भाग 28
पूरे तीन दिन के बाद आज किचिन में भाभी साहब दिखाई दीं। वह रोज की तरह बच्चों का टिफिन बना रही थीं। खुशी के मारे वह उछल पड़ी जैसे कोई निआमत मिल गयी हो। सुख के लम्हों को गुजरने में वक्त नही लगता मगर दुख की एक भी घड़ी काटे नही कटती। फिज़ा लपक कर किचिन की तरफ पहुँच गयी और जाकर सीधा शिकायती लहज़े में पूछ लिया- "भाभी साहब, हमसे कोई गुस्ताखी हुई है क्या? क्यों बात नही कर रही आप हमसे? बताइये न..?"
अफसाना गुमसुम सी काम करती रही। उसने न तो फिज़ा की बात का जवाब ही दिया और न ही उसकी तरफ नज़र उठा कर देखा। लग रहा था जैसे वह पहले से इस बात के लिये तैयार थीं।
उसकी घुटन और बढ़ गयी। इस एक लम्हें में एक हजार भयानक ख्याल उसके सामने आ चुके थे।
फिज़ा ने उनके नज़दीक जाकर उनके कन्धे पकड़ कर अपनी तरफ मोड़ लिये- "भाभी साहब, आपको मेरी कसम, बोलो न प्लीज...मैं मर जाऊँगी, इन दो दिनों में हम पागल से हो गये हैं। हमें कुछ भी अच्छा नही लग रहा है। हम क्या करे भाभी ? आप ही बताओ? यहाँ कोई कुछ बताता ही नही?"
"अफस़ाना ने बात का रुख बदलते हुये कहा- "दुल्हन आप परेशान न हों। हम वादा करते हैं आपको सब बता देगें। बस हमारी दो शर्त है, पहली ये, आप किसी को नही बतायेंगी कि हमारी आपकी क्या बात हुई है।"
फिज़ा चहक उठी। उसने जल्दी से हाँ कर दी और आँखों में उम्मीद जाग उठी। उसने जल्दी से वादा भी कर दिया- "आपकी कसम भाभी साहब, हम किसी को कुछ नही बतायेगें।"
"ठीक है फिज़ा, और हमारी दूसरी शर्त है कि आप हमारे साथ आज डाक्टर के यहाँ जा रही हैं। हमें पता लगा है आप हामिला हैं। ऐसे में डाक्टर को फौरन दिखाना चाहिये। उसके बाद ही हम आपको सारी बात बता देंगें।"
"मंजूर है भाभी साहब सब मंजूर है।" फिज़ा ने उजलत में कहा। मजबूरन फिज़ा को उनकी दोनों शर्तें माननी पड़ी। उसने अफ़साना के गाल को चूमते हुये कहा- "लव यू भाभी साहब"। बदले में उन्होनें फीकी मुस्कान बिखेर दी। बेशक वह मुस्कुराई थी लेकिन यहाँ पर मुस्कुराने का मतलब खुश होना कतई नही था, बस माहौल को संभालने का तरीका भर था।
उसी रोज शाम को अफ़साना उसे डाक्टर के यहाँ ले गयी थी।
"मुबारक हो दुल्हन! आप हामिला हैं।" डाक्टर के यहाँ से निकलते ही अफ़साना ने कहा। मगर अगले ही लम्हा उसकी सारी खुशी काफूर हो गयी। आम तौर पर ऐसे मौकों पर मुबारक बाद दी ही जाती है बेशक उसने भी दी थी लेकिन वो जानती थी ये खुशी लम्बें वक्त तक नही टिकेंगी।
पहले बार में तो फिज़ा लजा गयी, फिर बेसाख़्ता कल की बात याद आते ही उसकी सारी खुशी और हया हालात के गर्द में समा गयी। वह उदास हो गयी। बेशक इस खबर ने उसे एक नई दुनिया में पहुँचा दिया था। मगर उसे कुछ अच्छा नही लग रहा था दिल की उथल-पुथल बरकरार थी। वह लगातार अपने दुपट्टे का सिरा हाथ से मरोड़ रही थी जैसे वह उसे कोड़े की शक्ल देना चाहती हो। अफ़साना भी उसकी बेचैनी समझ रही थी। इसलिये अब उसने देर करना सही नही समझा।
अफ़साना जैसे-जैसे उसे सब बताती जा रही थी उसके होश उड़ते जा रहे थे। उसके चेहरे के उड़ते हुये रंगों को देख कर एक बारगी तो अफ़साना भी सहम गयी। आरिज़ दूसरा निकाह कर रहे थे वो भी घर में सभी की रजामंदी से। फरहा भाभी की एक-एक बात सच साबित हो रही थी। अफ़साना ने सफाई भी दी- "हमें गलत मत समझये फिज़ा, हमारी खता तो बस इतनी सी है कि हमें साथ में जाना पड़ा। चूकिं वह लड़की रानी हमारे मायके के पड़ोस में ही रहती है और हमारे वकफियत की है। अब्बू जान का हुक्म था तो हम कैसे टालते? वैसे भी हमारी कितनी कद्र है यहाँ? ये तो आप जानती ही हैं।" अपनी बेकद्री की खबर किसी दूसरे को सुनाना कितना मुश्किल और दर्दभरा होता है ये तो वह ही जान सकती थी वह भी अपने से छोटे के सामने।
फिज़ा की आँख से टप-टप आँसू गिरने लगे उसने अपने पेट पर हाथ रख कर बच्चे को महसूस किया। उसके बाद वह बेजान सी हो गयी। अफ़साना ने उसे संभालते हुये खुद से लिपटा लिया और सब्र रखने को कहा। सब्र वह किस बात का दे रही है ये तो उसे भी नही पता था।
फिज़ा वहीं बैठ कर जी भर रो ली।
दो महीने गुजर गये। खुले तौर पर आरिज़ के दूसरे निकाह की बात घर में नही हुई थी। अफ़साना को भी आगे की कोई खबर नही थी। फिज़ा ने भी ये बात अपने वालदेन को नही बताई। जबकि बीच में वह दो दिन के लिये अपने मायके रह कर आई थी। फिर भी वह खामोश रही। शबीना ने कई बार उसके गमज़दा रहने का अस्बाब जानना चाहा। मगर वह टाल गयी, जैसे ज्यादातर बेटीयाँ करती हैं। क्यों कि उन्हें गमों को छुपाना और बेबजह मुस्कुराना सिखाया जाता है।
फिज़ा गुमसुम सी रहने लगी थी। सारा दिन अपने कमरें में बन्द रहती। निकाह को एक बरस होने जा रहा था और उसका हमल भी चार महीने का हो गया था। इस बीच कई बार आरिज़ ने उस पर हाथ भी उठाया। ये जानते हुये भी वह हमल से है। बजह उसने कभी नही बताई। छोटी-छोटी बातों को लेकर जैसे उसे बहाना चाहिये था। जब भी फिज़ा ने कोई ऐसा सवाल किया जिसका जवाब उसके पास नही था तो उसका जवाब उसने मुँह के बजाय हाथ से दिया। इतनी बहशीयाना जुम्बिश से उसकी जिन्दगी जहन्नुम बन गयी थी। फिज़ा का गुनाह बस इतना था कि वह अफ़साना के तरह नही थी। ह़क के लिये बोलना और आवाज़ उठाना आता था उसे।
शादी को करीब एक बरस होने वाला था। आज की सुबह बड़ी मनहूस सी थी मन उदास था। आरिज़ के मोबाइल में घण्टी बजी। फोन फिज़ा ने उठा लिया। बस यही उसकी जिन्दगी का बहुत बड़ा गुनाह हो गया था।
उधर से किसी लड़की की आवाज़ सुनाई दी- "हैलो आरिज़, आप बोलते क्यों नही?"
"आप कौन हैं?" फिज़ा ने निहायत ही डरे हुये लब्जों में कहा।
"आरिज़ हमारे होने वाले शौहर हैं और हम रानी हैदराबाद से।" उसने बड़े ही बेवाकी से कहा।
उसके पैरों तले जमीन निकल गई, " हम आरिज़ की बीवी हैं।" फिज़ा ने बोलने में अपनी सारी हिम्मत लगा दी थी।
"अरे, वो तो बता रहे थे कि तलाक हो चुका है?"
"नही, ये झूठ है। और हम हामिला भी हैं। ऐसे में तलाक मुमकिन ही नही है।" इतनी बात कह कर वह थर -थर काँपने लगी जैसे उसी ने कोई गुनाह किया हो। उधर से लगातार आवाज़ आ रही थी- 'आरिज़ ने हमसे झूठ क्यों बोला? बताओ...तुम सच बोल रही हो? आरिज़ आपने हमसे झूठ बोला..?' मोबाइल फिज़ा के हाथ से छूट कर जमीन पर गिर चुका था।
आरिज़ दरवाजे पर खड़ा सारी बातें सुन रहा था। वह गुस्से से पागल हो गया था। हम दोनों के बीच बहुत झगड़ा हुआ। उसे रानी के रूठ जाने का गम सताने लगा था। आरिज़ का खून खौलने लगा। फिज़ा ने उसका सारा बना बनाया खेल बिगाड़ दिया था। रानी और फिज़ा के बीच बातचीत बेशक हुई थी मगर खता फिज़ा की जरा भी नही थी। उसने कुछ भी झूठ नही बोला था, इससे क्या? फिज़ा के अस्बाब से उसके ख्याबों का महल तो ढह गया था जिसकी खुन्नस उसने निकाल ली थी।
आरिज़ आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ रहा था और फिज़ा उतना ही पीछे हट रही थी। वह गुस्से से आग बबूला था। उसकी आँखों से शोले निकल रहे थे। फिज़ा उसे अपनी दुश्मन नज़र आने लगी थी। वह जोर-जोर से चीखने लगा। फिज़ा की आँख से सिर्फ आँसू बह रहे थे बाकी पूरा जिस्म बुत बन गया था। बस फिर अगले कुछ ही मिनटों में उस बुत पर तीन अल्फ़ाजों का प्रहार हुआ और वह बुत बना जिस्म उन तीन अल्फ़ाजों से ढह गया।
क्रमश: