केवल जीवन जी लेना ही जीवन नहीं है। जीवन जीने का कोई ध्येय, कोई लक्ष्य भी तो होगा। जीवन में कोई ऊँचा लक्ष्य प्राप्त करने का ध्येय होना चाहिए। जीवन का असली लक्ष्य ‘मैं कौन हूँ’, इस सवाल का जवाब प्राप्त करना है। पिछले अनंत जन्मों का यह अनुत्तरित प्रश्न है। ज्ञानीपुरुष परम पूज्य दादाश्री ने मूल प्रश्न “मैं कौन हूँ?” का सहजता से हल बता दिया है। मैं कौन हूँ? मैं कौन नहीं हूँ? खुद कौन है? मेरा क्या है? मेरा क्या नहीं है? बंधन क्या है? मोक्ष क्या है? क्या इस जगत् में भगवान हैं? इस जगत् का ‘कर्ता’ कौन है? भगवान ‘कर्ता’ हैं या नहीं? भगवान का सच्चा स्वरूप क्या है? ‘कर्ता’ का सच्चा स्वरूप क्या है? जगत् कौन चलाता है? माया का स्वरूप क्या है? जो हम देखते और जानते हैं, वह भ्रांति है या सत्य है? क्या व्यावहारिक ज्ञान आपको मुक्त कर सकता है? इस संकलन में दादाश्री ने इन सभी प्रश्नों के सटीक उत्तर दिए हैं।
जीवमात्र क्या ढूंढता है? आनंद ढूंढता है, लेकिन घड़ी भर भी आनंद नहीं मिल पाता। विवाह समारोह में जाएँ या नाटक में जाएँ, लेकिन वापिस फिर दुःख आ जाता है। जिस सुख के बाद दुःख आए, उसे सुख ही कैसे कहेंगे? वह तो मूर्छा का आनंद कहलाता है। सुख तो परमानेन्ट होता है। यह तो टेम्परेरी सुख हैं और बल्कि कल्पित हैं, माना हुआ है। हर एक आत्मा क्या ढूंढता है? हमेशा के लिए सुख, शाश्वत सुख ढूंढता है। वह ‘इसमें से मिलेगा, इसमें से मिलेगा। यह ले लूँ, ऐसा करूँ, बंगला बनाऊ तो सुख आएगा, गाड़ी ले लूँ तो सुख मिलेगा’, ऐसे करता रहता है। लेकिन कुछ भी नहीं मिलता। बल्कि और अधिक जंजालों में फँस जाता है। सुख खुद के अंदर ही है, आत्मा में ही है। अत: जब आत्मा प्राप्त करता है, तब ही सनातन (सुख) प्राप्त होगा।
निवेदन
ज्ञानी पुरुष संपूज्य दादा भगवान के श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहार ज्ञान से संबंधित जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके,संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता है। विभिन्न विषयों पर निकली सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो नए पाठकों के लिए वरदान रूप साबित होगा।
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनाई जा रही है, ऐसा अनुभव हो, जिसके कारण शायद कुछ जगहों पर अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के अनुसार त्रुटिपूर्ण लग सकती है, लेकिन यहाँ पर आशय को समझकर पढ़ा जाए तो अधिक लाभकारी होगा।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाए गए शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गए वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गए हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गए हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों इटालिक्स में रखे गए हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में, कोष्टक में और पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं।
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा।
जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है।
अनुवाद से संबंधित कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं।🙏
संपादकीय
जीवन में जो कुछ भी सामने आता है, पूरी तरह से उसका रियलाइजेशन किए बगैर मनुष्य उसे अपनाता नहीं है। सब का रियलाइजेशन किया, मात्र 'सेल्फ' का ही रियलाइजेशन नहीं किया है। अनंत जन्मों से ‘मैं कौन हूँ’ की ही पहचान नहीं हो पाई है, इसीलिए तो इस भटकन का अंत नहीं आता! उसकी पहचान कैसे हो ?
यह तो जिसे खुद की पहचान हो चुकी हो, वही व्यक्ति दूसरों को आसानी से पहचान करवा सकता है। ऐसी विभूति यानी स्वयं 'ज्ञानी' ही ! ज्ञानी पुरुष, वे जिन्हें इस संसार में कुछ भी जानने को या कुछ भी करने को बाकी नहीं रहा हो! ऐसे ज्ञानी पुरुष परम पूज्य दादाश्री, इस काल में हमारे बीच आकर अपनी ही भाषा में, हम समझ पाएँ ऐसी सरल भाषा में, हर किसी का मूल प्रश्न 'मैं कौन हूँ' का हल सहजता से ला देते हैं।
इतना ही नहीं, लेकिन यह संसार क्या है? किस प्रकार चल रहा है ? कर्ता कौन ? भगवान क्या है? मोक्ष क्या है? ज्ञानी पुरुष किसे कहते हैं ? सीमंधर स्वामी कौन हैं ? संत, गुरु और ज्ञानी पुरुष में क्या भेद है? ज्ञानी को किस तरह पहचानें? ज्ञानी क्या कर सकते हैं? उसमें भी परम पूज्य दादाश्री का अक्रम मार्ग क्या है? सीढ़ी दर सीढ़ी तो मोक्षमार्ग पर अनंत जन्मों से चलते ही आए हैं लेकिन 'लिफ्ट' (एलिवेटर) जैसा भी मोक्षमार्ग में कुछ हो सकता है न ? अक्रम मार्ग से, इस काल में, संसार में रहते हुए भी मोक्ष है और मोक्ष कैसे प्राप्त किया जा सकता है इसकी पूर्ण समझ और सही दिशा की प्राप्ति परम पूज्य दादाश्री ने करवाई है।
‘मैं कॉन हूँ' की पहचान के बाद कैसी अनुभूति रहती है, संसार व्यवहार निभाते हुए भी संपूर्ण निर्लेप आत्मस्थिति की अनुभूति में रहा जा सकता है। आधि-व्याधि और उपाधि में भी निरंतर स्व-समाधि में रहा जा सकता है। अक्रम विज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् हजारों महात्माओं का ऐसा अनुभव है। इन सभी की प्राप्ति हेतु प्रस्तुत संकलन मोक्षार्थियों के लिए मोक्षमार्ग में प्रकाश स्तंभ बनकर दिशा निर्देश करे, यही अभ्यर्थना।
– डॉ. नीरू बहन अमीन