँ की “बाहर की दुनिया
मेरे सपनों की उड़ान है और
ये मेरा छोटा सा घर “मेरा सारा जहांन है
जिसमे मेरा दिल और मेरी आत्मा बसती है
मेरे बच्चे और तुम

फिर इस शादी का मतलब् क्याँ है
अर्धांगिनी बनने की ज़रूरत ही क्याँ है
जब स्त्री अपना सर्वस्व समर्पित कर देती है “तो

पुरुष क्यूँ ? अपना सर्वस्व स्त्री को सौपने में डरता है

उसके सपनों को पूरा करने में हिचकता है “फिर
ये कैसा सात जन्मों का रिश्ता है “जिसको
पहले जन्म में ही निभाने में ज़ोर पड़ता है

वो शेष के छह (6) जन्म कैसे निभा पाएगा
पूरा करने से पहलें भागता ही नज़र आएगा




आदेश कहाँ...! प्रार्थना विनत करती थी,

मैं भी ज्यों त्यों निज सुख ढूंढा करती थी,


मुझ जैसी भाग्य बली का भी क्या ही कहना,

मौसम कोई भी हो संघर्ष रहा गहना,


सारे तप, त्याग, समर्पण, अर्पण जितने भी थे,

तुम गुलाम की श्रेणी में रख भूल गए,


हममें-तुममें फ़र्क़ बना का बना रह गया,

तुम जो भी बाहें पाए... बस झूल गए,


उधर प्रतीक्षा में हम गोधूलि से रात...

रात से सूर्योदय काटे...

कैसे काटे मत पूंछो...

ख़ुद को कितनी करवट बांटे...


और तुम...! तुम केवल अनुमान लगाकर रूठे हो,

तुम वादों में, रिश्तों में सब तरह झूठे हो...

आदेश कहाँ...! प्रार्थना विनत करती थी,

मैं भी ज्यों त्यों निज सुख ढूंढा करती थी,


मुझ जैसी भाग्य बली का भी क्या ही कहना,

मौसम कोई भी हो संघर्ष रहा गहना,


सारे तप, त्याग, समर्पण, अर्पण जितने भी थे,

तुम गुलाम की श्रेणी में रख भूल गए ,


हममें - तुममें फ़र्क़ बना का बना रह गया ,

तुम जो भी बाहें पाए ... बस झूल गए ,


उधर प्रतीक्षा में हम गोधूलि से रात. ..

रात से सूर्योदय काटे ...

कैसे काटे मत पूंछो ...

ख़ुद को कितनी करवट बांटे ...


और तुम... ! तुम केवल अनुमान लगाकर रूठे हो ,

तुम वादों में , रिश्तों में सब तरह झूठे हो ...