Mujahida - Hakk ki Jung - 22 in Hindi Moral Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 22

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 22

भाग 22
काॅलेज कैम्पस के अन्दर वो सभी दोस्त पहले से मौजूद थे। जो फिज़ा को देखते ही खुश हो गये थे। उसने आते ही नकाब को उतार दिया था। चूंकि निकाह के बाद आज वह पहली मर्तवा सबसे मिल रही थी। चारों तरफ से मुबारकां.... मुबारकां.... यही आवाज़ उसे सुनाई पड़ रही थी। सब उसे शादी की मुबारकबाद दे रहे थे। उसने मुस्कुरा कर सबका शुक्रिया अदा किया। तभी नग़मा ने आकर उसे पीछे से दबोच लिया। फिज़ा ने बनावटी नाराजगी जताते हुये कहा- "जा मैं तुझसे बात नही करती। तू शादी में क्यों नही आई??
"जितने गिले-शिकवे करना है तुझे कर लेना, इस समय पेपर के बारें में सोच बस।" दोनों मुस्कुरा दीं। एक दूसरे का हाथ पकड़े क्लास रुम की तरफ बढ़ गयीं। उनका पूरा सहेलियों का झुण्ड साथ था। उन सब ने क्लासरुम के बाहर लगी लिस्ट में अपना-अपना नाम तलाशा। सभी के क्लासरूम आस-पास ही थे। उन्होनें अन्दर दाखिल होने से पहले अपनी-अपनी किताबों को बाहर जमा करवा दिया था।
नग़मा की सीट बराबर वाले कमरें में पड़ी थी। फिज़ा अपनी सीट पर आकर बैठ गयी। उसने सबसे पहले खुदा को याद किया और फिर मन्नत माँगी कि पेपर अच्छा हो जाये। घण्टी बज चुकी थी। आन्सर सीट भी मिल गयी थी। क्वाश्चन पेपर मिलने में अभी तीन मि. बाकि थे। जब तक क्वाश्चन पेपर आता है सभी ने अपनी-अपनी आन्सर शीट को रोल नम्बर और बाकि डिटेल से भर लिया था। एक मर्तवा फिर से घण्टी बजी। ये घण्टी पेपर बाँटने के लिये थी।
पेपर हाथ में आते ही फिज़ा पूरा पेपर एक ही साँस में पढ़ गयी। वह बहुत खुश थी। ज्यादातर सवाल वही थे जिसके जवाब उसे आते थे। अरे वाह..सुबह -सुबह जिन सवालों का मुतालाह उसने किया था वह तो सामने ही रखे थे। जल्दी से उसने सवाल नम्बर डाल कर लिखना शुरू किया और फिर विना रुके बस लिखती ही गयी। उसे लग रहा था अगर जरा भी देर लगाई तो वह सब भूल जायेगी।
करीब एक घण्टा हो चुका था। इस एक घण्टें में वह आधे से ज्यादा पेपर निबटा चुकी थी। वह सोच रही थी काश! सारे पेपर भी ऐसे ही आ जायें तो कितना अच्छा हो। यहाँ से निकलते ही अम्मी अब्बू को फोन कर बताऊँगी तो वो लोग कितना खुश होंगें?
उस पूरे हाल में सन्नाटा था। सभी लिखने में तल्लीन थे। सी. ए. का पेपर लम्बा होता है और वक्त कम। सुई गिरे तो आव़ाज आये। फिज़ा ने घड़ी की तरफ देखा। चार बजने वाला था। वह जैसे ही लिखने के लिये झुकी, उसे कुछ शोर सुनाई दिया। गार्डी टीचर किसी को अन्दर आने से रोक रहे थे। बेशक उन्होनें पूरी कोशिश की वो लोग अन्दर न आ पायें, मगर दबंगई के चलते वो अन्दर घुस आये। फिज़ा ने आँख उठा कर देखा आरिज़ और उसके भाई जान उसे लेने आये थे। उन्होने गार्डी टीचर को धमकाया- " देखिये, हमें किसी से मतलब नही है। हम सिर्फ फिज़ा को लेने आये हैं। ये हमारी बीवी है।"
उन्होने समझाया भी और निवेदन भी किया- "देखिये पेपर पूरा हो जाने दीजिये सिर्फ़ दो घण्टे की ही तो बात है। खामखाहँ साल खराब हो जायेगा।"
" हमें ख़ुत्बा न दें, आपकी नौकरी तो क्या? हम ये कालेज भी खा जायेगें समझे।"
उस हाल में अच्छा खासा तमाशा खड़ा हो गया था। मजबूरन फिज़ा को बाहर आना पड़ा। इजि़्तराब से उसके पैर काँपने लगे। इस जफ़ा के आगे वह असीर की तरह खड़ी थी। आज़दार्ह से वह टूटने लगी। आरिज़ ने सबके सामने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा- "इस्लाम में औरतों का मुतालाह गुनाह है। किसकी इजाजत से आप यहाँ आईं हैं? क्या आप जानती नही आप किस खानदान की दुल्हन हैं? चलिये घर चलिये फिर बात होगी।"
आरिज़ के भाई जान खामोश थे। वह खुद ही तो उसे यहाँ छोड़ने आये थे। फिर बेसाख़्ता क्या हो गया ?
फिज़ा ने आकि़बत की परवाह किये बगैर एक बार फिर इल्तिज़ा की- "दो घण्टे मेरी जिन्दगी के लिये बहुत कीमती हैं।" मगर उनके ऊपर एक जुनून सा सवार था। उसने फिज़ा की एक न सुनी। न तो दिल की सुनी न जुवान की। कैम्पस में आने- जाने एक-दो लोग इकट्ठा हो गये थे। शर्मिन्दगी की बजह से फिज़ा की नजरें झुक गयीं थीं। उसे समझ नही आ रहा था कहाँ गढ़ जाये। उसे लग रहा था लोग उसे ही शक की नजरों से देख रहे हैं। गुनाहगार न होते हुये भी असीर के माफिक वही खड़ी थी और आरिज़ उससे न जाने कौन सा कीना निकाल रहा था।
शायद फिज़ा बद अख़्तर थी। मायूसी से कदम बढ़ाती हुई लगभग वह खींची जा रही थी। आरिज़ ने उसका हाथ कस कर पकड़ रखा था। अगर रस्सी होती तो लगता जैसे पुलिस वाले कैदी को खीँच कर ले जा रहे हैं। पूरे कालेज के सामने अपनी इज्जत की धज्जियां उढ़ते हुये वह देखती रही। कुछ नही कर सकी थी सिवाय आँखें नीची करने के। गेट पर फिर से जगदीश मिल गया था मगर इस बार वह निगाहें न मिला सकी थी। जगदीश उसे जाते हुये हैरत से देख रहा था।
कार में बैठनें से लेकर घर आने तक कोई कुछ न बोला। गाड़ी में एकदम सन्नाटा पसरा था। दोनों भाई आगे बैठे थे और फिज़ा पीछे। उसका दिल चाह रहा था वह यहाँ से निकल कर भाग जाये। गाड़ी के दरवाजे को तोड़ दे। "आरिज़! तुम जैसे लोग ही इस्लाम को बदनाम करते हैं और अपने फायदे के लिये झूठ और मक्कारी की बुनियादें खोद लेते हैं। इस्लाम में कहाँ लिखा है कि औरतों का मुतालाह गुनाह है? खुदा से डरो..खुदा के बंदों!"
रास्ते भर वह खिड़की से बाहर देखती रही, फिर भी उसने कुछ नही देखा था। आँखों में आँसुओं का गीलापन था जिसमें सामने की तस्वींरें थररा रही थीं और उस थरथराहट में कुछ भी दिखाई नही दे रहा था। इतनी धुँधली हो गयी थीं कि जैसे किसी ने गीली पेंटिंग पर पानी डाल दिया हो।
आज उसे अपने वालदेन की बहुत याद आ रही थी। उसके अब्सार के आगे अम्मी जान का चेहरा घूम गया। दोनों आँखों में थमें हुये आँसू टप-टप गिरने लगे। अपने और अपने वालदेन के ख्वाबों को पामाल वह खुद ही देख रही थी। दिल में मायूसी की इन्तहां थी जिसे आज पहली बार देखी थी उसने।
अफ़सुर्दा घर में घुसी तो सामने ही नुसरत फूफी पड़ गयीं। घर का माहौल अच्छा नही था। जरुर कुछ हुआ है? शक शुब्हा तो उसे पहले से था। नुसरत फूफी का मुँह भी फूला हुआ था। बावजूद इसके वह उनसे जाकर लिपट गई। नुसरत जैसे पहले से सब जानती थी। उसने फिज़ा को पहले तो कस कर लिपटा लिया फिर बेसाख़्ता कहने लगी - "जा फिज़ा कमरें में जा। हमें कुछ जरूरी बात करनी है।"
वह फूफी जान से अलग हुई और तेजी से अपने कमरें की तरफ दौड़ गयी। बिस्तर पर औँधी लेट कर सुबुकने लगी। एक तो जिन्दगी के ख्वाब को टूटने का गम था, दूसरे कालेज में हुई बेईज्जती की घुटन, तीसरा ये घर में आने वाले भूचाल की घण्टी, जिसने उसकी जान निकाल दी थी। बेशक वह औँधी पड़ी रो रही थी मगर उसके कान बाहर किसी अनहोनी की आशंका से काँप रहे थे। उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा था। आज सुबह से ही घर का माहौल ठीक नही था, ये बात तो वह जान गयी थी मगर उसने सारा ध्यान अपने इग्साम पर रखा था।
बाहर से आव़ाजे आ रही थीं, जो उसके कानों में पड़ने लगी थीं। उसने उन्हे सुनने की कोशिश की। ज्यादा तो नही बस इतना समझ आया कि वो लोग इस शादी से बिल्कुल भी खुश नही थे और इसका इल्जाम वो नुसरत पर लगा रहे थे। इस बार आरिज़ की अम्मी जान ने तंज कसा था- "हमें ऐसी लड़की नही चाहिये जो अपनी मन मर्जी करे। एक तो ज़हेज में जो भी लेकर आई है सब का सब खटिया और बेकार है। उस पर ये सी. ए. का भूत चढ़ा है उस पर..लाहोलबकूबत.... घर में और भी दो-दो दुल्हनें हैं, मजाल है जो हमारी इजाजत के बगैर पैर भी बाहर निकाल दें। नुसरत! तुमने तो बड़ी-बड़ी हाँकी थी। लड़की काबिलेतारीफ है। चौके चूल्हे से लेकर हर काम में होशियार है। चाँद सी खूबसूरत है। बताओ कहाँ है सब? और फिर ऐसी खूबसूरती को हम चाटेंगे क्या?" बात-बात पर नाक चढ़ाती है।
"जैसा आप सोच रहीं हैं ऐसा बिल्कुल भी नही है। फिज़ा बहुत ही प्यारी और नेक बच्ची है। वो कभी किसी का बुरा नही सोच सकती, ये बात हम दावे के साथ कह सकते हैं। आपको जरुर कुछ गलत फहमी हुई है।" नुसरत पूरी जान से अपनी सफाई दे रही थी।
"नुसरत आप हमें बेवकूफ न समझें। इतनी तेज लड़की हमारे घर में नही चल पायेगी। शरीफ औरतें कभी जुवान नही खोलतीं हैं अपनी। बड़ो का लिहाज़ करती हैं।"
नुसरत की आँख में आसूँ भर आये थे। उसे अपनी और अपने भाईजान की बेइज्जती बर्दास्त नही हो रही थी।
क्रमश: