एकबार मधुमंगल के मुँह से राधारानी की प्रशंसा सुनकर श्यामसुन्दर राधारानी से मिलने के लिए अत्यधिक अधीर हो गए। उन्होंने बाँसुरी उठाली और आत्मविभोर हो राधारानी को पुकारती एक मधुर धुन छेड़ दी। राधारानी भी उनकी बाँसुरी की धुन से परम व्याकुल हो गई। उन्होंने श्री विशाखा जी को श्यामसुन्दर की खोज में भेजा।
श्री विशाखा जी को देखते ही श्यामसुन्दर ने उनसे विनती की कि एक बार राधारानी से मिलवा दे। विशाखा जी कुछ देर श्यामसुन्दर की परीक्षा लेने लगीं। वो बोली कि आपकी और मेरी सखी का क्या मेल। मेरी सखी आपसे क्यों मिले ? परन्तु जब श्यामसुन्दर के नेत्रों से आँसू बहने लगे तो श्री विशाखा जी के भी आँसू आ गए। उन्होंने तुरन्त सुबल से कहा- "श्रीकृष्ण को योगी वेश में सजा दो।" अब योगी वेश "श्यामसुन्दर" श्री विशाखाजी के साथ राधारानी से मिलने चल पड़े। योगी महाराज ने भगवा धोती धरि थी, कन्धे पर नकली मृगछाल डाल रखी थी। गले में रुद्राक्ष माला थी, मस्तक पर सिन्दूर से बना लाल तिलक था, अंगों में भभूत लगा था।
श्री विशाखा जी योगी श्रीकृष्ण को दिखाती हुई बोलीं- "राधे ! श्यामसुन्दर तो मिले नहीं। ये योगी महाराज मिले हैं। देखो तो इनका चेहरा भी कुछ-कुछ श्यामसुन्दर से मिलता है। सुबल के साथ घूम रहे थे। बड़े पहुँचे हुए योगी हैं।" राधारानी मुस्कुरा दीं। वाह आज महाराज योगी बनकर आए हैं। श्री चम्पकलता जी ने आगे बढ़कर प्रणाम कर कहा- "स्वागत है महाराज ! अब सदा यही निवास करें और हम सबको कृतार्थ करते रहें।" श्री चित्रा जी ने आगे बढ़कर बैठने के लिए आसन दिया। श्यामसुन्दर ने 'बम बम' कहकर उसे हटा दिया। और कन्धे पर से नकली मृगछाल लेकर उसी को बिछाकर बैठ गए। और राधारानी के माधुर्य का ध्यान करने लगे। तब श्री विशाखा जी उनके पास आई और कौतुक करते हुए पूछीं- "महाराज ! ये तो बताइये मेरे मन में क्या चल रहा ?"
योगी जी बोले- "ओ शुभ्र दन्ता ! तुम चाहती हो तुम्हारी सखी प्रसन्न हो।" 【यहाँ श्री विशाखा जी को श्यामसुन्दर ओ सफेद दाँतों वाली ! कहकर संबोधित करते हैं। विशाखा जी हँस रहीं थीं, उनके दाँत दिख रहे थे। श्यामसुन्दर मानो इशारे से विनती कर रहे हैं विशाखे ! तुम हँस रही हो , यहाँ मेरी जान जा रही है】
राधारानी श्यामसुन्दर की अवस्था देखकर हँस देती हैं। वो कहती हैं- "विशाखा ! अपने मन में सर्वदा मेरी प्रसन्नता चाहती है ये तो सब कोई जानते हैं। ये कोई योगी नहीं, ये महाराज तो मुझे श्यामसुन्दर ही लग रहे हैं।" सखियाँ हँसकर कहने लगीं- "विशाखा सखी ! ये किस योगी को पकड़ लाई ? चलो मिलकर इन योगी महाराज की पूजा करें।" अब श्यामसुन्दर ने देखा इतनी गोपियों से वो घिर गए हैं। सब के हाथ में गुलाल हैं, जो वो पूजा के लिए लाई थीं। श्यामसुन्दर समझ गए आज गुलाल, चन्दन से उन्हीं की पूजा होने वाली है। यहाँ से अभी जाने में ही भलाई है। अब योगी श्यामसुन्दर कुछ ताव दिखाकर बोले- "सुनो गोपियों ! मैं परम योगी हूँ, तुम स्त्रियों के बीच मेरा क्या काम। बस मैं जा रहा हूँ।" पर गोपियाँ कहाँ छोडने वाली थीं। उन्होंने श्यामसुन्दर को घेर लिया। किसी ने रुद्राक्ष माला उतार ली, किसीने लाल तिलक मिटा दिया, किसीने मृगछाल छीन ली। एक गोपी ने पीछेसे आकर उनके गालों पर पुष्प पराग मल दिए। चित्रा जी ने उनके चेहरे पर कस्तूरी मल दिया। विशाखाजी ने देखते ही देखते उनके अंग पर सिन्दूर से अद्भुत चित्रकारी करदी। शशिकला ने उनकी बाहों पर चित्रकारी कर दी। अंत मे ललिताजी दर्पण ले आई और हँसते हुए श्यामसुन्दर को दर्पण दिखाया। दर्पण देखकर श्यामसुन्दर मुस्कुरा दिए। सभी गोपियों ने वास्तव में राधारानी की प्रसन्नता के लिए उनका अपूर्व श्रृंगार किया था। गोपियों ने चन्दन, कस्तूरी आदि इतनी चतुरता से मला था कि श्यामसुन्दर के गालों पर चित्रकारी करदी थी। गोपियों का प्रेम और कला देखकर श्यामसुन्दर उनके चिर ऋणी हो गए। युगल को साथ में बिठा कर सबने उन पर पुष्प वर्षा की और पंखुड़ियों से उन्हें ढ़क दिया।