कुछ मुलाकातों की भी अपनी ही एक अलग किस्मत होती है जो एक तय मुकाम पर ही आकर रुकती है ।
ऐसी मुलाकातें जाने कब, कहां और कैसे हो जाएं, ये न तो हम जानते है और न ही वो जो इससे होकर गुजरते है पर हां एक बात तो हमेशा तय रहती है कि इन्हे चाहकर भी भुलाया नही जा सकता और कोई चाहे जितना अपने जेहन से झगड़ ले पर दिल तो इन्ही मुलाकातों के पन्नों को बार-बार पलटता रहता है, भला जिद्दी जो ठहरा । ऐसी ही एक मुलाकात से आज राजीव भी गुजरने वाला था जो कॉफी शॉप पर बैठा, गर्मागर्म कॉफी की चुस्कियों के साथ अपने नोवॅल के अंतिम चैप्टर पर उलझा पड़ा था । बार-बार शब्दों से उलझते हुए उसकी अंगुलियां लेपटॉप के डिलीट बटन पर आकर रुक जाती और फिर न चाहते हुए भी स्क्रीन पर उभरे शब्द एक-एक करके गुमनामी की दुनिया में विलीन हो जाते । सांसो में घुलती कॉफी की सुगंध, रह-रहकर उसके दिलोदिमाग को मुग्ध कर जाती । आस-पास बैठे लोगो की गुफ्तगू से अनजान, वो अपने ही मन की गलियों में अपनी कहानी के किरदारों के साथ खोया हुआ सा था । कुछ सूझता तो झट से उसकी अंगुलियां लेपटॉप पर चल पड़ती पर वही अगले ही पल अपने ख़यालों से झगड़कर वो फिर उलझ जाता । क्या इस कहानी का कोई अंत है भी ? उसने पूछा खुद से और जवाब उसकी खामोशी ने दिया । यूं ही बैठे-बैठे पल, घंटो में तब्दील हो गए और टेबल पर कॉफी के कप की तादाद भी एक से ज्यादा होती गई । शायद आज उसका दिन ही नहीं था या फिर वो कहानी ही उससे रुठ चली थी । शायद सुनने में अटपटा जरुर लगे पर राजीव तो यही मानता था कि हर कहानी की अपनी एक रुह होती है जो किसी दिन चुपके से आपके दिलोदिमाग में आ बैठती है और एहसासो व कल्पनाओं के जरिए आपसे बात करने लगती है । ये पनपता एहसास ही शब्दों के जरिए हमारे कलम के सहारे कागज़ पर आ उतरता है । कहानी ही ये तय करती है कि उसे कब, कहां और कैसे खत्म होना है । उसे लिखने वाला तो बस एक जरिया है । अलग नजरिया था राजीव का हर चीज़ को देखने का और शायद यही कारण था कि इस दौड़ती-भागती नौ से सात बजे की जिंदगी से ज्यादा उसे अपनी कहानियों की दुनिया में रमना ज्यादा पसंद आया ।
”उफ्फ” राजीव ने मुहं से एक ठंड़ी सांस छोड़ी और हाथों को अपने सिर के पीछे बांधते हुए कुर्सी पर ऊंघने लगा। वही पास के शीशे से सड़क पर दौड़ती गाड़ियों को देखते हुए उसने अपने ठहरे हुए ख़यालों को भी रफ्तार देने का प्रयास किया पर अफसोस वो नाकाम रहा । कॉफी का आखिरी कप भी खत्म हो चुका था और शॉप के मालिक की तिरछी निगाहें बार-बार राजीव को घूरती जा रही थीं जो शायद ये सोच बैठा कि कहीं राजीव ने यही रहने का इरादा तो नहीं कर लिया । खैर, राजीव भी उसके अंदेशे को जल्द ही भांप गया और लेपटॉप बंद करके वो उठने ही वाला था कि अचानक शॉप के दरवाजे पर अनजान कदमों की आहट हुई और राजीव की नजरें खुद-ब-खुद उस ओर खिंची चली गईं । उस अजनबी की दस्तक कुछ यूं खास थी कि बाहर दुनिया का समां भी उसके आने पर करवटें बदल बैठा और काली बदरी आसमान से बरसने को बेताब हो उठी । हो सकता था शायद ये केवल एक इत्तेफाक हो पर राजीव के दिल की धड़कने भी तो बदलते मौसम की तरह इस पल बैचेन हो उठी थी । वो अर्चना है शायद, अरे हां वही तो है । राजीव का मन बेबाकी में चहक उठा । अपनी ठहरी निगाहों से राजीव उसे शॉप में दाखिल होता देख, मानो अपनी जगह जम सा गये । अगर उसके सीने में धड़कता दिल न होता तो कोई भी उसे एक बुत मान लेता । हां, वो वही थी । चांद सा दुधिया रंग था उसके चेहरे का, माथे पर एक छोटी सी लाल बिंदी भी थी जो उसके गोल चेहरे पर बेहद फब रही थी । हरे रंग की चटकीली साड़ी पहने, अपने दाएं हाथ से अपने उलझे बालों को संवारती, वो बाहर के बदलते मौसम से डरती, घबराती हुई सी कॉफी शॉप की छत के नीचे आसरा पाकर खड़ी हो गई । ये बारिश का डर उसे कबसे सताने लगा, राजीव ने सोचा । ये वही अर्चना थी न, जो कभी बारिश में यूं बाहें फैलाकर खड़ी हो जाया करती थी मानो उनका स्वागत कर रही हो और उन ढलकती बूंदो के बीच अपने भीगे होंठो पर भीनी मुस्कान लाकर ऐसे हंसती मानो बरसात ने कुछ कहा हो उससे । कितना कुछ बदल गया था शायद । वो पांच साल पुरानी बात थी । आज जो सामने थी, वो भी शायद उसी बदलते वक्त की रफ्तार में कही खोई सी लग रही थी । एक नज़र, उसे देखने के बाद राजीव ने चाहा कि अर्चना कभी उस तरफ न देखे जहां वो बैठा था और कही भूल से अगर वो उसे देख भी ले तो वो उसे पहचान न पाए । वो भी तो बदल चुका था न । कॉलेज की यादें , आज की मटमैली सच्चाई की वजह से कही धुंधली न पड़ जाए शायद यही सोचकर वो चाहकर भी उसे पुकार न पाया । पर वो उठकर वहां से जा भी तो नहीं सकता था, वो वही खड़ी थी, दरवाजे के पास , मौसम के थमने के इंतजार में । पल-पल उठती उसकी निगाहे दरवाजे से आसमां को ताकती और गड़गड़ाते बादलो की धमक पाकर वो हताश हो जाती । कही पहुंचना था उसे शायद पर कहां ? सांवले मौसम की रोशनी में उजला सा उसका चेहरा क्या किसी से मिलने की बेबसी में उलझा था ? आखिर ऐसी कौन सी मंजिल थी या ऐसा कौन सा शख्स था जो इस पल उसके लिए इतना महत्त्वपूर्ण था ? राजीव के जेहन पर मंड़राते सवालो की जमात तो जैसे पल-पल बढ़ती गई और उन्हे जैसे-तैसे थामते हुए राजीव ने वापस अपना लेपटॉप खोल लिया और उसके पीछे मुहं छिपाए , ब्लैंक स्क्रीन को ताकने लगा । कुछ ही पल बीते थे कि बारिश की बूंदे उन काले बादलो से आजाद होकर जमीन पर मोतियो के समान बरस पड़े । रिमझिम करती बूंदे शीशो से टकराकर उन पर अनगिनत लकीरे खींचते चले गए । राजीव भी उनकी दस्तक को नजरअंदाज न कर पाया और बाईं ओर नजरें फेरकर शीशे से बाहर की दुनिया को धुंधला होता देखता रह गया । तभी पास ही कहीं कोई हलचल हुई । किसी ने कुर्सी खिसकाई थी शायद । न चाहते हुए भी राजीव ने लेपटॉप के बगल से अपनी गर्दन निकाली तो उसने थोड़ी सी दूरी पर दो टेबल छोड़, तीसरी टेबल पर अर्चना को बैठा पाया । अकेली सी, गुमसुम सी वो, अपनी गुमराह निगाहों से कॉफी शॉप का मुआयना कर ही रही थीं कि राजीव उसकी गुजरती नजरों के दरम्यान, खुद को छिपाते हुए वापस लेपटॉप के पीछे छिप गया । बरसात के थमने के इंतजार में अर्चना ने एक कप कॉफी तक मंगा ली और राजीव बस यही सोचता रहा कि कैसे अब यहां से निकला जाए पर वहीं उसकी नज़रों से बचने की जद्दोजहद में राजीव ने ये भी पाया कि उसके मन का एक हिस्सा यहां ठहरकर उसे निहारना भी चाहता था, फिर चाहे पल, साल में और साल, सदियां ही में क्यो न तब्दील हो जाएं । आखिर क्यों ये एहसास पांच सालों के बाद भी अपनी फितरत न बदल पाएं और एक बार फिर वो चाहत उसके सीने मे उफान भरने लगी जिसे सालो पहले वो दफन कर चुका था । कॉलेज की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, इसका एहसास उन दोनो को कभी हुआ ही नहीं था, बस एक रोज़ ऐसी ही बरसात में राजीव ने अपने दिल की बात उसके आगे रख दी और अर्चना ने भी मुस्कुराते हुए उसके प्यार को स्वीकार कर लिया । शायद एक बचपना था उस दौर का या फिर उम्र की कोई शरारत जिसमें वो दोनों ही ठगे गए थे । कॉलेज के खत्म होते ही उन दोनों ने अपने रास्ते अलग कर लिए जहां राजीव ने अपने कैरियर को प्राथमिकता दी और वही अर्चना ने अपनी पढ़ाई को आगे जारी रखना चाहा । फिर वो दोनों कभी नहीं मिले । वक्त की बिसात पर बिछी उनकी जिंदगी फिर कभी एक जगह आकर नहीं रुकी पर न जाने क्यों आज भूले- भटके वो आज आमने – सामने आ थमी । सीने में उछलता राजीव का दिल तो अपनी मोहब्बत की गवाही उसे बार-बार दिए जा रहा था पर ये दिमाग था जो उसकी एक नहीं सुन रहा था । मन तो किया कि उठकर उसके पास टेबल पर जाए और उसे कुछ कहे और बदले में उसकी कुछ सुने । पर क्या ये मुमकिन था ? शायद नहीं ।