भाग -4
सोते ही मैं सपना देखने लगी कि मैंने लियो को अपनी छाती पर लिटाया हुआ है, उसके साथ बातें कर रही हूँ। मेरी बातों पर वह ख़ूब हाथ-पैर चला रहा है। बीच-बीच में थक जाता है, तो अपने नन्हें-नन्हें नाज़ुक से हाथों से मेरी छाती से कपड़े हटाने की कोशिश करने लगता है।
उसे चिढ़ाने के लिए मैं कपड़ों पर हाथ रख लेती हूँ। जब वह कपड़े नहीं हटा पाता है, तो रोने लगता है। उसका रोना देख कर मैं एकदम भाव-विह्वल हो ख़ुद ही कपड़े हटा देती हूँ।
स्तनों को देखते ही वह जल्दी से निपल मुँह में लेने के लिए मचलने लगता है। निपल तक नहीं पहुँच पाने पर फिर रोने लगा, तो मैंने अपने हाथों से निपल उसके मुँह में दे दिया।
वह चुटुर-चुटुर की आवाज़ के साथ दूध पीने लगता है। दोनों हाथों से स्तनों को पकड़ने के चक्कर में उन पर चट-चट हथेलियाँ मारता, ख़ूब भर-पेट दूध पिए जा रहा था।
मुझे दूध इतना ज़्यादा हो रहा है, कि दूसरे स्तन से अपने आप ही, उसकी धाराएँ निकल-निकल कर मेरे कपड़े भिगो रही हैं। इसी बीच न जाने कहाँ से अट्ठाईस साल बाद मेरी मदर, मेरे सौतेले पिता को लेकर आ धमकीं।
आते ही उन्होंने झटके से लियो को पकड़ कर एक तरफ़ झटक दिया और चीखती हुई बोलीं, “बेवक़ूफ़! दूसरे के बच्चे को दूध पिला रही है। तू तो मदर है ही नहीं, तुझे दूध कैसे हो सकता है। किसे बेवक़ूफ़ बना रही है।”
मुँह से निपल झटके से खिंचने के कारण मेरे निपल से ख़ून निकलने लगता है।
मदर के इस व्यवहार से मुझे बहुत तेज़ ग़ुस्सा आ जाता है। मैं बड़ी फ़ुर्ती से उठ कर खड़ी हो गई मदर के सामने और तेज़ आवाज़ में कहा कि “आप कौन होती हैं मुझे कुछ कहने वाली . . .” इसी के साथ मेरी नींद खुल गई और मैं झटके से उठ बैठी। मैं पसीना-पसीना हो रही थी। लियो अपनी ख़ास तरह की आवाज़ में रो रहा था।
मैंने एक नज़र अपने कपड़ों पर डाली फिर लियो को उठा लिया। गोद में आते ही वह चुप होकर छाती टटोलने लगा। मुझे सपने में कही गई मदर की बात याद आई, ‘तू तो मदर है ही नहीं।’ मैं बड़े असमंजस में थी कि दसियों साल हो गए, सपने में तो मदर को कभी देखा ही नहीं। एल्बम में जैसी हैं, बिल्कुल वैसी ही दिख रही थीं।
मैंने सोचा लेकिन अब-तक तो बूढ़ी हो चुकी होगी। सौतेले फ़ादर की तो कभी फोटो भी नहीं देखी। बिलकुल सिख जैसे लग रहे थे। तो क्या मेरे सौतेले फ़ादर सिख हैं। वह भी मदर की तरह एकदम यंग हैं। तो क्या मदर सिक्खड़ी बन गई हैं। उन्होंने तो लियो को ज़मीन पर पटक ही दिया था।
कितनी फ़ुर्ती से मैंने लियो को ज़मीन से कुछ इंच ऊपर ही पकड़ लिया था। और मदर को डाँटते हुए लियो को चूम लिया था। यह क्या हो रहा है? मुझे ऐसा सपना क्यों आया? क्या मतलब है इसका?
मैं ऐसा ही कुछ सोच रही थी कि इसी बीच लियो और तेज़ रोने लगा। मेरे मन में न जाने क्या आया, न जाने किस भावना से प्रेरित होकर मैंने कपड़े हटाकर, उसके मुँह में निपल दे दिया। वह तुरंत चुप हो गया।
लेकिन कुछ ही क्षण में, उसे छोड़कर वह फिर रोने लगा। मेरे दिमाग़ में तुरंत ही माँ की बात गूँजी ‘तू तो मदर है ही नहीं।‘ यह बात आते ही मैंने लियो को कलेजे से लगा लिया। मन ही मन बोली, ‘मैं ही हूँ तेरी मदर। किसी के कहने से मुझ पर कोई फ़र्क़ पड़ने वाला नहीं।’
पहली बात तो यह कि वह होती कौन हैं मुझे कुछ कहने वाली। वह मेरी क्या, किसी की भी मदर कहलाने लायक़ नहीं हैं। लियो को मैंने फिर पहले की ही तरह बड़ी मुश्किल से दूध पिलाया।
उसके सो जाने के बाद उसकी बोतल भी भरकर रख ली। जिससे उठने पर उसे तुरंत दूध दे सकूँ, उसे रोना ना पड़े। मैं पहले दिन रात-भर सो नहीं सकी। जहाँ आँखें बंद करती, मुझे लगता जैसे लियो मेरी छाती पर लेटा दूध के लिए मचल रहा है। और मेरी आँखें खुल जातीं।
लियो औसतन दो-ढाई घंटे में जाग जा रहा था। जब-जब मैं उसे दूध पिलाती तो यह ज़रूर सोचती कि इस समय इसे माँ का दूध मिलना ही चाहिए। आज तक तो मिल गया। भले ही दूसरी माओं का।
लेकिन कल से तो डिब्बे वाले दूध का ही सहारा है। काश बच्चे पैदा किए बिना भी, औरत के निपल को बच्चे के मुँह में देते ही, दूध आ जाने की व्यवस्था नेचर ने की होती।
अगले दिन तो लियो ने जैसे आफ़त ही कर दी। डिब्बे का दूध मुँह में जाते ही उगल देता। मेरी हर कोशिश बेकार हो रही थी। भूख से लियो की रुलाई देखकर मेरी आँखों से आँसू निकलने लगे। मुझसे उसकी रुलाई देखी नहीं जा रही थी।
अचानक मुझे हॉस्पिटल में लियो को दूध पिलाने वाली कावेरी याद आई। वो लियो को अपने आँचल से ढक कर दूध पिलाती थी। मैंने तुरंत ही अपना टाइट कुर्ता उतारा। दुपट्टे को साड़ी की आँचल की तरह ओढ़ लिया।
लियो को गोद में लेकर निपल उसके मुँह में दिया, कुछ सेकेण्ड दूध न मिलने पर जैसे ही उसने रोते हुए मुँह हटाया, मैंने उसके मुँह में बोतल का निपल दे दिया। उसने पीना शुरू कर दिया, दो-तीन बार शुरू में छोड़ा, उसके बाद पीने लगा।
फिर तो उसे दूध पिलाने का यही तरीक़ा हर बार का हो गया। जब वह आसानी से दूध पीता तो उसे देखकर मुझे इतना संतोष मिलता कि मेरी आँखें भर आतीं। बार-बार कुर्ता या टी-शर्ट उतारने की झंझट से बचने के लिए मैंने सामने से खुलने वाली मैक्सी पहननी शुरू कर दी।
मुझे सबसे ज़्यादा समस्या होती थी खाना बनाने, घर की साफ़-सफ़ाई, कपड़ा धोने और नहाने के समय। मैं बाथरूम का दरवाज़ा खुला रखकर, लियो के पालने को अपनी आँखों के सामने ही रखती।
मैं उसकी ख़ूब मालिश करती, लेकिन किसी ब्रांडेड बेबी मसाज ऑइल वग़ैरह से नहीं। क्योंकि मीडिया में ऐसी कुछ रिपोर्ट्स के बारे में चर्चा सुनी थी कि इन ब्रांडेड बेबी मसाज ऑइल में कुछ ऐसे हानिकारक रासायनिक तत्व भी हैं, जिनसे बच्चों को त्वचा सम्बन्धी गंभीर बीमारी होने की प्रबल सम्भावना होती है।
मैं यह सोच कर ही सहम जाती कि स्किन कैंसर होने का भी ख़तरा बहुत बढ़ जाता है। ऐसे कुछ मामले सामने आए भी हैं। यह बातें जानने के बाद से ही मेरा विश्वास सभी रासायनिक तेलों के ऊपर से पूरी तरह उठ गया था। मैं हॉस्पिटल में नवजात बच्चों की माओं को मसाज आयुर्वेदिक तेल से ही शुरू करने की सलाह देती थी।
मैं लियो की आयुर्वेदिक तेल से ही मालिश करती, उसको सरसों और बेसन का उबटन लगाती। यह सब करते-करते मैं दिन-भर में थक कर चूर हो जाती। मैंने एक बार सोचा कि कोई नौकरानी रख लूँ।
लेकिन यह सोच कर, यह बात मन से निकाल दी कि मुझे ज़्यादा से ज़्यादा पैसा बचाना है। लियो का जहाँ भी, जैसे भी होगा, ट्रीटमेंट करवाना है। जैसे भी हो कम से कम इसकी आँखें तो ठीक करवानी ही हैं।
घर आने के बाद से ही मैं नेट पर बड़े-बड़े हॉस्पिटल्स के उन डॉक्टर्स को सर्च कर रही थी, जो ‘ईऐनटी’ और आँखों की फ़ील्ड के जाने-माने नाम थे। जहाँ भी मुझे उम्मीद दिखाई देती, लियो की रिपोर्ट वहाँ भेजती। ऑनलाइन डॉक्टर की फ़ीस भी भेजती रहती है। मगर हर जगह से मुझे निराशा ही निराशा हाथ लग रही थी।
मेरी असली परीक्षा तो तब शुरू हुई, जब छुट्टियाँ ख़त्म होने के बाद हॉस्पिटल ज्वाइन किया। पहले ही की तरह वर्क-लोड बहुत ही ज़्यादा था। पंद्रह-सोलह घंटे की ड्यूटी करनी पड़ रही थी। लियो को साथ ले जाने के अलावा मेरे पास कोई और रास्ता नहीं था।
हॉस्पिटल में क़िस्म-क़िस्म के इन्फ़ेक्शन से बच्चों को संक्रमित होने का डर बहुत ज़्यादा रहता है। यह सोचते ही मैं सहम जाती थी। लेकिन विवश थी। उसको कहाँ, किसके सहारे छोड़ती। ग़नीमत यह थी कि लियो अब बोतल से आराम से दूध पी लेता था।
हॉस्पिटल में मुझे मेरी आशाओं के विपरीत बहुत सहयोग मिलने लगा, मेडिसिन स्टोर पर बैठने वाली मेरी मित्र तृषा और मेरी सीनियर नर्स वृंदा तो शुरू से ही मेरी बहुत मदद करती आ रही थीं। जब मैं ज़्यादा बिज़ी होती, तो इनमें से कोई न कोई लियो को सँभाल लेती। पूरा स्टॉफ़, डॉक्टर भी लियो के प्रति मेरे लगाव को देखकर आश्चर्य में पड़ जाते।
कोई न कोई अक़्सर कहता है कि ‘तुमने अपने को लियो के साथ एक सगी माँ की तरह अटैच कर लिया है। माँ से भी ज़्यादा उससे प्यार कर रही हो। मान लो कभी उसके रियल पेरेंट्स आ गए, पुलिस ने उन्हें ढूँढ़ लिया, तब तो क़ानूनन उसे वापस करना ही पड़ेगा। तब तुम्हें बड़ी तकलीफ़ होगी। कैसे सँभालोगी ख़ुद को।’
यह सुनकर मैं बहुत गंभीर हो जाती। एकदम चुप हो जाती। आँखों में आँसू आ जाते। कई बार तो उस समय लियो को गोद में ऐसे उठा लेती जैसे कि कोई तुरंत ही उसे उठा ले जाएगा।
मैं रूँधे गले से कहती कि “उनके हाथ-पैर जोड़ लूँगी। कह दूँगी कि जैसे छोड़ गई थी इसे, वैसे ही भूल जाओ हमेशा के लिए। तुमने कोई प्यार से इसे जन्म नहीं दिया। इसके साथ जो किया, उससे तो यही पता चलता है कि तुम्हारे लिए यह सबसे बड़ी समस्या था।
“यह तुम्हारी चाहतों का नहीं, तुम्हारी अय्याशी के कारण हुआ एक्सीडेंटल बेबी है। जिससे तुम जन्म के पहले से ही घृणा करती थी। उसे मरने के लिए छोड़ कर भाग गई थी। उस समय तो यह ख़ूबसूरत बेबी था। तुम्हें मालूम ही नहीं था कि इसे कोई प्रॉब्लम है।” फिर भी नहीं माने तो कह दूँगी कि “जाओ, जो करना है कर लो, नहीं दूँगी। लड़ लो मुक़दमा। मेरे जीते जी मेरे लियो को अब मुझसे कोई नहीं ले पाएगा।
“मैं कोर्ट में साबित कर दूँगी कि जिस माँ-बाप ने जन्म के कुछ घंटे बाद ही बच्चे को लावारिस मरने के लिए छोड़ दिया, ऐसे क्रूर हत्यारे माँ-बाप को बच्चे को दिया जाना बच्चे की जान को ख़तरे में डालना है।”
मेरे भाव, मेरी दृढ़ता देखकर सभी चुप हो जाते। यही प्रार्थना करते कि वह न लौटें। पुलिस रियल पेरेंट्स को ढूँढ़ ही ना पाए। वो कहते, “लियो के लिए तुमसे अच्छी माँ वो हो ही नहीं सकती।” और यही सच होता चला गया। पुलिस उन्हें ढूँढ़ ही नहीं पाई। वैसे भी ऐसे मामलों में पुलिस ज़्यादा पेन लेती ही कहाँ है।
और फिर तेज़ी से साल दर साल बीतते चले गए, लियो बड़ा होता गया। मैं हर साल घर पर ही लियो का बर्थ-डे मनाती थी।
एक-एक करके जब पाँच साल निकल गए, तो मैं उसकी पढ़ाई को लेकर चिंतित रहने लगी। मैंने हर तरह से यह पता किया कि क्या ऐसे बच्चों को पढ़ाने का भी कोई सिस्टम है, जो जन्म से गूँगे, बहरे, अंधे तीनों हों।
मुझे हर जगह यही जवाब मिला कि नेत्रहीन बच्चों के लिए ‘ब्रेल लिपि’ तो है, लेकिन उसके माध्यम से भी पढ़ाई तभी सम्भव है, जब बच्चा कम से कम सुनना अवश्य जानता हो।
मुझे लियो जैसे बच्चों को पढ़ाने वाला कोई स्कूल, कोई मैथेड नहीं मिला। लेकिन मैं निराश नहीं हुई। तय किया कि जैसे भी हो, मैं कोई न कोई तरीक़ा अवश्य ढूँढ़ूँगी, जिससे लियो को पढ़ा सकूँ। उसे इस दुनिया के स्याह-सफ़ेद दोनों पक्ष दिखा सकूँ।
मैं जब-जब यह सोचती, तब-तब मुझे चार जनवरी अठारह सौ नौ को फ़्रांस में जन्में लुई ब्रेल याद आते। जिन्होंने मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में नेत्रहीनों को पढ़ने के लिए विशिष्ट प्रणाली विकसित कर दी। जो उन्हीं के नाम पर लोगों के बीच लोकप्रिय होती चली गई।
साथ ही मुझे उनके दुर्भाग्य पर भी बड़ा तरस आता। सोचती वह लियो से कम दुर्भाग्यशाली नहीं थे। पहले तीन साल की उम्र में चोट लगने से अच्छी-भली आँखों की ज्योति गवाँ बैठे। और जब एक तरह से नेत्रहीनों की ज्योति बनने वाली प्रणाली विकसित कर दी, तो उनके जीते-जी क्रूर समाज ने उनके नाम पर उसे मान्यता नहीं दी। क्रूरता, अन्याय भी इतना कि वो मर गए, सौ साल बीत गए, तब अन्यायियों की सोई आत्मा जागी। उनके गाँव ‘कुप्रे’ में बनी उनकी क़ब्र पर इकट्ठा होकर, उनके अवशेष को निकाल कर उन्हें राजकीय सम्मान दिया।
मगर इन सबका कोई अर्थ भी है? जब-तक वह जीवित रहे तब-तक तो उन्हें अपमानित ही किया। सौ साल तक उनके काम को एक सेनाधिकारी चार्ल्स बार्बर के नाम से स्थापित करने कोशिश की।
मैं सोचती कि गॉड ने भी मेरे लियो और लुई ब्रेल के साथ सिर्फ़ अन्याय ही अन्याय किया। लुई को पहले टीबी जैसी भयानक बीमारी दी, फिर मात्र तैंतालीस साल की उम्र में बुला लिया। अगर वह उन्हें लम्बा जीवन देते, तो वो लियो जैसे लोगों के लिए भी कोई प्रणाली ज़रूर विकसित कर देते। आख़िर वो स्वभावतः एक आविष्कारक थे।