pure of heart in Hindi Short Stories by DINESH KUMAR KEER books and stories PDF | मन से पवित्र

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मन से पवित्र

मन से पवित्र

एक बार देवर्षि नारद ज्ञान का प्रचार करते हुए किसी सघन वन में जा पहुँचे।

वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ी घनी छाया वाला सेमल का वृक्ष देखा। उसकी छाया में विश्राम करने का विचार कर नारद उसके नीचे बैठ गए।

नारद जी को उसकी शीतल छाया में बड़ा आनन्द मिला।

वे उसके वैभव की भूरि - भूरि प्रशंसा करने लगे।
उन्होंने सेमल के वृक्ष से पूछा- 'वृक्षराज! तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है।

पवन तुम्हें गिराता क्यों नहीं?'

सेमल के वृक्ष ने हॅंसते हुए कहा- देवर्षि! पवन का क्या सामर्थ्य कि वह मेरा बाल भी बांका कर सके। वह किसी प्रकार भी मुझे नहीं गिरा सकता।'

नारद जी को लगा कि सेमल अभिमान के नशे में ऎसे बचन बोल रहा है।

उन्हें उसका यह उत्तर उचित प्रतीत न हुआ। झुंझलाते हुए वे सुरलोक चले गए। सुरपुर में जाकर नारद ने पवन देव से कहा- 'अमुक वृक्ष अभिमान पूर्वक दर्प - वचन बोलता हुआ आपकी निंदा करता है, इसलिए उसका अभिमान दूर करना चाहिए।'

पवन देव को अपनी निंदा करने वाले सेमल के उस वृक्ष पर बहुत क्रोध आया।

वह उस वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े प्रबल प्रवाह के साथ आंधी तूफान की तरह चल दिए।

सेमल का वृक्ष बड़ा तपस्वी, परोपकारी और ज्ञानी था। उसे आने वाले संकट का बोध हो गया।

उसने तुरंत स्वयं को बचाने का उपाय कर लिया।

उसने अपने सारे पत्ते झाड़ डाले और ठूंठ की तरह खड़ा हो गया। पवन ने पूरी शक्ति से उसे उखाड़ने की चेष्टा की पर वह ठूंठ का कुछ न बिगाड़ सका।

अंत में निराश होकर पवन देव वापस लौट गए।

कुछ दिन बाद नारद जी उस वृक्ष की दशा देखने के लिए फिर उसी वन में पहुँचे।

उन्होंने देखा कि वृक्ष हरा - भरा ज्यों का त्यों खड़ा है।

नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ।

उन्होंने वृक्ष से पूछा- 'पवन देव ने तुम्हें उखाड़ फेंकने की पूरी शक्ति से कोशिश की, पर तुम तो ज्यों के त्यों खड़े हो। इसका क्या रहस्य है?'

वृक्ष ने देवर्षि को प्रणाम किया और नम्रतापूर्वक निवेदन किया-' देवर्षि! मेरे पास इतना वैभव है फिर भी मैं इसके मोह में बंधा नहीं हूँ।

लोक सेवा के लिए मैंने इतने पत्ते धारण किए हुए हैं, परन्तु जब - जब जरूरी समझता हूँ, अपने वैभव को बिना हिचकिचाहट के त्याग देता हूँ और ठूंठ बन जाता हूँ।

मुझे अपने वैभव पर गर्व नहीं है, वरन ठूंठ होने का अभिमान है। इसीलिए मैंने पवन देव की उपेक्षा की।

वे कर्म को श्रेष्ठ बता रहे थे। आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्म योग के कारण मैं प्रचण्ड टक्कर सहता हुआ भी पहले की भाँति खड़ा हूँ।

नारद जी समझ गए कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना बुरी बात नहीं है।

इससे तो बहुत - से शुभ कार्य हो सकते हैं। बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है।

यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे, तो एक प्रकार से साधु ही है। जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले ऎसे कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है।