यूँ तो हम भगवान की भक्ति करते हैं, लेकिन असल में भगवान को नौकर समझते हैं। भगवान हमें ये दे दो, हमारे लिए ऐसा कर दो। भगवान को धन्यवाद तो कभी देते ही नहीं, जबकि भक्ति का संबन्ध माँगने से नहीं, धन्यवाद करने से है। हमें जैसा जीवन मिला, क्या हम इसके योग्य हैं? क्या जो कुछ हमने पाया है, वह हमारी योग्यता की अपेक्षा किसी परम सत्ता की कृपादृष्टि नहीं? कोई भी धन्यवाद नहीं देता कि हे भगवान तेरी कृपा से हम इस हालत में हैं, वरना इससे बुरी हालत में भी हो सकते थे। हम अंधे, लूले, लँगड़े पैदा हो सकते थे। जो अंधे, लूले, लँगड़े हैं, वह इससे भी बदतर हो सकते थे। लाखों लोग हमसे कमतर हैं, यह बात सोचने की बजाए, हम सोचते हैं कि लाखों लोग हमसे बेहतर हैं और इसी कारण शिकायतें जारी हैं, माँग जारी है। यादवेंद्र भी माँग रहा है, "हे भगवान! मेरे बेटे को सद्बुद्धि देना।"
भगवान के बारे में हमारी धारणा कितनी खोखली है। गलती करते समय हमें भगवान नहीं दिखता, लेकिन गलती करने के बाद जब डर पैदा होता है, तब भगवान याद आता है। दरअसल भगवान कोई ऐसी सत्ता तो नहीं कि वह कहीं बैठा हुआ है, जिसने हमारी गलतियों को नोट किया है और अब वह स्कूल टीचर की तरह उन गलतियों की सज़ा देगा। भगवान को ऐसी छोटी-छोटी चीजों से जोड़कर हम उसे कितना छोटा बना देते हैं।
यादवेंद्र को तो भगवान का ऐसा ही रूप पता है कि वह गुनाहों की सज़ा ज़रूर देता है। इसी कारण वह भयभीत है। उसे डर लग रहा है कि उसने जो गलतियाँ की हैं, कहीं उसकी सजा मिलने का वक्त तो नहीं आ गया। समाज की अदालत से वह बच सकता है, लेकिन भगवान की अदालत से कैसे बचेगा? यह चिंता उसे खाए जा रही है। बेटे के व्यवहार को देखकर भगवान से प्रार्थना करने के सिवाय कोई और उपाय नहीं। अब वह रोज सुबह-शाम गुरद्वारे जाता है, लेकिन अपने धंधे को बंद करने का न उसने सोचा है और न ही यह इतना आसान है। इस दलदल में घुसा तो कभी भी जा सकता है, लेकिन अपनी मर्जी से निकलना संभव नहीं।
आदमी उसी समय ज्यादा बड़ा भक्त होता है, जब वह डरा होता है और जैसे-जैसे डर खत्म होता जाता है भक्ति कम होती जाती है, क्योंकि हम भगवान से प्रेम तो करते ही नहीं, बस उससे डरते हैं। जब डर गायब भगवान भी हमारी नज़र से ओझल हो जाता है। यादवेंद्र की भक्ति भी ज्यादा दिन नहीं चली। बेटे ने ऐसा कुछ नहीं किया, जिसके कारण लगे कि भगवान नाराज है।
यादवेंद्र अपने व्यवसाय में मस्त है और रमन अपनी बेटी के साथ मग्न है। यशवंत का ज्यादा समय दोस्तों के साथ ही बीतता है। वह 10 2 पास करके कॉलेज में आ गया है। बुलेट लेने का फायदा ही क्या, जब तक उस पर बैठकर शहर के चक्कर न लगाए जाएँ, साइलेंसर बदलवाकर उससे पटाखे न बजाए जाएँ। यह काम थोड़ा-थोड़ा तो तभी शुरू हो गया था, जब उसने बुलेट खरीदा था, लेकिन अब यह काम चरम पर है। यशवंत अब हर वह काम कर रहा है, जो जवानी दिखाने के लिए ज़रूरी है। कद-काठी से मजबूत है। देखने में सुंदर है। जेब में पैसे हैं, फिर जवानी का मज़ा वह नहीं लेगा तो कौन लेगा। जब आप दिलेरी से पैसे लुटाते हैं, तो दोस्त बहुत बन जाते हैं और जो पैसों के कारण दोस्त बनते हैं, वह कभी भी आपको सही राय नहीं देंगे, लेकिन इतनी समझवाली उम्र यशवंत की नहीं है। दोस्तों के साथ 'चिल' करना ही उसे ज़िंदगी का मकसद दिखता है।
पार्टियों में बीयर पीने से शुरूआत हुई, फिर बात शराब तक पहुँची। शराब बड़ी खतरनाक चीज है, यह अपना सबूत सबको दे देती है। रमन को जब पता चला तो उसने सख्ती की। यशवंत ने उसकी डाँट चुपचाप सही। उसने शराब पीना बंद कर दिया है और उसने तथा उसके दोस्तों ने शहर के हर नुक्कड़ पर उपलब्ध स्मैक को लेना शुरू कर दिया है। शाम को यशवंत घर जाता है तो वह सीधा अपने कमरे में घुस जाता है। दिनों-दिन परिवार से कटने लगा है। रमन को इसकी चिंता हुई तो उसने यादवेंद्र से बात की। यादवेंद्र को भी तीन साल पहले डर ने सताया था, तब उसे लगता था कि बेटा कच्ची उम्र का है, फिसल सकता है, लेकिन धीरे-धीरे उसका डर कम होने लगा। उसे लगने लगा कि अब उसका बेटा समझदार हो गया है। वह भूल गया था कि जीवन की फिसलन पर फिसलने की कोई उम्र नहीं होती, यहाँ कौन कब फिसल जाए पता नहीं चलता और इसी सच को भूला होने के कारण उसने पत्नी को आश्वस्त करते हुए कहा, "तुझे ऐसे ही लगता है।"
"किसी लड़की के चक्कर में तो नहीं पड़ गया।" - रमन को एकांत का यही कारण दिख रहा है। उसका बेटा स्मेक पीने के कारण भी परिवार से कट सकता है, ऐसी वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी, क्योंकि वह घर में रहने वाली औरत है। उसे क्या पता कि गाँव-शहर में स्मैक का दानव घूम रहा है, जो रोज किसी के लाल को लील रहा है। हाँ, यादवेंद्र यह जानता है, लेकिन जैसे हर आग लगाने वाले को लगता है कि आग उसके घर तक नहीं पहुँचेगी, वैसे ही उसे भी लगता है कि लोगों के बेटे तो स्मैक पी सकते हैं, मगर यशवंत नहीं। इसी कारण वह पत्नी का हौसला बढ़ाता है, "तू ज्यादा न सोचा कर। इस उम्र में सब लड़के ऐसे ही होते हैं, अपने ही ख्यालों में खोए हुए। कुछ नहीं होगा और अगर किसी लड़की से चक्कर हुआ तो हम इसकी उससे शादी करवा देंगे। दिक्कत तो तब होगी न जब हम इसका विरोध करेंगे।"
रमन इस पर चुप ही रही, लेकिन उसे बेटे के रंग-ढंग चिंताजनक लग रहे थे, पर वह कर भी क्या सकती थी। बेटा उसकी सुनता ही नहीं था। यादवेंद्र इन दिनों तो राजनैतिक सरगर्मियों में ज्यादा व्यस्त हो गया था, क्योंकि चुनाव सिर पर थे।