यशवन्त कोठारी
सर्वत्र हाथियों का साम्राज्य छाया हुआ है। सफेद हाथी, काले हाथी, पीले, नीले और हरे हाथी। कहीं अंधों के हाथी हैं तो कहीं अंधों हाथी के पाँव में सबका पाँव है तो कहीं हाथी गया गाँव-गाँव और हाथी गया ठाँव-ठाँव। मास्टर के घर हाथी आता है तो कोई देखने नहीं आता है, मगर प्रधान के घर हाथी आता है तो पूरा गाँव देखने आता है। गजराज की चर्चा क्यों न हो, आखिर वे सब जगह सब रूपों में दिखाई दे रहे हैं। विकास का हाथी, भ्रष्टाचार का हाथी, समस्याओं का हाथी, आतंकवाद का हाथी, पुलिस का हाथी, बलात्कार का हाथी, अपहरण का हाथी, सरकारी हाथी, गैर-सरकारी हाथी, स्वयंसेवी संस्थाओं के हाथी। किस्म-किस्म के हाथी चाररों ओर घूम रहे हैं, चर रहे हैं। देश और प्रजातंत्र को चला रहे हैं। कहाँ नहीं है हाथी। शिक्षण संस्थाओं में सफेद हाथी बैठे जुगाली कर रहे हैं। विश्वविद्यालयों में काले-पीले हाथी डोल रहे हैं। वे सूपड़े जैसे कान फड़फड़ा रहे हैं। कई स्थानों पर हाथियों का स्थान हथिनियों ने ले लिया है। ये गजगामिनी चाल से चल रही हैं। गजगामिनी चाल से चलती आज की सरकार किसी खटारा ट्रक के चलने का मजा देती है। हाथियों को पहचानना आसान नहीं है, क्यों कि अधिकांश पहचान करने वाले अंधे होते हैं, अंधों के हाथी की पहचान अलग-अलग होती है। कोई उसे कुछ समझता है और कोई कुछ और प्रशासन रूपी आकाश हाथियों के सिर पर ही रहता है और जनता रूपी धरती इन हाथियों के पाँव तले दबी रहती है। कब हाथी बेकाबू हो जाए और जनता को रौंद डाले। पगलाया हुआ हाथी साथी हाथियों , हथिनियों और बच्चा हाथियों तक को भी माफ नहीं करता। राजनीति के अरण्य में हाथियों के जमघट लगे हुए हैं। हर हाथी अपना अलग गुट रखता हैं और हर गुट सरकार में घुस जाता है। हाथियों के बाद बच्चा हाथी भी राजनीति में ही पाँव पसार लेता हैं। धीरे-धीरे हाथियों का समूह सरकार बना लेता है और ‘विकास-विकास’ चिल्लाने लग जाता है। विकास से निपटकर हाथी अपने लिए सुरक्षित स्थल खोजने में लग जाते हैं।
हाथियों के खाने के दाँत अलग और दिखाने के अलग होते हैं। कुछ समझदार सफेद हाथी केवल खाने के दाँतों का ही उपयोग करते हैं। वे दिखाने के दाँतों का प्रयोग केवल चुनाव के समय ही करते हैं। चुनाव समाप्त होते ही वे इन दाँतों को अंदर खींच लेते हैं और मुखौटे पहन लेते हैं। कभी-कभी मुखौटे के पीछे मानवीय चेहरा भी छुपा लेते हैं। योजना आयोग में हाथियों की फसल उगाने के नित-नए प्रयोग किए जाते हैं। कभी-कभी प्रशासन का हाथी गाँवों की ओर विकास का रथ लेकर निकल जाता है और गाँव-के-गाँव विकास से सराबोर होकर दुःखी हो जाते हैं। प्रशासन का हाथी कभी अकेला नहीं होता, उसके साथ हाथियों का पूरा झुंड होता है और वे पूरे-के-पूरे खेत, गाँव, खलिहान को खा जाते हैं, तहस-नहस कर डालते हैं। ये हाथी हवाई जहाज, हेलीकॉप्टरों , जीपों में घूमते हैं और सबका सर्वनाश करने पर उतारू रहते हैं। इन सफेद हाथियों के लिए बढ़िया कालीन बिछाए जाते हैं। सुस्वादु भोजन, विदेशी शराब, पाँच-सितारा होटल, कैबरे, बार गर्ल्स की व्यवस्था की जाती है। संसद् से सड़क तक रंग-रँगीले हाथियों का जादू चल रहा है। हाथी देखो और हाथ की सफाई भी देखो-इंजीनियर हाथी नहर खोदता है, डॉक्टर हाथी गलत ऑपरेशन कर देता है और कुछ शानदार हाथी तो राजभवन तक में घुस जाते हैं। जनता के ये प्रतिनिधि हाथी सब कुछ कर सकते हैं। मरने पर हाथी सवा लाख का हो जाता है। इन हाथियों को कौन अपने घर में बाँध सकता है। हाथियों के लिए चिड़ियाघर होते हैं, मगर ये हाथी तो सर्वत्र खुला विचरण करते हैं। बलात्कारी हाथी पुलिस को जेब में रखता है। कहता है, हाथी अपनी मस्ती में चलता है और कुत्ते भौंकते रहते हैं।
राजनीति का हाथी कभी-कभी साहित्य, संस्कृति और कला के क्षेत्र में घुस जाता है और सब कुछ तहस-नहस कर डालता है। अकादमियों में घुसे हाथियों को निकालने में कोर्ट भी असफल रहता है।
पत्र-पत्रिकाओं के संपादक तो स्वयं में एक मिसाल होते हैं। जब तक कुरसी पर रहते हैं, किसी को नहीं पूछते और कुरसी से हटते ही उन्हें कोई नहीं पूछता। यही स्थिति प्रशासनिक हाथियों की होती है। सेवानिवृत्ति के बाद श्रोताओं की तलाश में भटकते रहते हैं।
हाथी है तो समस्याएँ भी हैं, बल्कि कई बार तो हाथी स्वयं एक समस्या हो जाता है। हाथी समस्या पर चिंतन करते हैं। बड़े भवनों में ए.सी. कमरों में बैठ जाते हैं। छोटे हाथियों को नौकरी में रख लेते हैं और समस्या में से समस्या और उसमें से और समस्या पैदा करते हैं। हाथी देश की सबसे बड़ी अनसुलझी समस्या है।
आप पूछ सकते हैं, हाथी क्या है ? कैसा है ? कब तक इस देश को खाएगा? इससे बचने के क्या उपाय हैं ? तो बंधु, हाथी से बचना असंभव है। प्रजातंत्र का आकाश हाथियों पर ही टिका है। हाथी को पहचानिए। उसे नारियल खिलाइए, उसके रंग की तारीफ करिए। उसे सफेद हाथी के बजाए काम का काला, पीला, केसरिया या लाल हाथी कहिए। लाल हाथी कभी-कभी तिरंगे हाथी से मिल जाता है। हाथियों से त्याग-तपस्या की आशा मत करिए। त्याग-तपस्या हाथिययों के बस का नहीं होता है। वे तो पूजन-अर्चन के लिए हैं।
हाथी अंधे के लिए होता है और अंधे हाथियों के लिए होते हैं। हाथी कोई भी हो सकता है। मंत्री से लगाकर चपरासी तक या किसी का रिश्तेदार या आदिवासी नेता या फिर सिरफिरा बुद्धिजीवी।
बुद्धिजीवी हाथी ज्यादा खतरनाक होते हैं, लेकिन इनका आसान इलाज हथिनी हैं। वे गजगामिनी चाल से इन्हें मदमस्त कर अपना या दूसरे का काम बना सकती हैं।
हाथियों का वर्गीकरण रंगों के आधार पर तो किया ही जाता है, उन्हें उनकी चरित्रहीनता से भी जाना जाता है। स्वयसंवी संस्था का हाथी सरकार के खिलाफ चिंघाड़ता है और अुनदान लेकर चुपचाप अपनी खोल में चला जाता है। हाथी स्वयं सुबह समस्या पैदा करता है और सायंकाल कार्यालय बंद होने तक उस समस्या का स्वयं समाधान कर देता है। कभी-कभी हाथी बड़ा नाटक करता है। वह देश को एक रंगमंच समझ लेता है और हर तरफ से नाटक के संवाद बोलने लग जाता है। नाटक को वह नुक्कड़ नाटक में बदल देता है। हाथी संसद् तक में नाटक करता है। वह वेल में चला जाता है। हाथी क्या नहीं कर सकता ! सचिव हाथी मंत्री हाथी को मूर्ख बना सकता है। वह सरकारी संपत्ति को खुर्द-बुर्द कर सकता है। उसका कुछ नहीं बिगड़ता, क्यों कि हर हाथी की खाल काली, मोटी और खुरदरी होती है! हाथी सांस्कृतिक क्षेत्र को भी तबाह कर सकते हैं। हाथी क्या-क्या खा सकता है, यह रिसर्च का विषय है; बल्कि मैं तो कहता हूँ कि हाथी क्या नहीं खा सकता है ! सड़क, पुल, अस्पताल, बजट, सीमंट, कंक्रीट का जंगल, योजनाएँ, साहित्य, कला आदि सब कुछ खा जाता है। कई बड़े हाथी छोटे हाथिययों को खा जाते हैं और डकार तक नहीं लेते। हर गलती की जिम्मेदारी छोटे हाथी की होती है और बड़ा हाथी उसको कभी भी फँसा सकता है, जाँच करवा सकता है, उसे चार्जशीट वगैरह दे सकता है, उसे डिसमिस कर या करवा सकता है। आखिर वह बड़ा हाथी है, कोई मजाक थोड़े ही !
कभी-कभी हाथी अंधों के बीच आ जाता है। अंधे उसे देख नही सकते, मगर महसूस करते हैं। इन हाथियों से देश को बचाने के लिए गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए। समस्त राजकीय, अराजकीय, अनुदानित संस्थाओं , आगे आओ और इस हाथी को समझो। हाथी अध्ययन के लिए आवश्यक हो तो विदेश जाओ या विदेशों से अनुदान प्राप्त करो। हाथी अध्ययन हेतु विश्वविद्यालय में पीठ स्थापित करो तथा मुझे इसका अध्यक्ष नियुक्त करो। आओ हाथी, आओ ! मेरे घर में भी उजाला करो। आज की रात, कुछ देर के लिए ही सही, यह अँधेरा तो दूर हो। कल किसने देखा है ?
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यशवन्त कोठारी 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर-302002