Kshama Karna Vrunda - 5 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | क्षमा करना वृंदा - 5

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क्षमा करना वृंदा - 5

भाग -5

मुझे सबसे ज़्यादा कष्ट दुःख तब होता, जब लियो खाने-पीने की चीज़ें माँगने के लिए हाथ से तरह-तरह के संकेत करता, लेकिन मैं समझ ही न पाती। ऐसे ही बाथरूम जाने की बात कहता, लेकिन वह भी समझ न पाती, जिससे उसके कपड़े ख़राब हो जाते।

एक दिन जब वो बच्चों वाले कमोड पर बैठा हुआ था, तभी मेरे दिमाग़ में आया कि क्यों न मैं भी लुइ ब्रेल की तरह प्रयास करूँ। लियो, लियो जैसे बच्चों को पढ़ाने की प्रणाली ढूँढ़ूँ। यह सोचते ही मेरे दिमाग़ में एक प्रणाली की रूप-रेखा कुछ-कुछ स्पष्ट होने लगी।

मैंने लियो का एक हाथ पकड़ कर पहले कमोड को दो-तीन तरफ़ टच कराया, फिर उसके पेट पर अपने हाथ से लिखा टॉयलेट। यह क्रिया मैंने छह-सात बार दोहराई। उसे वापस कमरे में लाकर फिर उसके पेट पर ही अपनी उँगली से लिखा टॉयलेट, फिर वापस ले जा कर कमोड को टच कराया।

पाँच-छह दिन यह प्रैक्टिस करवाने से लियो समझ गया कि टॉयलेट जाना है, यह बताने के लिए किस तरह टेढ़ी, आड़ी, तिरछी, ऊपर, नीचे लाइनें बनानी हैं। मैंने उसे यह भी बताया कि तुम्हें कुछ कहना है, यह बताने लिए पहले ताली बजा कर मुझे बुलाया करो।

चौथे दिन ही, महसूस होने पर उसने पहले ताली बजानी शुरू कर दी थी। पहली बार उसके ऐसा करने पर मैंने उसके पास पहुँच कर अपनी हथेली की दूसरी तरफ़ से उसके पेट पर दाएँ-बाएँ करके पूछा क्या है? तो उसने मेरे पेट पर टॉयलेट लिख दिया। हालाँकि पहली बार पूरी तरह सही नहीं लिख पाया था।

लेकिन उसकी उँगलियों के मूवमेंट को समझते ही, मैं इतनी ख़ुश हुई कि लियो को गले से लगा लिया। और रूँधे गले से बोली, ‘माय सन, माय सन, मैं तुझे ख़ूब पढ़ाऊँगी।’

इस स्पर्श लिपि प्रणाली को मैं इतना विकसित कर लेना चाहती थी कि उसके सहारे लियो को ख़ूब पढ़ा सकूँ।

एक दिन मैं स्लेट और चॉक ले आई। उसे एक-एक चीज़ टच कराती और फिर स्लेट पर उससे लिखवाती। यह सब मैं रोमन में लिखवाती थी। सबसे पहले मैं अपने को स्पर्श कराती फिर मदर लिखवाती, साथ में अपना नाम फ़्रेशिया भी। उसे उसका भी नाम लिखवा कर रटाया।

इसके बाद मैंने उसे खाने-पीने की चीज़ों के बारे में भी बताया। जिससे वह अपनी मन-पसंद चीज़ें माँग सके। हालाँकि उसे एक-एक चीज़ को बताना बहुत कठिन हो रहा था। मगर इन सब पर अकेले भारी पड़ रहा था लड़की, लड़के का अंतर बताना।

यह एक ऐसा काम था, जिसे बताने का रास्ता मुझे लाख प्रयासों के बाद भी नहीं सूझ रहा था। कई महीने बीत गए लेकिन बात जहाँ की तहाँ ठहरी हुई थी। जो तरीक़ा आसानी से मेरे दिमाग़ में कौंध कर गुम हो जाता, वह मुझे घोर अनैतिक लगता। एक दिन रोटियाँ बनाते समय मुझे एक तरीक़ा सूझा।

मैंने आटे से लड़के-लड़की की मूर्ति बनाई। फिर लियो से उन्हें हर जगह टच कराया। विशेष रूप से उन हिस्सों को जो लियो को लड़के, लड़की का अंतर समझा सकें।

ढेरों प्रयासों के बाद उसने जो प्रतिक्रिया दी, उससे मैं बहुत ख़ुश हुई, कि मैंने सबसे बड़ी परीक्षा पास कर ली है। मेरे प्यारे लियो ने मेल-फ़ीमेल का अंतर समझ लिया है। जिसे मैं न सुलझ पाने वाली सबसे जटिल समस्या समझ रही थी, वह थोड़ी ज़्यादा मुश्किलों के बाद अंततः सुलझ गई है।

लेकिन मैं पूरी तरह ग़लत थी। वास्तव में समस्या अनंत गुना ज़्यादा उलझ गई थी। इतना ज़्यादा जटिल हो गई थी कि उसने मेरे दिमाग़ के सारे तंतुओं को ही उलझा कर रख दिया। बात दिमाग़ से निकलती ही नहीं। मेरे सिर का चकराना बंद ही नहीं हो रहा था।

हुआ यह कि लियो को पढ़ाई गई बातों को मैं थोड़े-थोड़े समयांतराल पर चेक करती रहती थी। वैसे ही जब मेल-फ़ीमेल अंतर की बात को भी चेक किया तो बहुत बड़ी उलझन में पड़ गई।

लियो ने कुल मिला कर मेल-फ़ीमेल का मतलब यह समझा था कि मेल मतलब स्वयं और फ़ीमेल मतलब आटे की बनी गुड़िया।

मैं जहाँ से शुरू हुई थी, वहीं नहीं बल्कि उससे भी और पीछे चली गई हूँ, यह जानकर मुझे कुछ देर को बड़ी निराशा हुई। मुझे लगा कि लियो को मैं मेल-फ़ीमेल का अंतर कभी नहीं समझा पाऊँगी।

यह गॉड द्वारा बनाए गए इस अंतर को जाने बिना ही अपना जीवन जिएगा। इसके लिए यह एक और भयानक सज़ा से कम नहीं है, यह सोचकर मैं एकदम तड़प उठी। मैंने सोचा नहीं-नहीं, यह अपना जीवन इस सज़ा को भुगतते हुए ऐसे ही बिलकुल नहीं जिएगा। मैं इसे यह अंतर समझा कर ही रहूँगी, चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े। किसी भी सीमा तक जाना पड़े।

मैं उसी क्षण से वह तरीक़ा ढूँढ़ने लगी, जिससे उसे अंतर समझा सकूँ। एक समस्या यह भी पैदा हो गई थी, कि वह अपने नाम और लड़का को लेकर कन्फ्यूजन में पड़ गया। पहले जहाँ लियो का मतलब स्वयं को समझता था, अब वह लड़का का मतलब स्वयं को समझने लगा।

सोचते-सोचते कई दिन निकल गए, लेकिन मुझे कोई भी रास्ता सुझाई नहीं दे रहा था। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, वैसे-वैसे मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

एक दिन हॉस्पिटल से छुट्टी मिलने पर घर के लिए निकली। हमेशा की तरह लियो भी साथ में था। चलते समय स्कूटर पर उसे सामने पैरों के बीच खड़ा कर लेती थी। उस दिन भी खड़ा करते समय, समस्या समाधान के लिए मैंने दृढ़ता-पूर्वक मन ही मन एक निर्णय ले लिया। निर्णय लेते ही मेरा चेहरा लाल हो गया।

रास्ते-भर मैं यह सोचती रही कि इस समस्या के समाधान के लिए मैं नैतिक, अनैतिक के प्रश्न को बीच में लाई ही क्यों? ऐसी समस्याएँ, इनके समाधान के हर प्रयास, तरीक़े नैतिक-अनैतिक की सीमाओं से परे होती हैं।

मेडिकल साइंस अगर नैतिक-अनैतिक की सीमा में बँध कर आगे बढ़ती, तो कोई भी वैक्सीन, दवा, चिकित्सीय यंत्र बन ही नहीं पाते। मैं अपनी तरह के एक अनोखे रेअर ऑफ़ रेअरेस्ट केस को सॉल्व करने की कोशिश कर रही हूँ।

सफल हुई तो अपनी खोज पर एक पूर्ण व्यवस्थित पुस्तक लिखुँगी, जिससे ऐसे अन्य केस भी सॉल्व किए जा सकें। मैं अपनी कोशिश तब-तक बंद नहीं करूँगी, जब-तक मैं सफल नहीं हो जाऊँगी। लियो को इस दुनिया की हर चीज़ को जानने-समझने, पढ़ने-लिखने लायक़ नहीं बना दूँगी।

घर पहुँच कर चाय-नाश्ता, खाना-पीना, यह सब करते समय भी मेरी कैलकुलेशन बंद नहीं हुई थी। लियो के कुछ बड़ा होने के बाद से ही, मैं नाना-नानी का डबल-बेड प्रयोग करने लगी थी। जिससे हम-दोनों ज़्यादा जगह में आराम से सो सकें। मैं लियो को हमेशा दीवार की तरफ़ लिटाती थी।

उस दिन भी सोने से पहले मैं हमेशा की तरह उसके साथ खेल रही थी। उसको गुदगुदी लगाती, पलट कर वह भी वैसा ही कर रहा था। टीवी भी चल रहा था। जिस पर मैं बीच-बीच में नज़र डाल लेती थी। मगर इन सबके बीच दिमाग़ में यही चलता रहा कि जो निर्णय लिया था, उस पर आगे बढ़ूँ, कि नहीं।

इस असमंजस में खेल-कूद लंबा खिंच गया। अचानक ही मेरा चेहरा फिर लाल हो गया। मेरे चेहरे पर इतनी ज़्यादा तमतमाहट, उत्तेजना तो उस समय भी नहीं होती थी, जब कॉलोनी में कुछ लोगों ने मुझसे लियो के बारे में पूछताछ की थी। और मैंने बिना हिचकिचाहट के झूठ बोला था कि मैंने एकल माता-पिता के रूप में लियो को गोद लिया है।

मैंने पहले हँसते, खेल-कूद करते, लियो के होंठों पर उँगली रखकर उसे शांत किया, उसके हाथों को रोका। एक बार फिर उससे अंतर जानने, समझाने, बताने की कोशिश की, तो बात जहाँ की तहाँ ठहरी हुई ही मिली। इस पर मैं कुछ देर तक मूर्तिवत उसे देखती रही। कुछ हलचल न होने पर लियो ने फिर से हाथ मेरी तरफ़ बढ़ाया।

मैंने दोनों हाथों से उसकी हथेलियों को प्यार से पकड़ कर चूम लिया। उतने ही प्यार से उसके कपड़े भी उतार कर अलग रख दिए। अपने भी। फिर लियो के हाथ को पकड़ कर उसके विशिष्ट अंगों को स्पर्श कराया। उसके बाद अपने सारे अंगों को भी। साथ ही अपनी ख़ुद की विकसित स्पर्श लिपि से समझाने का प्रयास किया।

मैंने महसूस किया कि उसने कई बार के प्रयास के बाद अंतर को काफ़ी हद तक समझ लिया है। ठीक से समझाने के लिए, अंतर को एकदम से स्पष्ट कर देने वाले अंगों को स्पर्श कराने, बताने पर मैंने विशेष ध्यान दिया।

मैंने उसे यह भी सिखाया था कि जब वह कोई काम सीख ले, जान ले, बात पूरी हो जाए, तो ताली बजाकर इसकी पुष्टि ज़रूर करे। मैंने देखा जब वह अंतर समझने की क्रिया में लगा हुआ था, तब बहुत अजीब तरह से ऐसे शांत हो गया था, जैसे कोई बहुत ही गंभीर बात सोच रहा हो।

लेकिन काफ़ी देर बाद जब उसने अंतर समझ लिया तो ताली बजाकर हँसा था। उसकी ताली और हँसी से मुझे अपने उद्देश्य में सफल होने का सर्टिफ़िकेट मिल गया था। मैंने ख़ुशी के मारे उसे गले से लगा लिया था।

मुझे बहुत संतोष हो रहा था कि मेरा बेटा, जी हाँ, मैं उसे अपना बेटा ही कहती थी, उसने वह अंतर समझ लिया है, जिसे जानना उसके लिए बहुत ज़रूरी था। जिसे जाने बिना उसका जीवन अधूरा था।

जो उसे, उसके अस्तित्व के महत्त्व को समझा रहा था। उसे अपने होने के महत्त्व का अनुभव करा रहा था। मैं उसे बड़ी देर तक बाँहों में जकड़े बैठी-बैठी बाएँ-दाएँ पेंडुलम की तरह हिलती रही। लियो भी अपनी छोटी-छोटी बाँहों से मुझे पकड़े उसी तरह से चिपका हुआ था जैसे बंदरिया का बच्चा उससे चिपका रहता है।

कुछ देर बाद मैं उसे ऐसे ही पकड़े-पकड़े लेट गई। कुछ इस तरह मानो शरीर को थकाकर तोड़ देने वाला कोई जीवन-मरण से जुड़ा, बहुत बड़ा काम सफलता-पूर्वक करके फ़ुर्सत मिली है, चलो अब आराम करें।

लेटने के बाद भी मैं उसको अपने से सटाए रही। वह भी दुध-मुँहे बच्चे की तरह चिपका रहा। उसके हाथों की उँगलियाँ उसी तरह ख़ुदुर-फुदुर करती रहीं, जैसे दुध-मुँहा बच्चा शान्ति से दूध पीता हुआ माँ की छातियों पर करता है।

उसकी उँगलियाँ मेरे निपल को पकड़े इधर-उधर ऐसे करती रहीं, जैसे कि अभी-अभी अपना सीखा हुआ पाठ पूरी गहराई से समझने, कंठस्थ करने में लगा हुआ है।

छह साल की उम्र में उसने प्रकृति द्वारा स्थापित स्त्री-पुरुष के अंतर को, प्रकृति के द्वारा ही खड़ी की गई हर बाधा को, मदर के द्वारा अदम्य साहस, मेहनत से हटाए जाने के बाद समझ लिया था।

ऐसे ही उसने मदर की उँगलियों के सहारे प्रकृति द्वारा खड़ी की गई, हर उस बाधा को, बात को, पार करना, सीखना जारी रखा, जिसके सहारे प्रकृति ने उसे हर उस बात से अनभिज्ञ रखने की जी-तोड़ कोशिश की थी, जो उसने स्वयं इस सृष्टि को सृजित करने हेतु प्रयोग की हुई है।

मैंने पूरे मन-प्राण से उसको अच्छी से अच्छी परवरिश देकर जल्दी ही एक हृष्ट-पुष्ट बालक बना दिया। वह अपनी उम्र के बालकों में सबसे ज़्यादा हृष्ट-पुष्ट लंबा और सुंदर दिखता था।

जैसे-जैसे वह बढ़ रहा था, उसकी आँखों को लेकर मेरी चिंता भी बढ़ती जा रही थी। इस बीच देश-विदेश में ऐसा कोई नाम-चीन हॉस्पिटल, डॉक्टर नहीं था जिससे मैंने संपर्क न किया हो।

मैंने स्वयं कई आई, ईएनटी स्पेशलिस्ट से सलाह-मशविरा करके उसकी एक-एक डिटेल्स की रिपोर्ट तैयार की थी। वही दुनिया-भर में हर आई, ईएनटी स्पेशलिस्ट्स, हॉस्पिटल्स को मेल करती थी।

मैं जी-जान से यही प्रयास कर रही थी कि तीनों अंग न सही, कम से कम आँखें या फिर बोलना, सुनना, कुछ तो सही हो जाए। जिससे इसे जीवन में मेरे या किसी के भी सहारे की ज़रूरत कम या फिर एकदम न रहे। आँख प्रत्यारोपण के ऑपरेशन के लिए मैं अपनी एक आँख भी डोनेट करने के लिए तैयार थी।

लेकिन यहाँ मैं प्रकृति की बाधाओं को पार नहीं कर पा रही थी। हाँ स्पर्श-लिपि के ज़रिए उसे जीवन, दुनिया से ज़्यादा से ज़्यादा परिचित कराती जा रही थी। यहाँ मुझे प्रकृति लाख कोशिश करके भी पिछाड़ नहीं पा रही थी।

लेकिन इसके चलते मुझे कई बार नई-नई मुश्किलें भी झेलनी पड़ रही थीं। जैसे जिस दिन लियो ने लड़की-लड़के का अंतर समझा, उसके दो दिन बाद ही हॉस्पिटल में उसने मेडिसिन स्टोर कीपर तृषा से वैसा ही व्यवहार करने का प्रयास किया, जैसा मुझसे किया था।

वह मासूम यह समझना चाहता था कि मदर ड्यूटी के दौरान जिनके पास उसे छोड़ जाती हैं, वह मदर ही की तरह उसका ध्यान रखती हैं, वह फ़ीमेल हैं या फिर मेल। उसकी इस मासूमियत को तृषा ने कुछ और ही तरह की शरारत समझा। और ख़ूब हँसी।