भाग 27
पूरी रात फिज़ा ने आँखों में काट दी। वह रात भर जागी थी और रोई भी थी इसलिए उसकी आँखें सूज के कुप्पा हो गयीं थीं। पूरी रात कैसे कटी ये वह ही जानती थी। सुबह होते ही अम्मी जान से जाकर मिली और फिर से वही सवाल जाकर पूछा जो उसे रात भर खंजर की तरह चुभा था। और उसकी चुभन अभी भी बिल्कुल वैसी ही थी। मगर वह अभी भी चुप ही रहीं और ये जताया जैसे उन्हे उस बाबत कुछ नही पता है।
जब आप किसी अहज़ान से टूटे हुये हों और कोई इन्सान वहाँ पर ऐसा न हो जो आपको सहारा दे सके तो आदमी मर ही जायेगा न? ऐसे में उसके दिल पर क्या बीतती है ये वही जान सकता है। उसकी हालत न तो मरने में होती है न ही जीने में।
कई बार उसका दिल किया कि अपनी अम्मी से बात कर लें तो थोड़ा दिल हल्का हो जायेगा।
मगर फिर उसने यह सोच कर बात को टाल दिया कि पहले आरिज़ से बात कर लें। उसके बाद ही कोई फैसला लेगी। पहले ही कार वाली बात को लेकर अम्मी को रंज है। अब और नही।
और फिर अभी यह भी नही पता कि सच्चाई क्या है? उसने खुद ही अपने दिल को तसल्ली देने की कोशिश की।
आज की रात निहायत ही भारी कटी थी। पूरी रात बुरे ख्याल, बुरी बातें ही जहन में आती रहीं। न जाने कितनी बार उसने करबटें बदली होगीं? निकाह से लेकर अब तक का एक-एक लम्हा आँखों के आगे किसी फिल्म की तरह घूम रहा था। कैसे नुसरत फूफी के घर पर आरिज़ ने उसे प्रपोज किया था? कैसे वह उसे लगातार देखता ही रहा था? कैसे खामोश इज़हार किया था? क्या वो सब झूठ था?
क्या अस्बाब हो सकता है इस धोखे का? आरिज़ को उसका मज़लूम औरतों का साथ देना, उनके ह़क के लिये लड़ना पसंद नही था। जब से उसने ऐसी ही औरतों के लिये एन.जी.ओ. बनाया था आरिज़ खफा रहने लगे थे। उन्होंने एक बार कहा भी था- "रसूखे खानदानी दुल्हन की इस तरह की बेपर्दगी अच्छी नही है।"
फिज़ा ने उसको समझाने की कोशिश भी की थी- "ये शबाब का काम है, किसी की मदद करना। किसी को उसकी जिन्दगी जीने कि ह़क देना। मगर आरिज़ की जहनियत में औरत महज़ के खिलौने के माफिक थी। जिसे मर्द के नीचे ही रहना चाहिए। वही करना चाहिये जो मर्द को पसंद हो और उसका जुवान उठाना जुर्म की तरह है।
बेशक इस बात को लेकर उनके बीच दो चार बार कहासुनी भी हुई थी। मगर इसका मतलब ये नही था कि वह उसे धोखा दे देगा। ये तो शबाब का काम था। उसे लगा था देर सवेर वह समझेगा और इसमें उसे आरिज़ की मदद मिलेगी।
फ़ज्र की नमाज़ के साथ ही वह उठ बैठी। वह उठ तो गयी थी मगर बैड पर काफी देर गुमसुम सी लेटी रही।
फिर बेसाख़्ता ही उसने आरिज़ को फोन लगा लिया। रात भी कई बार कोशिश की थी उसने लेकिन बराबर नाॅट रिचेविल जाता रहा।
घण्टी लगातार जा रही थी। कई बार किया, मगर नही उठा। अब उसने अफसाना भाभी साहब के मोबाइल पर किया। तीन-चार घण्टी के बाद फोन बेशक उठ तो गया मगर बात नही हो पाई। बार-बार सिग्नल ड्राप हो रहे थे। उसने झुँझला कर मोबाइल पटका ही था कि दरवाजे पर आहट हुई।
दुपट्टा सिर पर डाल कर दरवाजा खोला मगर वहाँ कोई नही था। फिज़ा को सुहाग रात वाली बात याद आ गयी। उस रात भी यही हुआ था और अटैची भाई जान ने ही रखी थी ऐसा खुद भाभी साहब का ही शक था। वह थोड़ा घबरा गयी। इसलिये भी कि आज भाभी साहब भी नही है घर में। भाई जान अकेले होगें। उसे बहम होने लगा शायद रात में भी दरवाजे पर आहट हुई थी। मगर उसने नजर अन्दाज़ कर दिया था। न जाने क्यों वह अपने इद्राक से ऐसी कहानियां बना रही थी। मगर ये सच था। उसे लग रहा था ऐसा जरुर हुआ होगा। 'हाय अल्लाह! दरवाजा खुला छोड़ना कितना खतरनाक है?'
एक तो कम उम्र ऊपर से नाजो़ से पली बढ़ी फिज़ा बहुत ही कच्चे दिल की थी। उसने कभी ऐसी जहनीयत नही देखी थी। ससुराल में एक के बाद एक ऐसी घटनाओं ने उसे और भी कमज़ोर कर दिया था।
रात भर उसकी तबियत नासाज तो रही ही थी उसका जी मिचला रहा था। वह बाहर आई। उसके कमरें से अटैच बाथरूम में पानी नही आ रहा था। दालान में एक और बाथरुम था जो ज्यादातर अब्बूजान ही इस्तेमाल करते थे। वैसे वो एक कामन बाथरुम था। जहाँ कोई भी जा सकता था। मजबूरन फिज़ा को उसमें जाना पड़ा। जब वह बाथरुम के नजदीक पहुँची तो अन्दर से नल की आवाज़ आ रही थी। शायद अब्बू जान होंगे या फिर अफसाना भाभी के बच्चे। वह वापस लौटने लगी। फिर उसे ख्याल आया,, अब्बू जान तो इस वक्त सैर पर जाते हैं। जरुर अन्दर बच्चे ही होगें। उन्हे स्कूल जाने की जल्दी जो होती है। हम यहीँ इन्तजार कर लेते हैं।
वह ये सोच ही रही थी कि बड़े भाई जान तौलिया लपेटे हुये कर बाहर आये, जिन्हें देख कर वह तो एकदम काँप ही गयी। इतनी सुबह?? ये तीनो भाई तो बारह बजे से पहले जागते ही नही है? फिर इतनी सुबह भाई जान क्यों जाग गये हैं? हाय अल्लाह! हमें यहाँ खड़े नही होना चाहिये था। न जाने क्या सोच लें ये हमारे वारे में?
उन्होने फिज़ा को फु़हश तरीके से देखा और चले गये। उसे उनकी इस जुम्बिश पर ऊबकाई सी आ गयी। उसे सच में ऊबकाई आ गयी थी। जी तो पहले से ही मिचला रहा था। वह तेजी से बाॅश बेशिन की तरफ भागी। उसके गले से तेज ऊबकाई की आवाज निकल पड़ी जो आम तौर पर उल्टी के वक्त बाहर आती ही है। उसकी आवाज़ सुन कर कोई बाहर नही निकला। फरहा भाभी जान का कमरा तो ऊपर की तरफ था और अफसाना भाभी तो घर में हैं ही नही। अम्मी जान तो वैसे भी तल्ख किस्म की हैं। उन्होने सुन कर शायद अनसुना कर दिया होगा, फिज़ा को पूरा यकीन था। कुल मिला कर वह उस घबराहट को अकेली ही झेलती रही।
पर जो भी हो वह बहुत घबराई हुई थी। दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। रात को जो भी खाया था सब निकल गया। बड़ी भारी उल्टी हुई थी। उसे लग रहा था कोई उसके करीब आकर खड़ा हो जाये और पीठ पर हाथ रख दे। ताकि उसे थोड़ी तसल्ली मिल जाये। ऐसा होने पर अम्मी जान उसकी पीठ पर धीमे-धीमें धौल जमाती थीं। एक बार जब बाहर का चिकन खा लेने पर उसे उल्टियां होने लगी थीं तो बराबर अम्मी जान उसकी पीठ को सहलाती रही थी। उसे अम्मी की बहुत याद आने लगी।
फिज़ा फ्रैश होकर जब बाहर आई तो उसकी साँस फूली हुई थी। भाई जान बाहर दालान में ही टहल रहे थे। कहने लगे- "आप कहें तो डाक्टर के पास ले चलें? आरिज़ भी शहर में नही है।" उन्होंनें उसकी उल्टी की आवाज़ को सुन लिया था। बेसाख़्ता उनका इस तरह कहना कुछ अजीब था वो भी एक ऐसा इन्सान जिसकी तस्वीर पहले से ही खराब हो।
वह पहले तो तर्स जदा हो गयी थी।
उस वक्त उनके अलावा वहाँ और कोई नही था। फिर न जाने क्यों? भाई जान के ऐसा कहने से उसे थोड़ी राहत सी महसूस हुई। शायद तबियत के अस्बाब से ऐसा हुआ होगा। वाकि घर का कोई भी आदमी निकल कर भी नही आया था। कम से कम उन्होने पूछा तो? हलाँकि फिजा़ उनके सामने आते ही नमुतमईन सी हो जाती थी। मगर उसे नही लगा इस वक्त उनके दिल में कोई नारास्ती है। फिर भी वह सतर्क थी उसे भाभी साहब की हिदायत याद थी। उसने निहायत ही धीमें लब्ज़ो में कहा- "नही नही भाई जान, हम बिल्कुल ठीक हैं। आप परेशान न हों।" इतना कह कह कर वह फुर्ती से लपक कर अपने कमरें में आ गयी और दरवाजें की चटखनी चढ़ा ली।
बगैर कुछ खाये-पिये बिस्तर पर मरगिल्ली सी पड़ी रही।
करीब आठ बजे तक आरिज़ और अफ़साना भाभी साहब वापस लौट आये थे। फिज़ा का कलेजा बैठने लगा। ' ये क्या? अफ़साना भाभी तो अपने मायके रहने गयी थीं? फिर वापस कैसे लौट आईं? उसे लगने लगा था दाल में कुछ काला है? अफ़साना भाभी सीधे अपने कमरें में चली गयीं। वह फिज़ा से नजरें चुरा रहीं थीं। जिसे उसने देख लिया था। उसके पूरे बदन की जान निकल गयी।
वह उस पूरा दिन भाभी साहब से मिलने का मौका तलाशती रही। आरिज़ ने साफ-साफ कह दिया था - "इस मुताल्लिक उससे कोई बात न की जाये। आप बीवी हैं शौहर नही जो सवाल जवाब करें?"
"ये कैसा जवाब है आरिज़? आपके दिल में चोर नही है तो बताने में कैसी पर्दादारी? बोलिये आरिज़, क्यों हमारी जान निकाल रहें हैं?" फिज़ा लगातार उसका चेहरा पढ़ रही थी।
आरिज़ बगैर कोई बात कहे, बगैर कोई तसल्ली दिये कमरें से बाहर निकल गया। झगड़े में एक-दूसरे से कहने-सुनने का मर्म जरुर रहता है मगर चुप्पी की चुभन बहुत गहरी होती है वह बर्दाश्त की जड़े उखाड़ देती है।
फिज़ा की कशमकश और बढ़ गयी वह अफ़साना से मिलने के लिये तड़पने लगी। उसे एक पल का भी सब्र नही हो रहा था। केवल वही थीं जो इस राज से पर्दा हटा सकती थीं। इसलिये वह जल्दी-से-जल्दी उनसे मिलना चाहती थी। उसका दिल किया कि वह भाभी के कमरें में चली जाये फिर भाई जान की याद आते ही रूक गयी- "नही-नही हमें भाभी साहब का इन्तजार यहीँ करना पड़ेगा। अगर भाई जान हुये तो? सुबह जब वो टिफिन बनाने आयेंगी तब मौंका अच्छा होगा। उस वक्त घर के सभी ओग सो रहे होते हैं।"
उस दिन वो सुबह बच्चों का टिफिन बनाने भी किचन मे नही आईं। फिज़ा के सब्र का बाँध टूट रहा था। एक मन किया वह उनके कमरें में मिल ले, फिर उनकी इजाज़त के बगैर कमरें में जाना फिज़ा को अच्छा नही लगा। पता नही कब भाई जान कमरें में मौजूद हों?
अगली सुबह फिर आरिज़ हमेशा की तरह सो रहे थे। फिज़ा के ये दो दिन दो बरस के बराबर बीते थे। हर बुरा ख्याल, बुरी तस्वीरें उसके जहन से होकर गुजर चुकी थीं। भीतर की तिलमिलाहट ने जीना मुहाल कर दिया था। इन्तजार के सिवाय उसके पास कोई और रास्ता नही था।
क्रमश: