दिल्ली से बहुत दूर उत्तराखंड में हिमालय की ऊंची ऊंची चोटिया...जहाँ दूर दूर तक बर्फ की सफेद चादर फैली दिख रही थी......इंसान का नामोनिशान भी न था.…..सिर्फ कुछ बिना पत्तियो वाले पेड़.....जिनकी टहनियां भी बर्फ से लदी हुई थी.....और मस्ती करते हुए कुछ सफेद बर्फीले भालू।
इन्ही पहाड़ियों के बीचों बीच एक लंबी सी सुरंग थी...जिसका द्वार भी बर्फ से दब चुका था..... इस सुरंग में हवा का एक चक्रवात सदियों से पशु पक्षियों के कौतूहल का केंद्र था....क्योकि आमतौर पर इतनी ऊंचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा बहुत ही निम्न होती है.....पर यह बर्फ़ीली आंधी का चक्रवात एक ही जगह पर सैकड़ो वर्षो से घूम रहा था।
दरअसल यह एक सामान्य चक्रवात नही था.....यह तो एक कैद थी......जिसमे अंधेरे का राजा ....शैतान सम्राट..... द ग्रेट वैम्पायर.…..ड्रैकुला....अनन्त समय के लिए कैदी बनकर रह रहा था।
चक्रवात के अंदर ड्रैकुला का निस्तेज शरीर पड़ा हुआ गोल गोल घूम रहा था.....उसकी आत्मा शरीर के अंदर तो थी पर सीने में धंसे हुए सफेद क्रॉस की वजह से शरीर को नियंत्रित नही कर पा रही थी......जिंदा था तो बस उसका मस्तिष्क.…...जिसके दम पर ड्रैकुला सदियों से अपनी आजादी के प्रयत्न करता आ रहा था।
आज भी ड्रैकुला का मस्तिष्क उसके जिंदा होने का प्रमाण दे रहा था.....ड्रैकुला का गुस्सा सातवें आसमान पर था....अगर इस वक्त वह आजाद होता तो शायद उसके गुस्से के ताप से सारा हिमालय पिघल कर समुंदर बन जाता ।
"यूलेजियन..... यूलेजियन.....तुम्हारी वजह से मुझे सदियों से इस कैद को भोगना पड़ रहा है......आज आज फिर तुम्हारे वंशज ने मेरा रास्ता काट दिया....जी करता है कि तुमको तुम्हारी सभी नस्लो के साथ ही कही दफना दूं.......बहुत जल्द निकलूंगा इस कैद से मैं.....पता नही कितनी सदिया गुजर चुकी है इस कैदखाने में मुझे......यूलेजियन.... तुम तो जीवित भी नही होगे अब.....पर ड्रैकुला तो अमर है.....हां अमर हूँ मैं....एक बार बाहर निकल आऊं फिर तुमसे प्रतिशोध तो मैं सारी दुनिया को नरक की आग में जला कर लूंगा।.....बस थोड़ा इंतजार और.....आ रहा हूँ मैं दुनियावालो.….....तुमको अपना गुलाम बनाने.…....हा हा हा हा।"
उधर दिल्ली में आला हाईकमान की इमरजेंसी मीटिंग जारी थी.....देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा था.....कि किसी आपातकालीन मीटिंग का आधिकारिक रूप से प्रमुख बिन्दु शैतानी शक्तियां थी......इस मीटिंग में दिल्ली पुलिस के बड़े अधिकारी, भारतीय सेना की तीनों कमांड के प्रतिनिधि, व कुछ बड़े नेता भी थे।
विवेक,लीसा और इंस्पेक्टर हरजीत सिंह द्वारा इस सारे घटनाक्रम के प्रत्येक पहलू के बारे में सभी के समक्ष विस्तृत विश्लेषण किया जा रहा था।
पिछले कुछ दिनों में देश की राजधानी में जो घटनाएं हुई, सरकार ने उसको बड़ी गम्भीरता से लिया था....यही कारण था कि सरकार सिर्फ किस्से कहानियों के काल्पनिक खलनायक ड्रैकुला को इंसानियत के लिए आने वाला बड़ा खतरा घोषित करके.....उसे रोकने की रणनीति तैयार करने लगी थी।
भारतीय मीडिया को एक बड़ा मसाला मिल चुका था......न्यूज़ चैनलों पर लाइव डिबेट जारी थी......कुछ विद्वान इसको एक बड़ा खतरा बता रहे थे......तो कुछ इसको वर्तमान सरकार द्वारा रचा हुआ एक झूठा ड्रामा।
देश का एक बड़ा तबका यह मानने को तैयार ही न थे.....की वैम्पायर,ड्रैकुला..... ये सब सच मे होते भी है।
फिलहाल चारो ओर अफरा तफरी का माहौल था....अफवाहों का बाजार भी एकदम गर्म था....
जिस ड्रैकुला के अस्तित्व तक पर अभी भी प्रश्नचिन्ह लगा हुआ था.....जिस ड्रैकुला के होने का भी कोई प्रमाण शेष न था.....उसके आने की सम्भावना ने ही हर तरफ खलबली मचा दी थी......सरकार द्वारा सेना और पुलिस की एक संयुक्त टीम बनाकर इस मुसीबत को आने से पहले ही खत्म कर देने की जिम्मेदारी दी गयी।
विवेक और लीसा को भी स्पेशल मेम्बर के रूप में इस टीम का हिस्सा बनाया गया ......और इस प्रकार शुरुआत हुई 'ऑपरेशन ड्रैकुला' की।
ड्रैकुला को रोकने का सबसे पुख्ता तरीका था......पेट्रो को ढूंढ कर नष्ट करना.....जिससे वह ड्रैकुला को कैद से आजाद न करवा पाए।
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दिल्ली से देहरादून जाने वाली जनशताब्दी एक्सप्रेस दो घण्टे की देरी के साथ प्लेटफॉर्म पर पहुंच चुकी थी......प्लेटफार्म पर आम दिनों की ही तरह चहल पहल थी।
अचानक से ओवर ब्रिज की सीढ़ियों के पास चीख पुकार मच गई......चारो तरफ लोगो का जमावड़ा था....और उनके बीच पड़ी थी चार लाशें......जिनमे तीन विदेशी टूरिस्ट थे.....और एक इंडियन।
सभी के गले पर थे खून से सने हुए वही चिरपरिचित निशान.....किसी जंगली जानवर के दांतों के जैसे.......
मतलब साफ था......दिल्ली के बाद पेट्रो का नया ठिकाना देहरादून ही था......लीसा से टकराकर कमजोर होने के बाद पेट्रो एक बार फिर से अपनी शक्तियों को बढ़ा रहा था.....जल्दी से जल्दी वह अपने मालिक ड्रैकुला को आजाद देखना चाहता था।