मासूम बचपन …
वैसे तो कई मर्तबा बहुत सारे बच्चों को गली मोहल्लों में खेलते देखा और कभी कुछ भी महसूस नही हुआ। बल्कि यू कहलो की उनकी हरकतों को देख कर कई बार गुस्सा भी आया।
लेकिन आज दफ्तर से लोटते समय मेरी नजर पड़ी एक पिता पर जो अपने बच्चे को पेड़ के नीचे पड़ी रेत पर खेलने दे रहा था और बहुत जोरों से हस रहा था। मुझे घर जाने की कोई जल्दी नहीं थी, तो में उनसे थोडी दूर जाकर दूसरे पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। और इस तरह खड़ा रहा मानो मुझे किसी का इंतजार है और उस दृश्य को देखता रहा।
थोडी देर बाद मैंने महसूस किया कि पिता की आंखों में पानी भरा गया है और धीरे से अपने हाथ की कलाई से आंखे पूछ रहा है। शायद उस पिता को अपने खुद के बचपन के दिन याद आ गए होंगे। खैर बचपन तो मुझे भी अपना याद आ गया था।
वैसे बता दूं की बचपन जो है, बडा मासूम होता है। इसको किसी की कोई परवाह नही होती है। आपने क्या पहन रखा है, क्या खा रहे हो या किस के साथ खेल रहे हो इसको किसी भी चीज की कोई परवाह नही होती। सिर्फ एक बचपन ही है जब आपको भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, ओर सबसे महत्वपूर्ण जात-पात कभी महसूस नही होती है। हा अगर किसी चीज़ की परवाह होती है तो वो ये की कब छुपके से घर से भागे और दोस्तो के साथ खेलने निकले।
मेरा जन्म नब्बे के दशक का है इसलिए ये बात इतने दावे के साथ कह पा रहा हू की नब्बे के दशक या उससे पहले जन्मे सभी लोगो का बचपन बडा खुशनुमा रहा होगा।
अगर में बात करू अपने खुद के बचपन कि यादों की, तो उस समय हमारे पास ना तो देखने के लिए मोबाइल था और नाही खेलने के लिए महंगी कारें या कुछ और वस्तुएं जो आज के वक्त में हर एक मध्यम वर्ग के बच्चे के पास मिल जाती है। ऐसा नही हे की हमारे पास खेलने के लिए कुछ नही था। हमारे पास खेलने के लिए गिली-डंडे थे, कांच के कंचे थे, कपड़ो की बनी गेंद थी, लकड़ी का बना तीन पहिया वाला रेडू था और दौड़ाने के लिए टायर थे। जिन्हे हम नंगे पांव पूरे गांव में दौड़ाते थे और शर्त लगती थीं की कोन सबसे पहले बड़े वाले पीपल के पेड़ के पास पहुंचेगा। शर्त पैसों की या किसी महंगी चीज की नही होती थीं। पैसे तो हमे सिर्फ कभी कभार ही देखने को मिलते थे वो भी अट्टना (50 पैसे) या पावली (25 पैसे)। शर्त होती थीं की जो हारेगा वो अपने घर से कुछ चटपटा खाने का लायेगा।
हमारे पास देखने के लिए यूटयूब या टीवी नही थे लेकिन गांव के चौराहे पर कटपुली, रामायण और नट जैसे कई खेल होते थे। घर में कोई पंखा ओर सोने के लिए महंगी पलंग नही थी लेकीन घर के बाहर चौड़ी गलियां और बड़ी-बड़ी चौतरिया थी जिन पर हम सब एक साथ सोया करते थे। ओर हां रात को खुले आसमान के नीचे सोते वक्त दादा-दादी, ताया-ताई ओर माता-पिता से कहानियां सुनने और तारो के जुंड को देखने का भी अपना एक आनंद था। भले ही पैसे कम थे, सुविधाएं नही थी लेकिन रहते हम सब एक ही घर में थे। मां और ताई सुबह जल्दी उठ कर दूध लेने चली जाती थीं तो ताया और पिता गाय भेसो की बांधने की जगह पलटने चले जाते थे। खैर आज के दौर में तो माता पिता अपने बच्चों को पालने के लिए अलग से ताई रखते है, ओर बच्चे अपने माता पिता को पालने के लिए।
रेत पर खेलते बच्चे को देख मुझे मेरे बचपन का वो दिन याद आ गया जब मेरा एक बिलकुल नया लाया हुआ चप्पल रेत में छुपाने के बाद गुम हो गया था। जो की बहुत ढूंढने के बाद भी नही मिला। ओर जब एक चप्पल पहने में अपने घर पहुंचा तो मां ने बहुत डांट सुनाई । उस दिन डांट सुन कर शायर बहुत गुस्सा आया होगा लेकीन आज मेरी अपनी आंखे भी नम हो गईं है। ओर डांट क्यों ना सुनाती, दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद उनको मुश्किल से 2 या 5 रुपए मिलते थे, वो भी कभी कभार। मेरी दादी हर रोज मंदिर जाति है लेकीन जब पूरे दस दिन हो जाते है तो दसवें दिन आरती में दस रुपए भेंट कर देती है। इसका मतलब ये नही हे की हम दादी को पैसे नही देते। तो फिर क्यो? शायद इसलिए की पैसों की अहमियत और कद्र उन्हे आज भी हमसे ज्यादा है।
महंगी गाड़ियां, बड़े-बड़े घर ओर बड़ी इच्छाओं के कर्ज तले हम इतने दब गए है की हम खुद को ही भूल गए। ना खुद के लिए वक्त है और ना ही अपनो के लिए। अगर थोड़ा बहुत वक्त मिलता भी है तो वो भी मोबाइल में निकल जाता है। शायद आपको लग रहा होगा की में आज के वक्त या नई टेक्नोलॉजी को दोष दे रहा हू। लेकीन नही मेरा मेरा ऐसा कोई तात्पर्य नही हे। बस थोड़ा रुक कर बच्चे को खेलते देखा तो मुझे भी मेरा निस्वार्थ और मासूम बचपन याद आ गया।
मुझे खुशी है कि यह पिता उन सब माता-पिताओं से थोड़ा अलग है जो की अपने बच्चो के कपड़ो पर धूल तक नही लगने देते है। अचानक उस पिता की नज़रे मुझ पर पड़ी और देखा की में किसी का इंतजार नही कर रहा बल्कि उन्हे ही देख रहा हू। जब हमने एक दुसरे को देखा तो हम दोनों भी थोड़ा मुस्कुराए और अपनी अपनी मंजिल को निकल पड़े।
बचपन में कुछ तो खास बात है, आज मात्र इसकी यादों से ही पूरे दिन की थकान दूर हो गई है और ऐसा महसूस हुआ मानो कुछ पल पहले में भी एक छोटा बच्चा था जिसको ना तो अपने घर जाने की जल्दी है और ना ही किसी बात की कोई परवाह। बस परवाह है तो इस बात की काश कुछ और वक्त मिल जाए जी भर कर जीने का, ओर जी भर कर खेलने का।
बस एक छोटी सी बात कहना चाहूंगा कि कभी कभी अपने बचपन में लोट जाया करो। ये वो यादों का भंडारा है जहा आपको हमेशा सुकून मिलेगा और शायद बहुत कुछ सीखने को भी।