उस वक़्त की दुनिया ही लड़को के मुनासिब थी,
दादीजी की नाराज़ी भी तब जायज़ थी
दाई माँ ने जब सफ़ेद तौलिये में लपेटा,
और अपनी गोद में मुझे समेटा
तो कहा,
"बिलकुल अपनी माँ पर गयी है,
बिटिया बड़ी ही सुन्दर हुई है"
शायद कम भरना पड़े अब ससुराल की झोली..
"चलो गनीमत है" दादीजी बोली
पर सिर्फ दादी ही तो थी जो नाराज़ थी,
वरना गुलदस्तों से भरी मेज की दराज़ थी..
पापा तो जैसे हर जगह कूद फांद रहे थे,
मेहमानो से मेरी तारीफों के पुल बाँध रहे थे..
तब समझ आया की रूप की परिभाषा ही अधूरी है,
यहाँ तारीफों के लिए, गोरा होना जरुरी है..
खैर.. दादीजी का मन अब भी कुछ खिलाफी था..
पर माँ-बाप खुश है इतना ही तो काफी था..
ना कुढ़-कुढ़ के जीने की मजबूरी,
ना जिम्मेदारियो का सामान होता है
कहते है,
सुन्दर लड़कियों का जीवन आसान होता है
कुछ साल बीते,
कुछ बदली रीते..
अब 'ABCD' आने लगी थी,
पास की स्कूल में जाने लगी थी..
जहां राष्ट्रीय गान के वक़्त मुझे आगे खड़ा किया जाता,
और नृत्य स्पर्धाओं में ध्यान से सजा दिया जाता..
हिंदी की कविताएं डांस क्लासेस के पीछे छूट रही थी,
किताबो की शुरूआती सीढ़ी पहले कदम पे ही टूट रही थी..
शर्मा मैडम हमेशा कहती,
"पढाई में थोड़ी कमज़ोर है मगर मंच पे कमाल करती है
बिलकुल अपनी माँ पे गयी है, देखो कितनी सुन्दर दिखती है"
लड़की को बड़े होने का एहसास उसके बदलाव कम,
उसपे पड़ने वाली निगाहें ज्यादा दिलाती है..
जिस काया पे अल्हडपन तक ऐठा था,
वही अब अनजान बेरहमों से मिलाती है..
सहेलिया सामने तो मेरे साथ हसती,
मगर पीछे मेरे ऊपर
अफवाहे उड़ाई जाती,
घिनौनी और फूहड़..
मेरे बचपन के दोस्तों को भी,
अब मुझमे प्रेमिका नज़र आने लगी थी..
मेरी सूरत ही पाई पाई करके,
मेरी सीरत को खाने लगी थी..
ना सच्चा दोस्त, ना सखी, ना प्रेमी
ना आज़ाद ज़मीन, ना आसमान होता है..
कैसे कोई कहता है की
सुन्दर लड़की का जीवन आसान होता है
नौकरी में जब सफलता मिले
तो शादीशुदा बॉस के साथ चक्कर के चर्चे..
और अगर सफलता ना मिल रही हो,
तो वरिष्ठों के "Lets hang out" के पर्चे..
कितनो को तो लगता है की बस घूरने से प्यार हो जाता है,
एक हसने वाले emoji से अगला यार हो जाता है..
छेड़ने की सीमा को कौन तय करता है,
'ना' समझने में कितना समय लगता है..
फिर किसी दिन इसी अजनबी भीड़ में,
उससे मुलाक़ात होती है..
जो तुम्हारे होंठो की नहीं
आँखों की और तकता है..
जो तुम्हारी बस अच्छाइया नहीं
कमिया भी परखता है..
जो तुम्हारी इच्छाओ को सम्मान देता है..
जो शख्स से ज्यादा शख्सियत पर ध्यान देता है..
जो तुम्हे बस रिझाता नहीं
हसाता भी है..
जो तुमसे बस पूछता नहीं
बताता भी है..
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आज सालो बाद अस्पताल के उसी
जाने पहचाने हिस्से में हु,
जीवन चक्र के उसी
महत्वपूर्ण किस्से में हु,
जहा फिर एक पापा ख़ुशी से कूद फांद रहे है,
अपनी नवजात के तारीफों के पुल बाँध रहे है..
मेरी कोशिश होगी की इस बार
तारीफों के पुलों में बस सूरत की मिटटी ही ना हो,
निडरता के ईंटे भी मिली रहे
बाहरी खाल का मनोरम ही न हो,
भीतरी ताकत भी पली रहे..
क्यूंकि रूप का पुल जरा कच्चा होता है..
हिम्मत का पाया रोपना ही अच्छा होता है...
यहाँ हर मोड़ पे रास्ता सुनसान होता है..
सुन्दर हो या न हो,
लड़की का जीवन ही कहा आसान होता है..