बालमन की संवेदना ---डॉ.वीना शर्मा
बालमन की संवेदनशील अभिव्यक्ति से जुड़ाव
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जीवन की पगडंडी पर चलते हुए न जाने कितने रास्ते ऐसे आते हैं जहाँ मानव-मन अधिक संवेदनशील हो उठता है | मनुष्य में संवेदना न हो,ऐसा तो हो ही नहीं सकता क्योंकि वह संवेदना से बना है किन्तु कभी ऐसी परिस्थिति भी आती है कि मनुष्य अधिक संवेदनशील हो उठता है | यह स्थिति तब अधिक संताप दे जाती है जब परिवार में बुजुर्गों की स्थिति पर उनकी तीसरी पीढ़ी की दृष्टि पड़ती है |
हम सब इस सत्य से वकिफ़ हैं कि बच्चे मन के सच्चे और भोले होते हैं | वे कई बार ऐसे काम कर जाते हैं जो उनके बड़े या कि उनके माता-पिता के कर्तव्यों के दायरे में आते हैं किन्तु वे उनसे अपना पीछा छुड़ा लेते हैं अथवा उनके प्रति गैर-ज़िम्मेदार हो जाते हैं |
देखा जाए तो बातें, घटनाएँ बहुत छोटी होती हैं किन्तु वे मन पर गहरा असर डालती हैं और बाध्य कर देती हैं स्वयं को प्रस्तुत करने के लिए | तभी तो प्रेमचंद जी की कहानी का हमीद आज तक भी प्रासंगिक है जिसे लेखिका डॉ. वीना शर्मा के संवेदनशील मन ने पोते के हाथ में प्रोग्रेसिव चश्मा देकर एक बार फिर से उस कहानी के साथ जोड़ दिया है जो अमर है |
लेखिका के द्वारा प्रस्तुत इन लघु कथाओं में बाल-मन की नाज़ुक भावनाएँ विश्व के प्रति सजगता के रूप में उभरकर आती हैं तो कभी माता-पिता के लिए एक चेतना के रूप में प्रस्तुत होती हैं कि अपने बच्चों की किसी और बच्चे से तुलना करना ठीक नहीं अथवा बच्चे रोबोट नहीं, उनकी भी अपनी भावनाएँ हैं, संवेदनाएँ हैं, सीमाएँ हैं | वे परिवार से ही संस्कार ग्रहण करते हैं, वहीं से सीखते हैं और समय आने पर जाने-अनजाने में परिवार में एक सीख भी बन जाते हैं |
लेखिका के द्वारा उठाए गए सभी विषय महत्वपूर्ण इसलिए भी हैं कि आज का समाज जिस ढर्रे पर चल रहा है, वह हमारी, संस्कृति व परंपराओं से बिछड़ जाने का एक ऐसा भय है जो भावी पीढ़ी को संवेदनहीन बना देने की कगार पर आ खड़ा हुआ है | ऐसी स्थिति में आवश्यकता है एक जागरूकता की जो इन कथाओं में यत्र -तत्र प्रदर्शित होती है |
डॉ. वीना शर्मा को ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर लेखन के लिए स्नेहिल बधाई | उनकी भावनाओं को समाज का वह वर्ग समझकर उस पर चिंतन कर सके जिस वर्ग के लिए इन कथाओं की रचना की गई है |
अनेकानेक शुभकामनाओं सहित
डॉ. प्रणव भारती
अहमदाबाद