Yugantar - 31 in Hindi Moral Stories by Dr. Dilbag Singh Virk books and stories PDF | युगांतर - भाग 31

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युगांतर - भाग 31

यूँ तो हर नेता यही कहता है कि वह सेवा के लिए राजनीति में आया है, लेकिन ऐसा होता नहीं, क्योंकि सेवा तो निष्काम भाव से की जाती है, जबकि नेताओं में पद प्राप्ति के लिए मारामारी होती है। चुनाव जीतने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपनाए जाते हैं। अगर मकसद सेवा हो तो जीत की भी क्या ज़रूरत? सेवा तो हार कर भी हो सकती है, लेकिन हार कर पद नहीं मिलता, पॉवर नहीं मिलती और इसी पद-पॉवर के लिए हर कोई राजनीति में आता है। चुनाव में जीतना तो बाद की बात है, पहले चुनाव लड़ने के लिए पार्टी का टिकट चाहिए होता है। पार्टी के लिए भी वर्क तो बहुत से वर्कर करते हैं, लेकिन टिकट किसी एक को मिलती है, इसलिए पार्टी के भीतर भी टिकट के लिए धींगामुश्ती चलती रहती है और इसी कारण कुछ नेता पार्टी बदल लेते हैं। 'जन मोर्चा पार्टी' का गठन भी कुछ ऐसे ही हुआ था।
चुनाव के दिनों जब टिकट बाँटने की प्रक्रिया शुरू हुई तो इस बार शंभूदीन को टिकट दिए जाने पर आपत्ति हुई। शंभूदीन पिछला चुनाव हार चुका था। ताकत पाए हुए हर नेता की कोशिश होती है कि उसका विकल्प पैदा न हो, इसीलिए राजनीति में पक्की दोस्ती नहीं होती। जब दोस्त भी बराबर का दावेदार बनने लगे तो उसके पर काट दिए जाते हैं। शंभूदीन ने भी पूरी कोशिश की हुई थी कि किसी को इतनी पॉवर न मिले कि वह अपने आपको उम्मीदवार के रूप में पार्टी अध्यक्ष के सामने प्रस्तुत करे, लेकिन शंभूदीन की पास रहकर भी कुछ वर्कर अपनी खिचड़ी पका रहे थे, इसका पता उसे तब लगा, जब पार्टी अध्यक्ष के पास यह सूचना भेजी गई कि सभी वर्कर शंभूदीन पर सहमत नहीं, इसलिए महेंद्र यादव को टिकट दिया जाए। इसके लिए जातिय समीकरण भी बैठाया गया था कि इस विधानसभा क्षेत्र में यादवों के काफी वोट हैं और अभी तक किसी भी पार्टी ने यादवों को टिकट नहीं दी, इसलिए अगर 'जन उद्धार संघ' यादव को टिकट देगी, तो जीत आसान हो सकती है। शंभूदीन अपने खिलाफ हुए षड्यंत्र से हैरान था, क्योंकि पिछले चार प्लान से वह निर्विरोध इस इलाके का नेता बना हुआ था, लेकिन राजनीति इसी का नाम है। आप जरा से लापरवाह क्या हुए, बाजी पलट जाती है, लेकिन शंभूदीन ने काफी भाग-दौड़ करके टिकट तो बचा ली, लेकिन पार्टी के भीतर ही जो विरोध पैदा हो चुका था, उससे हुए नुकसान की भरपाई होनी अभी बाकी थी। शंभूदीन ने सभी नाराज़ वर्करों को बुलाया। उनके गिले-शिकवे सुने और आश्वासन दिया कि उनको पूरी अहमियत दी जाएगी। उन्होंने साथ देने की सौगंध भी खाई, लेकिन सौगंधों की राजनीति में कितनी अहमियत है, यह शंभूदीन भली-भांति जानता था, इसलिए अंदर से भयभीत था और उसने अपने कुछ विश्वसनीय वर्कर इन लोगों के पीछे लगा दिए थे। दूसरी तरफ 'लोक सेवा समिति' ने युवा शक्ति को महत्त्व देने के लिए सिद्धार्थ जैन उर्फ सन्नी को वोट दी थी। हालांकि 'लोक सेवा समिति' दूसरी पार्टियों पर भाई-भतीजावाद का आरोप लगाती रही है, लेकिन महेश जैन की जगह जब किसी युवा को टिकट देने की बात आई तो उनको भी सिर्फ सन्नी नजर आया। वैसे सन्नी की इलाके में पकड़ मजबूत थी और यह इसलिए नहीं थी कि सन्नी बहुत अच्छा व्यक्ति था, बल्कि उसकी पकड़ का कारण विधायक का बेटा होना ही था। अक्सर परिवार में टिकट दिए जाने का यही कारण होता है, क्योंकि विधायक तो विधानसभा में चला जाता है। पीछे से कार्य दूसरे वर्कर को करना होता है। अगर विधायक काम करने का अधिकार अपने परिवार से बाहर देता है, तो वह व्यक्ति उसका प्रतिद्वंद्वी बन जाता है, इसलिए परिवारवाद को बढ़ावा देना नेताओं को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए ज़रूरी है। शंभूदीन के परिवार का कोई भी व्यक्ति सक्रिय राजनीति में नहीं था, इसलिए वह यादवेंद्र पर विश्वास करता था, क्योंकि उसे पता था कि यादवेंद्र में इतनी क्षमता नहीं कि वह विधायक की टिकट माँग सके और फिर उसे नशे के धंधे में लगाया ही इसलिए था कि उसके गैरकानूनी कार्यों के कारण वह नियंत्रण में रहे, लेकिन उसकी तमाम कोशिशों के बावजूद महेंद्र यादव ने उसके खिलाफ सिर उठा लिया था।
यूँ तो कई दल चुनाव लड़ रहे थे, कुछ आज़ाद उम्मीदवार भी थे, जिनमें 'जन मोर्चा पार्टी' और नया बना दल 'जन चेतना मंच' प्रमुख थे। 'जन मोर्चा पार्टी' का इस विधानसभा क्षेत्र पर विशेष प्रभाव नहीं था, जबकि 'जन चेतना मंच' अभी राजनीति में उतरा ही था। 'जन चेतना मंच' भले नया था, लेकिन वह युवाओं को अपने साथ जोड़ रहा था। राज्य में चल रहे नशे के धंधे और भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाए हुए था, फिर भी चुनाव में शंभूदीन का सीधा मुकाबला सन्नी से ही था, लेकिन पार्टी के भीतरघात ने उसकी स्थिति को नाजुक बनाया हुआ था। शंभूदीन एक ही समय दो मोर्चों पर लड़ रहा था। एक तरफ विपक्ष से और एक तरफ भीतरघात से। भीतरघात उसे ज्यादा नुकसान पहुँचा रहा। यादवों के वोट, जो उनकी पार्टी के पक्के वोट थे, वे पार्टी से दूर जाते दिख रहे थे। शंभूदीन ने पैसे और शराब से वोट खरीदने चाहे, लेकिन 'जन चेतना मंच' का यह कहना कि जो कोई आपको कुछ भी दे ले लो, मगर वोट मर्जी से डालो, कोढ़ में खाज बना हुआ था।

क्रमशः