भाग 29
"नही..नही.........तलाक नही आरिज़......" कह कर फिज़ा चीख पड़ी। उसने अपनें दोनों कानों पर हाथ रख लिये। वह तलाक के उस तमाचे की टीस को महसूस कर तड़प उठी।
एक ठंडी साँस लेकर उसने खुद को उस जहन्नुम सी यादों से बाहर किया।
उसे याद आया वह तो मायके में है। और सब कुछ खत्म हो चुका है। तलाक का तूफान और हमल गिरने का कहर दोनों ही उसकी जिन्दगी से गुजर कर एक बीता हुआ हिस्सा बन चुके हैं।
फिज़ा के चीखने की आवाज़ सुन कर शबीना दौड़ कर कमरें में आ गयी- " फिज़ा मत रो बच्ची, कितना रोयेगी? कितने आँसू बहायेगी? चुप हो जा। आज के बाद एक आँसू भी न देखूँ मैं तेरी आँख में।"
फिज़ा अम्मी से लिपट गयी- "अम्मी जान.....मेरा बच्चा?"
"जो नसीब में नही था भूल जा उसे। अब अपनी नई जिन्दगी शुरू कर आज से।" शबीना नही चाहती थी कि उसकी बच्ची अब और टूटे या मुरदार जिन्दगी जिये। उसने तय कर लिया था फिज़ा का हर हाल में साथ देगी उसकी हिम्मत को टूटने नही देगी। जब भी उसे जरूरत होगी वह उसके साथ खड़ी रहेगी। उसे एक नई जन्नत सी जिन्दगी जरुर नसीब होगी..या अल्लाह! रहम कर।"
नुसरत भी जब घर आती यही कहती- "माफ कर दे फिज़ा हमें, तेरी जिन्दगी को मेरे ही हाथों खराब होना था मेरी बच्ची।" सुन कर फ़िजा खामोशी अख्तियार कर लेती। कभी-कभी तो उसके दिल में आता कि कह दे- 'फूफी आपने क्यों नही बताया पहले? आप तो सब जानती थीं।' मगर फिर सब नसीब का खेला समझ कर चुप हो जाती। अब वह कोई दूसरा गुनाह करना नही चाहती थी। पहले ही जाने कौन से गुनाह की सजा भुगत रही थी।
मुमताज खान हमेशा कहते - "तुम अफ़सोस क्यो करती हो नुसरत? जो अल्लाह की मर्जी थी हो गया। वरना तुमनें तो अच्छा ही सोचा था।" इस बात को लेकर शबीना और खान साहब ने कभी भी नुसरत को नीचा नही दिखाया। बल्कि उसे मुतमईन करने के लिये भरभस कोशिश की ताकि वह अपने पशेमान से बाहर निकल सके।
पूरे दस दिन बाद फिज़ा थोड़ा सा मुस्कुराई थी। उसके अब्सार के आँसू सूखे थे। उसने आज अमान से फोन पर खूब सारी बातें की अमान ने उसे बहुत समझाया और ये भी कहा कि- 'जिन्दगी चलने का नाम है, आपा आगे बढ़ो, अपने बारें में सोचो, खुद से प्यार करो, जाओ घर से बाहर निकलो थोड़ा घूम कर आओ।' फिज़ा ने उसकी सारी बातों को मान लिया और उस पर अपनी रजामंदी भी जताई। इसीलिए खान साहब ने बाहर घूमने का प्रोग्राम बना लिया था। यही सोच कर, बाहर निकलेगी तो थोड़ा दिल बहल जायेगा। अमान बिल्कुल सही कह रहा है। हमारा रोज़-रोज़ बात-बात पर झगड़ने वाला भाई बाहर रह कर कितनी जल्दी बड़ा हो गया है? कितनी समझदारी की बातें करने लगा है? उन्हें आज अमान पर बहुत नाज़ हो रहा था।
बड़े दिनों बाद या यूँ कहें माहौल को हल्का करने के लिये बाहर घूमने का प्रोग्राम बन गया था। यह तय हुआ था कि फिज़ा ,शबीना के साथ नुसरत भी जायेगी। उसने बचपन में एक कहानी सुनी थी कि अकेली लकड़ी ज्यादा देर नही जला करती है। पूरा परिवार अगर इकट्ठा खुशिओं को बाँटेगा तो खुशिओं में चार चाँद लग जायेंगे।
आगे की सीट पर फिज़ा अपने अब्बू जान के साथ बैठी थी। नुसरत और शबीना पीछे बैठी थीं। वह चाहते थे इस बहाने बेटी का रुझान बाहर रहेगा और वह पीछे गुमसुम नही बैठी रहेगी। उन्होनें फिज़ा से ड्राइविंग करने के लिये कहा था, लेकिन उसने मना कर दिया था- "अब्बू जान अभी ड्राइविंग को लेकर मेरा यकीन पुख्ता नही है।" खान साहब ने मुस्कुरा कर उसका हौसला बढ़ाया।
करीब दो घण्टें यूँ ही घूमने के बाद उन लोगों ने डिनर बाहर ही किया। इस बीच फिज़ा रोज से कुछ मुतमईन दिखाई दी। वह लोग भी यही तो चाहते थे।
ऐसे ही अक्सर घर के बाहर घूमने निकलते तो फिज़ा का दिल बहल जाता था। कितना अच्छा सुझाव अमान ने उन्हे दिया था। बेशक वह अपनी आपा फिज़ा से बहुत दूर बैठा था मगर उसे उसकी चिन्ता सताती रहती थी। दोनों बहन -भाई घण्टों फोन पर बातें करते रहते और अमान हमेशा उसे हौसला देता रहा था।
फिज़ा के तलाक को पाँच महीने हो गये थे। शबीना को अन्दर ही अन्दर फिज़ा का गम सताने लगा था। क्या होगा आगे? जमाना बड़ा ही खराब है। तलाक शुदा औरत पर लोग फितरे कसने से बाज नही आते हैं? फिर भी उसने ये बात फिज़ा पर कभी जाहिर नही होने दी। ऊपर से उसने हमेशा उसकी हिम्मत बढ़ाई। मगर बेटी का गम उसकी अम्मी ही जानती है। नाज़ो से पाली हुई दुख्तर का ज़ख्म देखा नही जाता। पर किस्मत के आगे किसकी चली है?
नुसरत आज सुबह-सुबह ही भाई के घर आ गयी थी। उसका बेसाख़्ता आना और वह भी इतनी सुबह, कुछ अजीब तो था मगर खान साहब को पूछना अच्छा नही लगा- 'क्या सोचेगी वह? वालदेन नही रहे तो क्या मायका भी पराया हो गया, जहाँ आने से पहले सोचना पड़ेगा?'
उन्होनें इंशा की नबाज़ अदा की। उसके बाद नुसरत की तरफ मुखातिब हुये- "नुसरत नाश्तें में क्या खायेंगी आप?" उन्होनें नुसरत के चेहरे के तास्सुरात देख लिये थे और ये भी समझ लिया था वह किसी परेशानी में हैं। इसीलिए उसे पहले मुतमईन करना बहुत जरूरी था।
नुसरत को ज्यादा सब्र नही हुआ। वह जिस मकसद से आई थी उसे पूरा करना भी जरूरी था। उसने आस-पास देख कर तसल्ली की, कि फिज़ा वहाँ नही है। मुफीद वक्त देख कर बोली- "भाई जान, उन लोगों ने आरिज़ का रिश्ता तय कर दिया है। वो लोग अपने शहर के ही हैं। और अपनी वकफ़ियत के हैं।" इतना कह कर नुसरत खामोश हो गयी।
उन लोगों की उरियां के अस्बाब से खान साहब का खून खौलने लगा। "लाहोलबकूबत.... हमारी बेटी की जिन्दगी से खेल कर वो ऐसा कैसे कर सकते हैं?"
"भाई जान, इससे पहले हैदराबाद की कोई लड़की देखी थी जिसका नाम रानी था। सुना है उसने खुद ही रिश्ते से इन्कार कर दिया। शायद फिज़ा से उसकी फोन पर बात भी हुई थी। और फिज़ा ने उससे तलाक न होने की बात कह दी थी। उस वक्त तक तो तलाक हुआ भी नही था। वो लोग फिज़ा को ही इसका इत्तिहाम दे रहे हैं।"
जब से फिज़ा का तलाक हुआ था नुसरत दिल ही दिल में टूट सी गयी थी। अपने इस शर्मिंदगी के अहसास से वह बाहर आना चाहती थी। कुछ ऐसा करना चाहती थी जिससे उसके दिल का बोझ कुछ हल्का हो सके। आखिर फिज़ा की जिन्दगी को बर्बाद करने में उसका भी हाथ था। हलांकि उसे पहले से नही पता था कि वह लोग इतने गलीच किस्म के हैं।
"हम भी देखते हैं कैसे होता है ये निकाह? हम भी किसी से कम नही हैं। आखिर समझ क्या रखा है उन लोगों ने हमें?" मुमताज खान गुस्से से आग बबूला हो रहे थे। इतना गुस्सा तो उन्हे तलाक की खबर सुन कर भी नही आया था। जितना आज आ रहा था। दर असल उस वक्त गुस्से से ज्यादा वो गमज़दा थे ।
फिज़ा ने नुसरत फूफी और अब्बू जान की सारी बातें सुन लीं थीं। उसने बेसाख़्ता अपने गालों पर बहते हुये आसुँओं को पोछ डाला। और फिर कभी न बहने की हिदायत भी दे दी उनको। उसने दिल ही दिल में एक फैसला ले लिया था। जिन्दगी हारने का नाम नही है। हारने वालों को सिवाय अहज़ान के कुछ नही मिलता। आँखें आँसुओं से भरी रहती हैं। और तमाशवीन ज़ख्म कुरेदते हैं तालियाँ बजाते हैं। सामने कुछ, और पीछे कुछ और होते हैं। दो चश्म चेहरे जिन्दगी भर पीछा नही छोड़ते, बेशक हादसें छोड़ दें। लानत है ऐसी जिन्दगी पर। हमें जिन्दगी को काटना नही है जीना है।
क्रमश: