Kshama Karna Vrunda - 18 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | क्षमा करना वृंदा - 18

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क्षमा करना वृंदा - 18

भाग -18

सब जानते हैं कि मेरा कोई पार्टनर नहीं है। मैं सिंगल हूँ। ऐसे में सबकी ज़ुबान पर एक ही बात तुरंत ही आएगी कि इतने दिनों से एक जवान लड़के के साथ घर में बंद रही। ख़ूब ऐश की। उसी का रिज़ल्ट है यह प्रेग्नेंसी, सब मुझ पर ही टूट पड़ेंगे। मुझे पापी ही कहेंगे। कोई मेरी इस थ्योरी को सुनेगा ही नहीं कि मैंने महामारी के सबसे भयानक दौर मैं, अत्यंत कठिन स्थितियों का अकेले ही सामना करते हुए, एक स्पेशल यंग बॉय की जान बचाने के लिए यह सब किया था।

यह दुनिया के सबसे बड़े सैक्रिफ़ाइस में गिना जाना चाहिए। मैंने उसकी जान बचाने के लिए न सिर्फ़ अपनी शर्म, अपना शरीर उसे बार-बार सौंपा, बल्कि आज भी वह मासूम मेरे शरीर से खेलते-खेलते ही सोता है। मैं लाख न चाहते हुए भी, उसे अब भी यह सब रोज़ करने दे रही हूँ, न कि मैं उसके साथ एंजॉय कर रही हूँ। ओह गॉड, ओह गॉड सेव मी।

मैंने तनाव में यह सब बुदबुदाते हुए दो-तीन बार अपना माथा पीट लिया था। तनाव में मुझे हमेशा कॉफ़ी ही याद आती है। मैं ब्लैक कॉफ़ी बनाकर पीती रही, सोचती रही, क्या करूँगी यदि ऐसा कुछ हुआ तो। सामने सोफ़े पर ही लियो लेटे-लेटे सो गया था।

उसे देखते हुए मैंने मन ही मन कहा, “लियो तुम्हें परेशान होने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हारे लिए सब-कुछ करूँगी। मैं तुम्हारे लिए क्या कर गुज़रूँगी ख़ुद मुझे कोई अंदाज़ा नहीं है।

“अब हम-दोनों जल्दी ही ग्रेट डांसर बनेंगे। दुनिया हमारे डांस पर तालियाँ बजाएगी। यदि प्रेग्नेंसी हुई तो मैं उसे ख़त्म कर दूँगी। अभी होगी भी तो एक डेढ़ महीने की ही होगी। अकेले किसी हॉस्पिटल में एक दिन बिता लूँगी। देखती रहूँगी तुझे मोबाइल में। इतने दिनों में तो तुम और भी ज़्यादा स्मार्ट हो गए हो। अब तुम्हें अकेले छोड़ने में ज़्यादा टेंशन नहीं होगी।”

वृंदा की बात सही निकली। तीन दिन बाद ही ग्रीन ज़ोन घोषित हो गया। इसके साथ ही हॉस्पिटल खुल गया। पहले दिन हॉस्पिटल में ड्यूटी के बाद लौटते समय मैंने कई घरेलू सामान के साथ-साथ एक-दो नहीं, पूरी दस प्रेग्नेंसी चेक किट भी ले ली।

लेते समय मुझे मोबाइल में पढ़े दो समाचार याद आ रहे थे। डब्ल्यू.एच.ओ. की एक रिपोर्ट बहुत वायरल हुई थी कि लॉक-डाउन से उत्पन्न स्थितियों के कारण दुनिया में क़रीब पचहत्तर लाख अनचाहे गर्भ होंगे। पढ़ते समय मैंने सोचा था कि इससे ज़्यादा अजीब समाचार और क्या होगा!

लॉक-डाउन के दौरान दुनिया में सब सेक्स, सेक्स और सिर्फ़ सेक्स ही करते रहेंगे क्या? और सब इतने मूर्ख हैं कि बिना कॉन्ट्रासेप्टिव के ही। पता नहीं दुनिया में कभी इसके पहले, ऐसी न्यूज़ आई थी कि नहीं।

दूसरी बात यह याद आ रही थी कि इन अनचाहे गर्भ में से लाखों को आने से पहले ही मार दिया जाएगा। घर पहुँच कर स्कूटर खड़ी करते समय मैंने सोचा कि मैं उस समय कितनी ग़लत थी। तब यह दोनों बातें मुझे कितनी बेवक़ूफ़ी भरी लग रही थीं, लेकिन सच में उस समय दोनों बातें कितनी सटीक कही गई थीं।

मैं भी तो इसी की तैयारी में लगी हूँ। परिस्थितियों ने अनचाहे सेक्स के लिए विवश किया, वह भी बिना कॉन्ट्रासेप्टिव के ही। और अनचाहे गर्भ की सम्भावना के चलते उसे ख़त्म करने की तैयारी में लगी हुई हूँ। ऐसे ही न जाने कितने लोग परिस्थितियों के आगे विवश हुए होंगे।

मगर यह बात भी तो सामने आनी ही चाहिए न कि इस लॉक-डाउन से अनचाहे ही नहीं, चाहते हुए जो प्रेग्नेंसी हुईं, वह भी तो लॉक-डाउन, लगभग सभी हॉस्पिटल्स को कोविड हॉस्पिटल्स बना दिए जाने कारण, कोई भी ट्रीटमेंट नहीं मिलने के चलते माँ, बच्चे दोनों ही बेमौत मारी जा रहीं हैं।

देश ही नहीं दुनिया के सभी देशों को बाक़ी लोगों की चिकित्सीय ज़रूरतों को भी हर हाल में देखना ही चाहिए, नहीं तो कोविड से ज़्यादा तो लोग ऐसे ही मर जाएँगे। कोविड से मरने वालों की तो गिनती भी की जा रही है। इन लोगों पर ध्यान क्यों नहीं दिया जा रहा है? क्या इनके प्राणों का कोई मूल्य नहीं है?

क्या बीती होगी उस बेचारी माँ पर? प्रेग्नेंट होने के बावजूद परिवार, सैकड़ों अन्य लोगों के साथ सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा कर औद्योगिक शहर से अपने गाँव चली जा रही थी। रास्ते में ही डिलीवरी हो गई।

लेकिन समूह और परिवार के दबाव में आकर उस बेचारी ने अपने हृदय पर पत्थर रख कर, अपने नवजात शिशु को सड़क के किनारे ही छोड़ दिया और अपनी यात्रा जारी रखी। कितनी हृदय-विदारक, महाकष्टदायी थी उसकी स्थिति। डिलीवरी के बाद महिलाएँ हफ़्तों काम-धाम नहीं करतीं, आराम करती हैं। और वह बेचारी तुरंत ही फिर चल दी।

दुनिया में न जाने कितनी महिलाओं के साथ ऐसा हो रहा होगा। उसके पति के मन में भले ही न आया हो, लेकिन वह माँ थी, उसके मन में तो यह ज़रूर ही आया होगा कि उसके हृदय का टुकड़ा किसी हिंसक जानवर का निवाला ज़रूर बन जाएगा।

क्योंकि जबसे कोरोना वायरस ने, इंसान की सारी हेकड़ी ठिकाने लगा कर, उसे उसके ही घर में, गृह-कैद में डाल दिया है, तबसे इंसानों के डर से, जंगलों में दुबके जानवर, इंसानों की बनाई सड़कों, ठिकानों पर भय-मुक्त विचरण करते हुए, दुनिया भर में दिख रहे हैं।

यह कहो कि उस बच्चे की क़िस्मत अच्छी थी कि उसे मेरी ही सोच वाला एक दंपती मिल गया। जिसने उसे चाइल्ड लाइन पहुँचा दिया। कोरोना तो कोरोना, यह लॉक-डाउन भी न जाने क्या-क्या कराएगा?

दिन-भर अकेले ही रहे लियो के साथ चाय-नाश्ता करने के बाद, मैंने अगला काम प्रेग्नेंसी चेक करने का ही किया। रिपोर्ट नेगेटिव आते ही मैं बहुत ख़ुश हुई। लेकिन मैं हर तरह से निश्चिंत होना चाहती थी, इसलिए दो-तीन दिन के अंदर कई बार चेक किया। हर बार नेगेटिव रिपोर्ट आने पर ही मैं पूरी तरह से निश्चिंत हुई।

मगर एक और तकलीफ़ जिसे मैं बीते कुछ महीनों से, हर सप्ताह में दो-तीन दिन बर्दाश्त कर रही थी, अब उसका भी चेकअप करवा लेना चाहती थी, सो उसे भी करवाया। सप्ताह-भर बाद आई जाँच की रिपोर्ट देखकर, डॉक्टर ने मुझे जो कुछ बताया, उससे मैं ख़ुद को सँभाल नहीं पाई। सदमें से बेहोश हो गई। सारा स्टॉफ़ सकते में आ गया। छुट्टी लेकर वृंदा टैक्सी से मुझे घर ले आई।

वह भी बहुत सदमें में थी। हँसमुख, बातूनी स्वभाव के बावजूद वह रास्ते-भर में मुझसे दो-तीन बार सिर्फ़ इतना ही कह सकी कि “हिम्मत रखो फ्रेशिया, तुम बहुत बहुत बहुत बहादुर हो। हम सब तुम्हारे साथ है ना। प्रॉब्लम समय से पता चल गई है। ट्रीटमेंट होगा, सब-कुछ ठीक हो जाएगा।”

सच यह था कि वृंदा स्वयं बहुत डर गई थी, ख़ुद उसकी ज़ुबान पर कोई शब्द नहीं आ रहे थे। बुरी तरह लड़खड़ा रही थी। उसकी बात सुनकर मेरे होंठ फड़क उठते। मैं बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई रोक पा रही थी।

वृंदा ने घर पहुँच कर कहा, “तुम आराम करो, मैं तुम्हारे लिए नाश्ता तैयार करती हूँ।”

मैंने कहा, “नहीं-नहीं वृंदा, तुम बैठो। अभी ऐसी कोई बात नहीं है। मैं बनाती हूँ।”

असल में मैं जिस तरह से सब-कुछ सैनिटाइज़ करके किचन में जाती थी, उस तरह से सब करने के लिए उससे तो नहीं कह सकती थी। मुझे संकोच था कि इससे उसके हृदय को चोट पहुँचेगी।

लेकिन मैं किसी तरह का कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी। हालाँकि उसकी कॉलोनी भी ग्रीन ज़ोन में ही थी, लेकिन कोरोना का भय मुझे रेड ज़ोन से बाहर नहीं निकलने दे रहा था। मेरा मन भी किचन में जाने का बिलकुल नहीं था। लेकिन यह अच्छी तरह समझ रही थी कि यदि मैं तुरंत नहीं उठी तो वृंदा लियो, मेरे लिए नाश्ता तैयार किए बिना नहीं जाएगी।

इसलिए मैं सामान्य दिखने का प्रयास करती हुई तुरंत उठी, वृंदा का ध्यान दूसरी ओर मोड़ने के लिए सबसे पहले उसे कमरे के दरवाज़े से ही दूर बैठे लियो को दिखाया। जो अभी भी मेरी प्रतीक्षा में बैठा था।

उसे इस बात का अहसास नहीं था कि मैं, वृंदा मात्र नौ फ़ीट की दूरी से उसे देख रही हैं। उसे नाक अजीब तरह से सिकोड़ते देख कर वृंदा ने पूछा, “यह नाक ऐसे क्यों सिकोड़ रहा है?”

मैंने कहा, “असल में इसे डाउट हो रहा कि मैं आ गई हूँ। सेनिटाइज़र और हमारे कपड़ों से जो हॉस्पिटल की दवाओं आदि की स्मेल आती रहती है, उसे यह फ़ील कर रहा है। अब-तक यह उठ कर मुझे ढूँढ़ते हुए दरवाज़े तक आ जाता।

“पहले दिन ख़ुद को सेनिटाइज़ कर ही रही थी कि तभी यह एकदम से आकर मुझसे चिपक गया था, तो उस दिन मैंने इसे समझाया कि आने के बाद मैं हैंड-वाश करके जब ख़ुद तुम्हारे पास आऊँगी तभी मुझे छूना। उसके पहले अपनी जगह बैठे रहना। इसकी स्मेल पॉवर बहुत स्ट्रॉन्ग है।”

“ओह, मैं तो समझ ही नहीं पाई थी। कितना प्यारा मासूम लग रहा है।”

थोड़ी देर में नाश्ता टेबल पर था। मैंने लियो को देकर बताया कि वृंदा आंटी भी आई हैं, तो उसने ताली बजा कर अपने तरीक़े से ख़ुशी प्रकट की और नाश्ता करने लगा। मुझसे गले नहीं मिला, न ही हमेशा की तरह अपने हाथों से मुझे कुछ खिलाया।

नाश्ता सामने था, लेकिन हम-दोनों का मन उसे छूने का नहीं हो रहा था। मेरी आँखों में रह-रह कर आँसू आ जा रहे थे। मुझे बिलकुल शांत और आँखों में आँसू देखकर, वृंदा ने मुझे कॉफ़ी पकड़ाते हुए कहा, “तुम जैसी मज़बूत हो, वैसी ही बनी रहो फ़्रेशिया। तुम्हारी विल पॉवर ही इस बीमारी से तुम्हें बाहर निकाल सकती है।”

उस समय मेरे दिमाग़ में जो कुछ चल रहा था, उसे वहीं छिपाए हुए मैंने कहा, “वृंदा न मेरी विल पॉवर कमज़ोर हुई है, न मैं। लेकिन मैं उस लड़ाई को लड़ने में बिल्कुल यक़ीन नहीं करती, जिसका निर्णय पहले ही लिख दिया गया हो।

“मेरा कैंसर जिस स्टेज में है, और जितनी जगह में फैला हुआ है, उसे देखते हुए यह बात एकदम साफ़ है कि इस लड़ाई का निर्णय लिखा जा चुका है। तो ऐसे में तुम ही बताओ कि ऐसी लड़ाई को लड़ने में कौन सी बुद्धिमानी है।”

यह सुनते ही वृंदा चौंकती हुई सी बोली, “अरे नहीं-नहीं, ऐसा क्यों बोल रही हो। बीमारी की तरफ़ से आँखें कभी भी बंद नहीं करनी चाहिए। ट्रीटमेंट तो हर हाल में कराना ही है। बहुत सी नई-नई दवाइयाँ, मशीनें हैं। कितने ही पेशेंट ठीक हो रहे हैं। थर्ड स्टेज के भी। अभी तो तुम्हारा थर्ड स्टेज में नहीं है।”

“हाँ, ठीक हो रहे हैं। लेकिन ऐसा अभी रेअर ही हो रहा है। जिस स्टेज में मैं हूँ, उस स्टेज को थर्ड ही समझो। बाक़ी स्टेज वाले भी वही ठीक हो रहे हैं, जिनके साथ उनका परिवार है, लोग हैं, और ख़ूब पैसा है। मेरे पास न पैसा है, न ही मेरा कोई परिवार है।

“परिवार क्या होता है, यह तो मैं भूल ही गई हूँ। किसी परिवार में होने का एहसास क्या होता है, मैं यह भी नहीं जानती। जो भी थोड़ा बहुत एहसास है, नाना-नानी के द्वारा ही दिया हुआ है। मुझे अपनी चिंता नहीं है। जीवन जीने को लेकर मेरी कोई लालसा नहीं है। मुझे चिंता है, तो सिर्फ़ अपने लियो की।

“मैं अपनी ज़िम्मेदारी को कैसे निभाऊँ? मैं अपनी ज़िम्मेदारी किसी को सौंप तो नहीं सकती न। उसे किसके सहारे छोड़ूँगी। मेरा ट्रीटमेंट कोई एक-दो दिन तो चलना नहीं है। यह लंबा समय लेगा। कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी न जाने क्या-क्या करवाना होगा? जानती तो तुम भी हो सब-कुछ। कितनी असहनीय तकलीफ़, दुर्दशा होती है शरीर की।

“तुमने भी बहुत से पेशेंट देखे होंगे। बाल, भौंहे सब गिर जाते हैं। कितनी भयानक पीड़ादायी हो जाती है ज़िन्दगी। इतना सब-कुछ कराने, सारे ट्रीटमेंट के बाद भी अंततः कैंसर ही जीत जाता है। गिने-चुने लोग ही इससे जीत पाते हैं। फिर भी देखा जाए तो दवाएँ जीवन-भर चलती ही रहती हैं। हमेशा फिर से हो जाने का डर सताता ही रहता है।”

मैंने बहुत स्पष्ट सपाट लहजे में कहा, तो वृंदा ने मेरी भरी हुई आँखों को, अपनी भरी हुई आँखों से कुछ देर देखने के बाद कहा, “देखो फ़्रेशिया, इतना निगेटिव नहीं सोचो। किसी भी समस्या से हारने की बात दिमाग़ में आनी ही नहीं चाहिए। जीतना ही है, हम ही जीतेंगे, दिमाग़ में बस इतना ही होना चाहिए।

“ऐसा कुछ नहीं होगा। तुम हमेशा से, हर स्थिति में जीतती आई हो, अब भी जीतोगी। तुम जीतने के लिए ही बनी हो। तुम्हें जीतना ही है। तुम अकेली नहीं हो। मैं हमेशा की तरह तुम्हारे साथ हूँ।

“ट्रीटमेंट के समय किसी भीड़ की नहीं, एक दो ज़िम्मेदार आदमी की ही ज़रूरत होती है। जब-तक तुम ठीक नहीं हो जाओगी, तब-तक मैं छुट्टी ले लूँगी। छुट्टी ख़त्म होने पर लीव विदाउट पे ले लूँगी। यह भी नहीं मिली तो रिज़ाइन कर दूँगी। नर्स हूँ। तुम ठीक हो जाओगी तो नौकरी फिर किसी और हॉस्पिटल में ढूँढ़ लूँगी। रही बात पैसों की, तो मुझे गर्व है अपने पति पर। “मैं आज ही उनसे बात करूँगी। ट्रीटमेंट का सारा ख़र्च मैं देखूँगी। तुम्हें किसी बात की चिंता नहीं करनी है। लियो और तुम्हें, दोनों को मैं सँभाल लूँगी। मैं जो कह रही हूँ, इस पर आँख मूँद कर विश्वास करो, समझी। इतने बरसों में मुझे इतना तो समझ ही गई होगी कि मैं जो कर सकती हूँ, वही कहती हूँ।”