Kshama Karna Vrunda - 10 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | क्षमा करना वृंदा - 10

Featured Books
Categories
Share

क्षमा करना वृंदा - 10

भाग -10

यह सुनते ही वह कुछ सहम सी गई। लेकिन तुरंत ही सँभलती हुई बोली, “नहीं दीदी ऐसी कोई बात नहीं है। शौहर कहाँ है, कैसा है, सालों से कुछ पता ही नहीं है। और फिर मैं तो उसका मुँह भी नहीं देखना चाहती, ख़्वाबों में भी नहीं। जिसने मुझे, बच्चों को लातों, घूँसों, चमड़े की बेल्ट से मार-मार कर, अधमरा करके सड़क पर फेंक दिया बच्चों सहित मरने, भीख माँगने के लिए, उससे मैं आख़िरी साँस तक नफ़रत ही करूँगी। “आप ही बताइए एक और निकाह कर सौतन लाने के लिए मना करके मैंने कोई गुनाह किया था क्या? मैं इतना ही तो कहती थी कि जितनी तुम्हारी कमाई है, उससे परिवार का गुजर-बसर नहीं हो पा रहा है, एक और को कहाँ से खिलाओगे?

“एक और औरत लाकर तीन चार बच्चे पैदा कर दोगे, फिर तो भूखों ही मरना पड़ेगा। तो मुझे मारते हुए कहता, ‘उपरवाले ने मुँह दिया है तो खाना भी वही देगा। हमें चिंता करने, ज़्यादा दिमाग़ लगाने की कोई ज़रूरत नहीं है, समझी।‘

“मैंने कहा नहीं, ‘उपरवाले ने कहा है कि उतनी ही ज़िम्मेदारी लो जितनी पूरी कर पाओ।’  बस इतनी सी बात पर मुझे बच्चों को मार-मार घर से निकाल दिया। बताइए मैंने कौन सी ग़लत बात कह दी थी।”

वह अपनी बात कहते-कहते बड़े तनाव में आ गई थी। मैं उसे ग़ौर से देखती रही, और मन ही मन कहा, जब बरसों से पति का कोई ठिकाना नहीं है, तो तेरी प्रेग्नेंसी निश्चित ही लियो से है। कैमरे झूठ थोड़े ही बोल रहे हैं, झूठ तो तुम बोलती जा रही हो कि तुम प्रेग्नेंट नहीं हो।

मैंने उसे शांत करते हुए कहा, “नहीं तुम कहीं से भी ग़लत नहीं हो। बच्चे उतने ही पैदा करने चाहिए, जितने को अच्छी परवरिश दे सकें। सोचे-समझे बिना पैदा करते जाना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं है, यह तो पूरी तरह से गँवारपन है। लेकिन तुम्हारा पेट तो काफ़ी बढ़ रहा है, ऐसा लग रहा है कि तुम दो-तीन महीने की प्रेग्नेंट हो।

“देखो मुझे इतने साल हो गए हैं नौकरी करते हुए, न जाने कितनी औरतों को देख चुकी हूँ। डॉक्टर तो नहीं हूँ, नर्स ज़रूर हूँ। फिर यह तो ऐसी बात है, जिसे गाँव-देहात की कोई मिडवाइफ़ भी बता देगी। इसमें छिपाने वाली कोई बात नहीं है। मैं अपने हॉस्पिटल में डिलीवरी कार्ड बनवा दूँगी। इलाज का पूरा ख़र्च मैं उठाऊँगी।”

मैंने जानबूझ कर किसका बच्चा है, इस बिंदु पर एक शब्द नहीं कहा। लेकिन फ़हमीना बहस पर उतर आई। बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी। वह इतने विश्वास के साथ बोल रही थी कि यदि कैमरे में उसे लियो से सम्बन्ध बनाते हुए नहीं देखा होता, तो अंततः मैं उसकी बात पर विश्वास कर ही लेती। उसकी इस ढिठाई पर आख़िर मैंने सख़्त रुख़ अपनाया।

मैंने उससे साफ़ शब्दों में कहा, “देखो मैं तुमसे यह नहीं पूछ रही कि जब तुम्हारा शौहर है ही नहीं, तो फिर इस बच्चे का पिता कौन है? मुझे सिर्फ़ तुम्हारी जान की फ़िक्र है। तुमने अपनी जो स्थिति बताई है, उससे यह तो तय है कि तुम इस बच्चे को पैदा बिल्कुल नहीं करोगी।

“समाज के डर से बच्चे को तुम गिरवा दोगी। अनसेफ़ एबॉरशन कराने की कोशिशों में कहीं तुम अपनी जान न ले लो। तुम्हारे बच्चे अनाथ हो जाएँगे। बात की गंभीरता को समझने की कोशिश करो।”

थोड़ी सख़्ती करने और बहुत समझाने-बुझाने के बाद आख़िर फ़हमीना ने सच स्वीकार कर लिया। मैंने उसे अपने ही बेड पर लिटा कर थारोली चेक किया और उससे साफ़-साफ़ कहा, “मैं शत-प्रतिशत विश्वास से कह रही हूँ कि तुम्हारे पेट में कम से कम तीन महीने का बच्चा है। इसे जितनी जल्दी एबॉर्ट करवा दोगी, उतना ही अच्छा रहेगा। मैं तो कहूँगी कि मेरे साथ इसी समय चलो। मैं तैयार होती हूँ।”

इतना कहकर मैं बाथरूम की तरफ़ चली, तो फ़हमीना हॉस्पिटल चलने से इंकार करती हुई फिर बहस करने लगी। उसकी इस हरकत से मैं अपने ग़ुस्से पर क़ाबू नहीं रख पाई। मैंने तेज़ आवाज़ में दाँत पीसते हुए कहा, “अब मैं जो कहूँगी, तुम बिना एक शब्द बोले वह करोगी, समझी। तुम्हें ज़रा भी शर्म नहीं आई लियो जैसे एक अपाहिज बालक का रेप करते हुए।”

मेरा इतना कहना था कि फ़हमीना एकदम से भड़क उठी। मुझको आँखें तरेरती हुई बोली, “देखो मैडम हम पे उलटा-सीधा इल्जाम न लगाओ बता दे रहे हैं। हम काहे को तुम्हारे लड़का से रेप करेंगे। दुनिया में और आदमी नहीं हैं का . . . ”

फ़हमीना एकदम से ज़बरदस्त उजड्ड लड़ाकू महिला की तरह तन कर खड़ी हो गई। मैं क्षण-भर को अचंभित रह गई। मुझे बिलकुल अहसास नहीं था कि वह पलक झपकते ही ऐसे गिरगिट से भी तेज़ रंग बदलेगी।

मैंने भी उसकी आँखों में आँखें डाल कर, उसे कमरे में लगे कैमरे को दिखाते हुए कहा, “घर के कोने-कोने में लगे इन कैमरों ने बाथरूम, किचन तक में तुम्हारे कुकर्मों की पिक्चर बनाई है। तुम अपनी उजड्डता से अपने घिनौने काम को झुठला नहीं सकती। अब तुम्हारी भलाई इसी में है, कि मैं जो कह रही हूँ, उसे चुपचाप मान लो, नहीं तो मैं अभी पुलिस बुलाती हूँ। तुम्हें तुम्हारे कुकर्मों के लिए कम से कम दस साल जेल की सज़ा होगी ही होगी।”

इतना सुनते ही फ़हमीना का चेहरा लटक गया। ऐसे जैसे कि ख़ूब हवा भरे गुब्बारे में अचानक ही सूई चुभ गई हो। यह देख कर मैंने भी अपना रुख़ थोड़ा नरम करते हुए कहा, “तुम्हें ज़रा भी शर्म नहीं आई, तुम्हारी आत्मा नहीं काँपी अपने बच्चे से मात्र दो-तीन साल बड़े बच्चे की अपंगता का लाभ उठाकर, उसके साथ इतनी निर्लज्जता से कुकर्म करते हुए?

“अपनी शारीरिक ज़रूरत पूरी करने को मैं ग़लत नहीं कहती। तुम भी अपनी इच्छा ख़ूब पूरी करो, ख़ूब सेक्स करो। मगर रिश्ते का भी ध्यान रखो। जानवर भी अपनी सीमा के बाहर नहीं जाते। अपने लिए नि:संकोच किसी जीवन-साथी को तलाश लो। रहो उसके साथ निश्चिंत होकर आराम से। यह क्या कि कहीं भी, कुछ भी कर लो।”

अभी तक अपराध-बोध से थोड़ा शर्मिंदा दिख रही फ़हमीना मेरे थोड़ा नरम पड़ते ही अचानक ही फिर भड़कती हुई बहस पर उतर आई। वह सीधे-सीधे लियो को ही कटघरे में खड़ा करती हुई बोली कि “वह अपनी बात कहने के बहाने से पकड़ लेता था। मैं हटना चाहती थी लेकिन हटने ही नहीं देता था। मेरे पीछे-पीछे चल देता था। उसे कहीं चोट-चपेट न लग जाए तो . . . बस एक दो बार ही . . .”

उसने जैसे ही लियो को दोषी ठहराने की कोशिश की, मेरा जैसे ख़ून ही खौल उठा। मैं लपक कर आठ-दस क़दम दूर खड़ी फ़हमीना के एकदम चेहरे के क़रीब पहुँच कर चीखी, “चुउऽऽउऽऽप, एकदम चुप रहो। एक तो चोरी, ऊपर से सीना जोरी। अभी तुम्हें तुम्हारे कुकर्म, तुम्हारी बेशर्मी, निर्दयता, का असली चेहरा दिखाती हूँ। हद होती है झूठ बोलने, निर्लज्जता की।”

अपनी बात पूरी करते-करते मैंने लैपटॉप ऑन कर दिया। सबसे पहले वह फुटेज दिखाई जिसमें वह चाकू लियो को टच करा कर डरा धमका रही है। तमाम और फुटेज दिखाती हुई मैं बोली, “एक-एक फुटेज कह रहा है कि तुम चाकू की नोक पर कितनी ढिठाई, निर्दयता, कितनी बदतमीज़ी के साथ कुकर्म कर रही हो।

“इसके बावजूद तुम्हें फिर समझा रही हूँ कि मैं जो कह रही हूँ उसे करो, नहीं तो अब मैं तुम्हें पुलिस को हैंड-ओवर करने जा रही हूँ। जब पुलिस की लाठियाँ, गालियाँ खाओगी, कम से कम दस साल जेल में चक्की पीसोगी, दड़बे जैसी कोठरी में सड़ोगी, तब तुम्हारी समझ में आएगा ऐसे नहीं।”

यह कहते हुए मैंने कॉल करने के लिए अपना मोबाइल उठा लिया। बचने का कोई रास्ता न देख, पुलिस का नाम सुनते ही फ़हमीना, मेरे क़दमों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगी। “दीदी माफ़ कर दीजिये, ग़लती हो गई। मैं बहक गई थी। अब फिर कभी नहीं होगी।”

वह रोने लगी। मैंने उससे कुछ नहीं कहा। जब उसका रोना-धोना कुछ कम हुआ तो उसको मुँह-हाथ धोकर आने को कहा। मुझे कभी उस पर दया आती, तो कभी ग़ुस्सा। मैंने उसके उठते ही, उसके कुछ उभरे हुए पेट की ओर इशारा करते हुए पूछा, “क्या सोचा है? क्या करोगी इसका?”

वह सिर झुकाए हुई धीरे से बोली, “जी दवाई तो खा रही हूँ दो दिन से, लेकिन गिरा ही नहीं।”

मैंने पूछा, “कौन सी दवा खा रही हो?” तो उसने किसी नीम-हकीम टाइप दवा का नाम लेते हुए बताया कि “मेरी एक सहेली ने लाकर दिया है।”

उसकी इस लापरवाही पर मैं बहुत ग़ुस्सा हुई। मैंने उसे तुरंत हॉस्पिटल चल कर एबॉर्ट कराने के लिए कहा।

वह कोई न-नुकुर न करे, इसलिए सारा ख़र्च भी स्वयं उठाने को तैयार हो गई। लेकिन उसने घर की एक ऐसी समस्या बताई कि अगले दिन सुबह चलना तय हुआ।

उसके जाते ही मैंने सोचा कि हॉस्पिटल में हो सकता है इसे एक-दो दिन रुकना पड़ जाए। ऐसे में इसके बच्चे अकेले कैसे रहेंगे। कहीं यही बहाना लेकर यह कल भी मना न कर दे। इसके अबॉर्शन के लिए पहले मेडिसिन ही ट्राई करूँ क्या?

वैसे भी मेरा हॉस्पिटल इसे ग़ैर-क़ानूनी अबॉर्शन कह कर मना कर देगा। डॉक्टर निकिता वैसे तो बहुत अच्छी हैं, लेकिन नियम-क़ानून के मामले में कहने को भी एक क़दम इधर से उधर नहीं होतीं।

अनुज्ञा हॉस्पिटल में ही नर्स है, फिर भी बेचारी को कितनी तेज़ डाँटा था कि “तुम्हें पता नहीं है कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी क़ानून केवल रेप आदि स्पेशल केसेज़ या महिला की क्रिटिकल कंडीशन होने पर ही अबॉर्शन की परमिशन देता है।

“ख़ुद तो पनिश होगी ही मुझे भी करवाओगी। हॉस्पिटल पर जुर्माना लगेगा वो अलग। मैनेजमेंट हम-दोनों को निकाल देगा। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि तुमने मूर्ख औरतों की तरह ऐसी बेवक़ूफ़ी क्यों की। जब तीसरा बच्चा नहीं चाहिए था तो तुम दोनों हस्बेंड-वाइफ को सावधानी बरतनी चाहिए थी . . .।”

उसे इतना लम्बा-चौड़ा लेक्चर दिया कि वो ग़ुस्सा होकर पैर पटकती हुई चली आई। मैंने समझाना चाहा तो बिफरती हुई बोली थी, ‘ये क्या बात हुई यार, शरीर मेरा, पेट मेरा, प्रेग्नेंसी मेरी, मैं चाहे कैरी करूँ या अबॉर्ट करवाऊँ, ये साला क़ानून, डॉक्टर बीच में टाँग अड़ाने वाले कौन होते हैं।

‘ये सबके सामने मेरी प्राइवेसी को एक्सपोज़ करके, मुझे लेक्चर देने वाली कौन होती हैं। क़ानून की बड़ी संरक्षक हैं, तो जो देश भर में हर साल, अबॉर्शन के लिए अनरजिस्टर्ड हॉस्पिटल में क़रीब डेढ़ करोड़ से ज़्यादा ग़ैर-क़ानूनी ढंग से अबॉर्शन होते हैं, उन्हें क्यों नहीं रोक लेतीं . . .’

मुझे लगा अनुज्ञा सही कह रही है, तो मैंने उसे पूरा सपोर्ट किया। और उसने अगले दिन किसी छोटे-मोटे हॉस्पिटल में रिस्क लेकर अबॉर्शन करवाया। अनुज्ञा की यह बातें याद आते ही मैं फ़हमीना को लेकर असमंजस में पड़ गई कि इस झूठी औरत का कोई ठिकाना नहीं। कहीं कोई ऐसा तमाशा न खड़ा कर दे कि ग़ैर क़ानूनी ढंग से इसका अबॉर्शन करवाने के आरोप में मुझे ही जेल में डाल दिया जाए।

इस असमंजस के चलते मैंने सोचा कि किसी हॉस्पिटल में जाने का रिस्क लेने से पहले उससे अबॉर्शन पिल मिफप्रिस्टोन और मीसोप्रोस्टोल प्रयोग करवाती हूँ। देश भर में अस्सी परसेंट से ज़्यादा अबॉर्शन मामलों में इन्हीं पिल को यूज़ किया जा रहा है।

मगर समस्या यह आ गई कि यह पिल बिना डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन के मिल ही नहीं सकती थी। मैंने किसी तरह एक डॉक्टर से लिखवाया। लेकिन किसी भी केमिस्ट के यहाँ पिल नहीं मिली। मैंने हॉस्पिटल जाना कैंसिल कर पूरा शहर छान मारा लेकिन हर जगह न न न . . .  इस पिल में कोई मुनाफ़ा नहीं, तो कोई बेचता नहीं।