विवाह - एक पवित्र बंधन
माँ मैंने दिनेश को छोड़ने का मानस बना लिया है, आपके और पापा के कहने पर मैंने यह विवाह तो कर लिया, पर मगर अब और नही निभा पाउंगी ।
सीमा अपनी माँ से बोल रही थी न मुझे उनका रहन - सहन अच्छा लगता है न हर समय कल्पनाओं में डूबे रहना... सोच रही हूं दिनेश को छोड़ कर, घनश्याम से नाता कर लूं, सुख व आराम की जिंदगी तो बसर होगी, वरना दिनेश के साथ रहकर तो वही घिसी - पिटी सी जिंदगी ही गुजारनी पड़ेगी ।
ये क्या कह रही हो तुम, विवाह न हुआ, कोई खेल हो गया । आज इससे नहीं जमीं तो उसे पसंद कर लिया । वैसे क्या बुराई है क्या है दिनेश में...
यही न कि वो आज - कल के लड़कों की तरह आधुनिक और पेंशन नहीं करता है, नहीं है तो ना सही लेकिन दिल से बहुत अच्छा है हमारे दामाद जी...
अरे पति जुआरी हो, शराबी हो, अय्याश हो तुम्हारी देखभाल न करता हो, तो हम खुद ही तुम्हें उसके साथ नही रहने देंगे । वो घनश्याम जिसके साथ तुम्हे सुख व आराम नजर आ रहा है, जिस दिन पिता की सत्ता खत्म हुई, उसी दिन वो भी सब खत्म हो जाएगा । सोच समझ कर फैसला करना बेटी, तनिक, सुख के लिए विवाह जैसे पवित्र रिश्ते और नेकदिल व भले पति को ठुकराओगी तो "तुम कहीं की भी नहीं रहोगीं ।" सदा जहन में रखो जो अग्नि के सात फेरे लेकर तुम्हें ले गया है वही तुम्हारा सुख - दुख बांट सकता है और कोई नहीं ।
सीमा विचार रही थी सही मे दिनेश उसकी कितनी देखभाल करता है तभी तो आज तक उसकी हर गलती को नज़र अन्दाज करता आया है । कहाँ उस घनश्याम की तुलना दिनेश से कर रही हूँ जो न जाने हर दिन कितनी ही लड़कियों को मोटरसाइकिल पर बिठाकर कोरे सपने ही दिखाया फिरता रहता है।
माँ की समझाइश ने उसे जीवन में बहुत बड़ी गलती करने से सुरक्षित कर ली । यही सब विचारतें हुए कब सो गई जानकारी भी न चल पाई । सवेरें आंख खुली तो देख दिनेश उसके सिरहाने बैठा हुआ था हाथ में उसके पसन्दीदा गुलाब लिए ।