Kshama Karna Vrunda - 11 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | क्षमा करना वृंदा - 11

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क्षमा करना वृंदा - 11

भाग -11

आख़िर परेशान होकर मैंने अगले दिन अबॉर्शन के लिए अनरजिस्टर्ड हॉस्पिटल में सब-कुछ करवा कर, देर शाम को एक महीने की एडवांस सैलरी देकर, ऑटो से उसे घर तक छोड़ आई। जाते समय उसके लिए पैक फ्रूट जूस के अलावा काफ़ी फ़्रेश फ्रूट, ड्राई फ्रूट और ढेर सारी दवाइयाँ भी ले लीं थीं।

वह एक लेबर कॉलोनी जैसी बस्ती में टिन शेड पड़े एक कमरे में रहती थी। उसके दोनों बच्चे भी मुझे माँ का इंतज़ार करते मिले। घर की हालत बता रही थी, कि किसी तरह खाना-पीना चल रहा है।

बच्चों की कॉपी-किताबें भी दिखीं। दोनों शायद किसी सरकारी स्कूल में पढ़ रहे थे। घर की साफ़-सफ़ाई भी कुछ ख़ास नहीं थी। मैंने जब उसे बिस्तर पर बिठाया तो बच्चे माँ की पस्त हालत देख कर कुछ घबराए कि माँ को क्या हुआ?

मैंने उन्हें प्यार से समझाया कि “तुम लोग परेशान नहीं हो, कोई ख़ास बात नहीं है। माँ को परेशान नहीं करना। पेट में दर्द था। दवा दे दी गई है, सब ठीक हो जाएगा।”

मैंने देखा कि बच्चे काफ़ी भूखे लग रहे हैं, और फ़हमीना अभी कुछ काम करने लायक़ नहीं है, तो मैंने उससे कहा, “मैं थोड़ी देर में बच्चों और तुम्हारे लिए खाना लेकर आती हूँ। बच्चों को भूख लगी होगी।”

फ़हमीना बोली, “अरे नहीं, आप रहने दीजिए। मैं थोड़ी देर में कुछ बना लूँगी।”

मैंने सोचा इसकी हालत अभी ऐसी नहीं है कि ये काम-धाम करे। इसे अभी एक-दो दिन आराम करना ही चाहिए। तो मैंने कहा, “नहीं तुम अभी कम से कम दो दिन आराम करो। मैं दोनों दिन खाने-पीने की व्यवस्था कर दूँगी।”

फ़हमीना कुछ नहीं बोली, चुप रही। वास्तव में अपनी पस्त हालत के कारण वह ऐसा ही कुछ चाहती भी थी। बाज़ार से सबके लिए खाना लाकर जब मैं घर वापस चलने लगी तो फ़हमीना ने हाथ जोड़ कर मुझसे माफ़ी माँगी। बच्चों के सामने वह कुछ बोलना नहीं चाहती थी।

अगले दिन भी मैंने दोनों टाइम खाना पहुँचाया। उस दिन जब शाम को खाना देकर चलने लगी, तो उसने फिर हाथ जोड़ लिए। उसका चेहरा भावहीन हो रहा था, यह समझ पाना मुश्किल था कि उसके मन में क्या चल रहा है।

उससे ज़्यादा कुछ बात करने का मेरा बिलकुल मन नहीं हो रहा था, तो मैंने उसके हाथों को पकड़ते हुए धीरे से कहा, “चलती हूँ, अपना ध्यान रखना। दो-चार दिन और आराम करने के बाद कोई नया काम-धाम ढूँढ़ना।”

फ़हमीना चाहती थी कि मैं उसे काम से बाहर नहीं करूँ। लेकिन मैंने उसे एक महीने का वेतन देते समय ही काम पर आगे रखने से साफ़-साफ़ मना कर दिया था। वेतन के नाम पर मैंने यह पैसा इसलिए दे दिया था कि जब-तक उसे एकाध महीने में काम मिलेगा, तब-तक उसके घर का खाना-पीना चलता रहे।

उस दिन मैं रात-भर सोचती रही कि अब लियो को किसके सहारे छोड़ूँ? जेंट्स रखूँ तो उसकी जान को और ज़्यादा ख़तरा है। बुज़ुर्ग महिला को रखूँ तो, वह ख़ुद अपने से परेशान रहेगी। इसकी देखभाल क्या करेगी।

जब मुझे कोई रास्ता नहीं सूझा, तो अगले दिन मैंने स्वयं को बहुत मज़बूत किया और लियो को हर तरह से सब-कुछ समझा-बुझाकर, घर में बंद करके हॉस्पिटल चली गई। इंटरलॉक की एक चाबी पड़ोस में देकर रिक्वेस्ट की, कि ध्यान रखिएगा।

हालाँकि उन्होंने अनमने ढंग से ही चाबी ली। लियो के लिए मैं कहीं भी, किसी से भी रिक्वेस्ट करने से भी नहीं हिचकती थी। पहले दिन पूरा समय बहुत परेशान, व्याकुल रही कि पता नहीं कहाँ है? कैसा है? बार-बार उसे फ़ोन करके उसी से अपनी विशेष तकनीक में उसका हाल-चाल पता करती रही।

पूरे दिन मैं इतना बेचैन थी कि किसी काम में मेरा मन नहीं लग रहा था। बस यही मन करता कि कितनी जल्दी छुट्टी मिले और मैं तुरंत उड़ कर अपने लियो के पास पहुँच जाऊँ।

और देर शाम को छुट्टी मिलते ही सच में मैंने इतनी तेज़ स्कूटर चलाई कि देखने वालों को यही लगा होगा कि मैं उड़कर पहुँचना चाहती हूँ अपने गंतव्य तक।

घर में लियो मिलते ही किसी छोटे बच्चे की तरह मुझसे लिपट गया। मैंने भी उसे बाँहों में ख़ूब भींच कर भरा हुआ था। मेरा सिर उसकी ठुड्डी को छू रहा था।

बड़ी देर तक हम-दोनों एक ही जगह खड़े रहे। मेरी आँखों से आँसू निकल कर लियो की टी-शर्ट भिगोने लगे। गीलापन महसूस होते ही उसने तुरंत मेरे चेहरे को दोनों हाथों से पकड़ कर आँखों को छुआ।

मैं रो रही हूँ, यह समझते ही वह व्याकुल हो उठा। मेरे चेहरे को अपने दोनों हाथों में भरकर अपने ही तरीक़े से जल्दी-जल्दी पूछने लगा क्या हुआ? क्या हुआ? मैंने उसे समझाया कुछ नहीं, बस ऐसे ही आँसू आ गए। लेकिन वो मानने को तैयार नहीं हुआ।

मैं समझ गई कि अब इसे विस्तार से समझाए बिना बात बनने वाली नहीं। ये किसी भी सूरत में नहीं मानेगा। मैं उसे लेकर सोफ़े पर बैठ गई। उसे काफ़ी मुश्किल से समझाया कि तुम दिन-भर अकेले रहे, फ़ोन पर मुझसे ख़ूब बात की, इससे मैं बहुत ख़ुश हूँ, इसी से आँखों में आँसू आ गए।

इसी के साथ उसने पूछ लिया, आँसू तो रोने पर आते हैं। ख़ुश होने पर कैसे आ गए? उसके इस प्रश्न का उत्तर उसे समझाना, मुझे वैशाखी लेकर हिमालय पार करने जैसा दुष्कर्य लगा। मैंने कई बार कोशिश की, लेकिन हर बार उसका यही तर्क कि रोने पर आँसू, तो ख़ुश होने पर कैसे? बात मैं जहाँ ख़त्म करती, लियो वापस फिर प्रारम्भ बिंदु पर पहुँचा देता।

दिन-भर की थकी-हारी मैं लियो के इस तर्क से जहाँ एकतरफ़ एकदम पस्त हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ़ मन के एक कोने में ख़ुशी के फव्वारे छूट रहे थे कि लियो अब इतना समझदार हो गया है कि तर्क करने लगा है।

किसी बात को मासूम बच्चे की तरह आँख मूँद कर मानने को अब बिलकुल तैयार नहीं होता। इसके दिमाग़ में हर बात पर प्रश्न ही प्रश्न खड़े होना यह बताता है कि यह दिमाग़ी तौर पर बहुत तेज़-तर्रार और पूर्णतः स्वस्थ है।

मैंने उससे जब यह कहा कि मुझे बहुत भूख लगी है, तुम्हें भी लगी होगी। पहले चाय-नाश्ता, खाना-पीना कर लूँ, फिर सोने से पहले तुम्हें सारी बातें बताती हूँ। मुझे भूख लगी है, मेरी यह बात जानते ही वह तुरंत तैयार हो गया। उसके प्रश्न का उत्तर उसे पूरी तरह समझाने, संतुष्ट करने में मुझे तीन दिन लगे।

उस दिन सोने से पहले मैंने सीसीटीवी फुटेज चेक किए, तो मेरे कान खड़े हो गए। फ़हमीना ने उसे जो-जो पाठ पढ़ाया था। उसे वह बार-बार पढ़ना चाहता था। इसके लिए वह दिन-भर व्याकुल रहा।

पूरे घर में जैसे इधर-उधर भागता रहा। कई बार तो ग़ुस्से में तकियों को ज़मीन पर फेंका। फिर कुछ देर बाद ही उठाकर रखा भी। पूरे घर के रास्ते उसने ऐसे रटे हुए थे कि बिना छड़ी के ही आसानी से हर तरफ़ आ, जा रहा था।

कोई अच्छी बात थी तो सिर्फ़ यह कि उसका ध्यान अपने काम की तरफ़ भी था। दिन-भर में कई बार पैकिंग भी की। हालाँकि रोज़ से आठ-दस डिब्बे कम ही किए।

दिन-भर की उसकी गतिविधियों को देख कर मेरी नींद उड़ गई थी। मैं बार-बार यही सोचती कि इसके दिमाग़ से फ़हमीना के पढ़ाए पाठ को मिटाना ही होगा। नहीं तो यह ख़ुद को नुक़्सान पहुँचा सकता है।

लेकिन यह कोई आसान काम नहीं है . . . मगर कठिन कितना भी हो, करना तो हर हाल में है। क्योंकि यह किए बिना इसका जीवन सुरक्षित नहीं रहेगा।

यही सब सोचते-सोचते आधी से ज़्यादा रात बीत गई, दो बज गए लेकिन सो नहीं पाई। आँखें बंद करके लेटती कि सो जाऊँ, सुबह हॉस्पिटल भी जाना है, दिन-भर काम करना है। लेकिन मन में यही बात बार-बार उमड़ती-घुमड़ती रही कि जो भी हो, जैसे भी हो, इसे समझाऊँगी कि अभी इसके लिए तुम्हारी उम्र बहुत छोटी है। तुम्हें नुक़्सान होगा।

और बड़े हो जाओ तो तुम्हारी शादी कर दूँगी, तब मिसेज़ के साथ ख़ूब एन्जॉय करना। आख़िर हार कर मैंने नींद की एक टेबलेट खाई तब कहीं जा कर थोड़ी देर बाद सो पाई।

अगले तीन-चार हफ़्ते मैंने उससे इस बारे में ख़ूब खुलकर सारी बातें कीं। उसे सब समझाने का प्रयास किया। लेकिन हॉस्पिटल से लौटकर वीडियो फुटेज देखते ही अपना माथा पीट लेती। ग़ुस्से में फ़हमीना को तमाम अपशब्द कहती। क्योंकि लियो को समझाने का मेरा हर प्रयास उल्टा पड़ रहा था।

हफ़्ता बीतते-बीतते लियो अपने काम से बिल्कुल विरक्त हो गया था। बड़ी मुश्किल से आठ-दस डिब्बे ही पैक करता। इतने ही दिनों में एक और भी परिवर्तन तेज़ी हो रहा था। अब वह दिन-भर भटकने के बजाय गुम-सुम इधर-उधर बैठा रहता। बीच-बीच में एक दो बार चिम्पैंजियों की तरह पूरा मुँह खोल कर चीखता हुआ, अपने दोनों हाथों से अपनी छाती पीटता।

इतना ही नहीं अब वह हॉस्पिटल से मेरे आने पर, पहले की तरह उत्साह से नहीं मिलता था। अपनी शैली में न कुछ हँसता, न ही कुछ कहता। मेरी बात पर ग़ुस्सा भी होता।

मैं उसे पहले की तरह प्यार से अपनी बाँहों में लेने का प्रयास करती, तो वह कई बार मेरे हाथ को झटक देता। मुझ पर ख़ूब ग़ुस्सा होता कि मैंने फ़हमीना को भगा दिया। उसकी तबियत वग़ैरह कुछ ख़राब नहीं हुई है।

चाय-नाश्ता, खाना-पीना भी ठीक से नहीं करता। कई बार तो फेंक देता। मैं एकदम खीझ उठती। मेरे आँसू निकल आते। सबसे बड़ी समस्या तो मेरे सामने तब आ खड़ी हुई, जब एक दिन सुबह-सुबह उसने फ़हमीना को बुलाने की ज़िद पकड़ ली, इतनी ज़्यादा कि कई झूठी बातें उसे बताई, समझाई तब वह माना। मैं एक घंटा देर से ऑफ़िस जा पाई।

मेरा मन सारे समय उसके ऊपर ही लगा रहा है। इसके चलते एक जगह रेड-लाइट क्रॉस करने के कारण चालान हो गया। ड्यूटी में रोज़-रोज़ की डिस्टरबेंस के चलते अब आए दिन मुझे इंचार्ज की बातें सुननी पड़ रही थीं।

घर हो या बाहर मुझे एक क्षण भी आराम से बैठने को नहीं मिल रहा था। दूसरी तरफ़ लियो हफ़्ते, दूसरे हफ़्ते फ़हमीना को बुलाने की ज़िद करके मुझे नाकों चनें चबवाता रहा।

एक दिन मैंने सोचा कि एक बार फ़हमीना को बुला लाऊँ। उसी कहूँ कि वो स्वयं लियो से कहे कि उसकी तबियत ठीक नहीं रहती। इसलिए वह अब अपने घर पर ही रहती है। कहीं और नहीं जाती। और उसको जो छुएगा, वह भी बीमार हो जाएगा। इससे लियो फ़हमीना को बुलाने की ज़िद करना छोड़ देगा। इसके दिमाग़ में जो फ़हमीना का फ़ितूर भरा है, वह भी निकल जाएगा।

मैं अगले दिन शाम को ऑफ़िस से निकलने के बाद सीधे उसके घर पहुँची। टिन का दरवाज़ा आधा खुला हुआ था। मैंने फ़हमीना को दो-तीन आवाज़ दी, तो उसका बड़ा बेटा बाहर आकर बोला, “अम्मी नहीं हैं।”

“कितनी देर में आएँगी?”

“पता नहीं,” लड़का बहुत बेरुख़ी से बोला। मैंने सोचा इसे क्या हो गया है। उससे फिर पूछा, “कहीं काम पर गई हैं या बाज़ार?”

उसने फिर वैसी ही बेरुख़ी से जवाब दिया, “हमें नहीं मालूम।”

इसी बीच अंदर कुछ हलचल हुई। मुझे लगा कि फ़हमीना अंदर ही है। लड़का झूठ बोल रहा है। मैंने सोचा कि इंतज़ार करने के बहाने इससे कहूँ क्या कि मुझे अंदर बैठने दे। एक ही कमरा है। पता चल जाएगा कि ये झूठ बोल रहा है या सच। लेकिन कहीं इसने मना कर दिया तो बड़ी इंसल्ट होगी। चलो फ़ोन करके पूछ लेती हूँ कहाँ है, कितनी देर में आएगी।

मैंने बैग से मोबाइल निकाला ही था कि लड़का एकदम से बोल पड़ा, “अम्मी मोबाइल घर पर ही छोड़ गई हैं।”

मैं चौंक गई। ठहर गई एकदम। कुछ क्षण मूर्तिवत उसे देखने के बाद मोबाइल वापस बैग में रखते हुए सोचा, यह तो माँ से भी हज़ारों गुना ज़्यादा शातिर है। बारह-तेरह की उम्र में ही इतना शातिर है, आगे न जाने क्या करेगा! मैंने उससे और कुछ भी कहना-सुनना मूर्खता समझी और स्कूटर स्टार्ट कर घर आ गई।

घर पर लियो की हालत ने मुझे और परेशान किया। वह एकदम सुस्त चारों खाने चित्त बेड पर लेटा हुआ था। आँखें ऐसी लग रही थीं, जैसे वह एकटक छत को देख रहा हो। मैंने जल्दी से उसके पास पहुँच कर, दोनों हाथों से उसके गालों को प्यार से सहलाया कि उठो मैं आ गई हूँ। लेकिन उसने ग़ुस्सा दिखाते हुए करवट लेकर मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया।

मैंने उसे मनाने के कई प्रयास किए, लेकिन वह हर बार मेरा हाथ झटक देता। मुझे बहुत दुःख हुआ यह देखकर कि उसके खाने-पीने के लिए जितनी भी चीज़ें जहाँ, जैसे रख गई थी, सब वैसी ही पड़ी हुई थीं।

मैंने जल्दी से कपड़े वग़ैरह चेंज करके नाश्ता बनाया, बड़ी मुश्किल से उसे खिलाया। जिस तरह से उसने खाया, उससे लग रहा था कि वह बहुत देर से भूखा था।

खाना बनाते समय क़रीब साढ़े नौ बजे फ़हमीना को फ़ोन किया। उसने दूसरी बार कॉल करने पर रिसीव की। मैंने उससे सीधे कहा कि “तुमसे कुछ काम है, मैं कल शाम को साढ़े सात बजे तक घर आ जाऊँगी। उसके बाद तुम किसी भी समय आ जाओ। तुम्हारे आने-जाने का जो भी ख़र्च होगा, मैं दे दूँगी।”

“क्या काम है?” उसने अपने बेटे की ही तरह बेरुख़ी से ही पूछा। मैंने कहा, “बस दो मिनट का काम है, आओगी तो सब बता दूँगी।”

बड़ी ना-नुकुर के बाद फ़हमीना आने के लिए तब तैयार हुई, जब मैंने उसे अलग से दो हज़ार रुपए और देने के लिए कहा।

अगले दिन देर शाम को आकर उसने लियो को वह सारी बातें बताईं, समझाईं जो उसे मैंने बताई थी। लियो को जब फ़हमीना सारी बातें समझा रही थी, तब मैं लियो की छोटी सी छोटी प्रतिक्रिया का बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन कर रही थी।

मैंने देखा जब फ़हमीना उसे समझा रही थी, तो उसका व्यवहार ऐसा रहा, जैसे कह रहा हो, चलो दूर हटो मुझसे। उसका चेहरा ऐसा भावहीन हो गया था, जैसे उससे कोई संवाद नहीं किया जा रहा। वहाँ उसके पास कोई है ही नहीं। हाँ फ़हमीना के जाने के बाद जैसे वह किसी गहन चिंता में डूब गया, खाना भी पूरा नहीं खाया।

उस रात मुझे सोए हुए दो घंटे भी नहीं हुए थे कि मेरी नींद खुल गई। मैंने महसूस किया जैसे कि बेड हिल रहा है। लाइट ऑन करके देखा तो एकदम पसीने-पसीने हो गई। लियो का शरीर अजीब तरह से हिल रहा था। जैसे ख़ूब तेज़ काँप रहा हो।

मैंने बहुत ध्यान से उसकी हालत को समझने की कोशिश की। उसे पसीना भी हो रहा था, और बदन भी कुछ गर्म लग रहा था। उसका टेंपरेचर देखा तो वह क़रीब-क़रीब नॉर्मल निकला।

मैंने तौलिया गीला करके, उसके चेहरे को कई बार पोंछा। क़रीब दो-तीन मिनट के बाद उसका काँपना बंद हुआ। लेकिन उसकी नींद नहीं टूटी। वह सोता रहा।

मुझे शक हुआ कि कहीं मस्तिष्क में तनाव का स्तर अत्यधिक हो जाने के कारण तो ऐसा नहीं हो रहा है। मैं ध्यान से उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयास करती रही। कुछ मिनट के बाद लगा, जैसे वह कुछ बेचैन हो रहा है, फिर अचानक ही उसने आँखें खोल दीं।

मैंने उसे यह अहसास नहीं होने दिया कि मैं बैठी उसे देख रही हूँ। जिस तरह उसने अचानक आँखें खोलीं थीं, उसी तरह उठ कर बैठ भी गया। मेरा अध्ययन अब भी जारी था। मैंने देखा कि हमेशा की तरह उठते ही उसने मुझे नहीं टटोला कि मैं कहाँ हूँ।

उसने कुछ ही क्षण में अपने चेहरे को ऐसे छुआ, जैसे वहाँ कुछ लगा हो। मैंने गीले तौलिए से उसका चेहरा पोंछा था, शायद उसे गीलेपन का अहसास हो रहा था। इसी समय मैंने उसे प्यार से पकड़ कर पूछा, “क्या हुआ बेटा?”

लेकिन वह एकदम शांत रहा, कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। आख़िर उसको परेशानी क्या है? यह जानने का बहुत प्रयास किया, लेकिन लियो कुछ भी बता नहीं सका। उसकी हालत कुछ ऐसी हो रही थी, जैसे कि मस्तिष्क में चल रहे किसी बड़े कन्फ्यूजन को समझने प्रयास कर रहा हो।

उसकी यह हालत देख कर मुझको बहुत दुःख हो रहा था। मेरी आँखें डबडबाई हुई थीं। उसे एक गिलास में चार-पाँच चम्मच ग्लूकोज़ पाउडर घोल कर पिलाया। फिर लिटा कर धीरे-धीरे उसके सिर को सहलाती रही। कुछ ही देर में वह फिर सो गया। लेकिन मैं बैठी उसे बड़ी देर तक देखती रही।