भक्ति विमुख एवं वैष्णव-विद्वेषी ब्राह्मणों को दण्ड
अब निमाइ कुछ बड़े हो चुके थे, अतः मिश्र ने उन्हें विद्या अध्ययन के लिए विद्यालय में भेज दिया। उनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि एक बार सुनने मात्र से ही उन्हें सब कुछ स्मरण हो जाता था। वे अपने से उच्च कक्षा के छात्रों को भी बातों ही बातों में हरा देते थे। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित रहे जाते थे।
विद्यालय से वापस आते समय निमाइ अपने मित्रों के साथ गङ्गा में अनेक प्रकार की जल क्रीड़ाएँ करते थे। यदि वे देख लेते कि कोई भक्ति रहित एवं वैष्णव-विद्वेषी ब्राह्मण जल में खड़ा होकर सूर्य को जल दे रहा है या मन्त्र जप कर रहा है, तो वे जल के नीचे-नीचे तैरते हुए जाते तथा उसका पैर पकड़कर खींचते हुए उसे गहरे पानी में ले जाकर छोड़ देते। जब वह ब्राह्मण चिल्लाने लगता, तो वे जल के नीचे-नीचे तैरते हुए बहुत दूर निकलकर ठहाका लगाकर हँसने लगते तथा उनके मित्र बालक भी तालियाँ बजाकर उस ब्राह्मण का उपहास करने लगते थे।
कभी शीत के दिनों में यदि कोई ब्राह्मण गङ्गा में स्नान कर रहा होता था, तो निमाइ तटपर खड़े होकर उसके बाहर निकलने की प्रतीक्षा करते थे। जैसे ही वह बेचारा सर्दी से ठिठुरते हुए बाहर निकलता, ये उसके ऊपर मिट्टी फेंक देते या उसके ऊपर कुल्ला कर देते या उसे स्पर्श कर देते, जिससे कड़ाके की सर्दी में उसे पुनः स्नान करना पड़ता था। कभी कोई ब्राह्मण अपना आसन एवं पूजा का सामान तटपर रखकर स्नान कर रहा होता था, तो ये उसका आसन, पञ्चपात्र आदि गङ्गाजीमें बहा देते। कभी कोई ब्राह्मण गङ्गाजी में स्नान कर रहा होता था, तो ये छलाङ्ग लगाकर उसके कन्धे पर चढ़ जाते तथा “मैं ही शिव हूँ” कहकर जल में कूद जाते। कभी कोई ब्राह्मण गङ्गा तट पर शिवलिङ्ग रखकर स्नान कर रहा होता, तो ये उसका शिवलिङ्ग ही चुरा लेते थे। कभी कोई ब्राह्मण विष्णु पूजा की सामग्री– पुष्प, दुर्वा, नैवेद्य, आसन आदि तट पर रखकर गङ्गा में स्नान कर रहा होता, तो निमाइ उसके आसन पर बैठकर अपने मस्तक पर चन्दन लगा लेते तथा फल-मिठाई आदि खाकर भाग जाते। और जब वह ब्राह्मण गङ्गाजी से बाहर आकर यह सब देखकर दुखी होकर 'हाय हाय' करने लगता, तो ये थोड़ी दूरी पर खड़े होकर कहते– “अरे ब्राह्मण देवता! आप दुखी क्यों हो रहे हैं? जिसके लिए आप यह सब लाये थे, उसी ने सब ग्रहण कर लिया।” यह सुनकर जब वह ब्राह्मण क्रोध से इन्हें पकड़ने जाता तो ये उसे मुँह चिढ़ाकर हँसते हुए भाग जाते।
यद्यपि पाखंडी ब्राह्मणों को प्रभु नाना प्रकार से सताते थे, परन्तु वे कभी भी किसी वैष्णव का अपमान नहीं करते थे। मार्ग में किसी वैष्णव का दर्शन करने पर उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम करते थे। यदि कभी किसी वृद्ध वैष्णव को गङ्गा में स्नान करते हुए देखते, तो उनके पास जाकर उनकी धोती आदि वस्त्रों को धो देते तथा उनके साथ जाकर स्वयं उनके वस्त्र तथा लोटा आदि ढोकर उनके घर तक पहुँचा आते थे।
कन्याओं से हास-परिहास
कभी छोटी-छोटी कन्याएँ गङ्गाजी की या शिव-पार्वती की पूजा के लिए फल-मिठाई आदि लेकर आतीं, तो निमाइ अपने सखाओं के साथ उनके पास पहुँच जाते तथा कहते– “अरी! शिव मेरा दास है तथा पार्वती मेरी दासी है तथा यह गङ्गा भी मेरे चरणों की दासी है। अतः तुम मेरी पूजा करो, मैं तुम्हें मनचाहा वर दूँगा।” ऐसा कहकर उन कन्याओं से पूजा की सारी सामग्री छीनकर फूलमाला अपने गले में पहन लेते तथा फल मिठाई आदि अपने मित्रों में बाँटकर खा लेते। यदि कोई कन्या अपना सामान लेकर भागने लगती, तो ये जोर-जोर से कहने लगते– “अच्छा, भाग भाग पर ध्यान रखना तुझे बूढ़ा पति मिलेगा तथा तेरी सात-सात सौतें होंगी।” यह सुनकर वह बेचारी डरकर वापस आ जाती तथा फल-मिठाई आदि प्रभु को दे देती। प्रभु भी उसका नैवेद्य खाकर प्रसन्न होकर कहते– “अब तुम चिन्ता मत करना, तुम्हें सुन्दर पति मिलेगा।”
ब्राह्मणों एवं कन्याओं पर अपरोक्ष कृपा
निमाइ की ऐसी हरकतों से परेशान होकर एक दिन उन ब्राह्मणों एवं कन्याओं ने जगन्नाथ मिश्र के पास जाकर उनकी शिकायत कर दी। यह सुनकर जब जगन्नाथ मिश्र क्रोधित होकर हाथ में डण्डा लेकर प्रभु की पिटाई करने के लिए गङ्गा की ओर चल पड़े, तो वे कन्याएँ दौड़कर प्रभु के पास जाकर कहने लगी– “निमाइ! तुम शीघ्र ही यहाँ से भाग जाओ। तुम्हारे पिताजी डण्डा लेकर तुम्हे मारने के लिए आ रहे हैं।” वास्तव में प्रभु जब उन कन्याओं से हास-परिहास करते थे, तो बाहर से तो वे क्रोध प्रकट करती थीं, किन्तु भीतर से वे बहुत आनन्दित होती थी। वे सब निमाइ को अपने प्राणों से भी प्रिय मानती थीं। उन कन्याओं की बात सुनकर प्रभु ने अपने मित्रों को समझाया कि यदि पिताजी आकर तुमसे मेरे बारे में पूछें तो कह देना कि आज तो निमाइ आया ही नहीं। हम सब उसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अपने मित्रों को ऐसा पाठ पढ़ाकर प्रभु दूसरे मार्ग से घर पहुँच गये। घर पहुँचकर द्वार से ही माँ से कहने लगे– “माँ ! मुझे फूलमाला तथा तेल दो। मैं गङ्गा में स्नानकर गङ्गा की पूजा करूँगा।” उन्हें देखते ही शची माता ने आनन्द से उन्हें अपनी गोदी में ले लिया तथा बार-बार उनका मुख चुम्बन करने लगी। फिर उन्हें तेल एवं माला देते हुए मन-ही-मन सोचने लगीं कि निमाइ का शरीर तो धूलसे लतपथ है। इसके केश भी धूलसे धूसरित एवं बिखरे हुए हैं तथा इसके हाथों पर एवं मुख पर भी स्याही के निशान हैं। ऐसा एक भी लक्षण नहीं दिखायी पड़ रहा है कि इसने स्नान किया है। तो क्या वे ब्राह्मण एवं कन्याएँ झूठ बोल रहे थे। नहीं, यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि एक-दो लोग झूठ बोल सकते हैं, सब लोग नहीं। इस प्रकार वे इस विषय में सोच ही रही थी कि इतने में जगन्नाथ मिश्र गङ्गा के तट पर प्रभु को न पाकर क्रोध में भरकर घर आ पहुँचे। परम चतुर प्रभु ने जैसे ही उन्हें देखा, पिताजी, पिताजी कहते हुए वे उनकी गोदी में चढ़ गये। उनके मुखकमल का दर्शन एवं उनका स्पर्श पाते ही जगन्नाथ मिश्र का क्रोध कपूर की भाँति उड़ गया। उनकी आँखों से आनन्द के अश्रु प्रवाहित होने लगे। उनका हृदय गद्गद् हो गया। वे प्रभु को अपनी छाती से लगाकर उनके सिर को सहलाने लगे। तत्पश्चात् कुछ धैर्य धारण कर प्रेमपूर्वक कहने लगे– “बेटा निमाइ! तू गङ्गा में सबको तङ्ग क्यों करता है? और सुना है कि तू विष्णु की पूजा की वस्तुओं को भी नष्ट कर देता है तथा भगवान् के भोग के फल-मिठाई आदि खा लेता है।” यह सुनकर प्रभु कहने लगे– “पिताजी ! आज तो मैं अभी तक गङ्गा में गया ही नहीं। वे सब लोग मुझ पर मिथ्या आरोप लगा रहे हैं। मेरे दोष न करने पर भी यदि वे लोग मुझ पर दोष लगा रहे हैं, तब तो मैं सत्य ही उन्हें तङ्ग करूँगा।” ऐसा कहकर प्रभु हँसते हुए गङ्गा की ओर चल पड़े। उनके गङ्गा में पहुँचते ही उनके सखाओं ने उन्हें घेर लिया तथा उनकी जय-जयकार करने लगे।
प्रभु के चले जाने के पश्चात् जगन्नाथ मिश्र कहने लगे– “शची ! ऐसा लगता है, स्वयं भगवान् कृष्ण ने ही हमारे घर में निमाइ के रूप में जन्म लिया है। इसका कारण है कि जैसा कृष्ण के विषय में शास्त्रों में वर्णन है, ठीक वैसे ही गुण हमारे निमाइ में हैं। यह सबको तङ्ग करता है, तथापि सभी लोग इससे बहुत प्रेम करते हैं। पता नहीं क्यों इसे देखते ही मेरा क्रोध भी चला जाता है। जब वह मेरी गोदी में चढ़ जाता है, तो मैं सब कुछ भूल जाता हूँ। अतः निश्चित ही यह भगवान् है या फिर कोई सिद्ध महापुरुष है।” इस प्रकार कुछ क्षण के लिए जगन्नाथ मिश्र के हृदय में प्रभु के प्रति ऐश्वर्य बुद्धि आ गयी, परन्तु इतने में ही प्रभु के घर आ जाने पर उनका दर्शन करते ही जगन्नाथ मिश्र के हृदय में वात्सल्य भाव उमड़ आया। पुत्र के दर्शन के आनन्द से वे सब कुछ भूल गये।
विश्वरूप का संन्यास
प्रभु के बड़े भाई विश्वरूप ने अध्ययन पूरा कर लिया था। अब उनकी युवा अवस्था देखकर श्रीजगन्नाथ मिश्र ने उनके विवाह की चेष्टा आरम्भ कर दी। परन्तु इससे विश्वरूप बहुत दुःखी हो गये। अन्ततः एक दिन रात के समय वे गृह त्याग कर चले गये तथा संन्यास ग्रहण कर लिया। विश्वरूप के संन्यास से मानो जगन्नाथ मिश्र तथा शची माता के सर पर वज्र गिर पड़ा हो। विश्वरूप के गुणों का स्मरण कर रोते-रोते दोनों बेहाल हो गये। प्रभु भी भाई के विरह से अत्यन्त व्यथित हो गये। तब बन्धु बान्धवों के समझाने पर तथा अपने छोटे पुत्र निमाइ का मुख दर्शनकर जगन्नाथ मिश्र और शची माता कुछ शान्त हुए। अब प्रभु ने भी चञ्चलता बन्द कर दी। अब वे सर्वदा अपने पिता-माता के पास ही रहते थे तथा उन्हें यह कहते हुए सान्त्वना देते– “पिताजी! बड़े भैया ने संन्यास ले लिया है, तो क्या हुआ। आप लोग चिन्ता न करें, मैं तो हूँ ना आपके पास। मैं आप दोनों की अपने प्राणों से सेवा करूँगा।” प्रभु की ऐसी प्यार भरी बातें सुनकर एवं उनका मुख दर्शनकर धीरे-धीरे उन दोनों का दुःख कुछ कम होने लगा।
अब प्रभु ने खेलकूद बिल्कुल बन्द कर दिया और अब वे सारा समय किताबों में ही खोये रहते थे। एक बार पढ़ने मात्र से ही कठिन से कठिन सूत्र भी प्रभु को स्मरण हो जाता। इतनी छोटी-सी आयु में ऐसी तीव्र बुद्धि देखकर चारों ओर उनकी प्रशंसा होने लगी। लोग जगन्नाथ मिश्र से आकर कहते– “जगन्नाथजी! आप धन्य हैं, जो आपको ऐसा होनहार एवं महाबुद्धिमान पुत्र प्राप्त हुआ है।” यह सुनकर शची माता तो फूली नहीं समाती थी, परन्तु जगन्नाथ मिश्र के मनमें एक अनहोनी की आशङ्का जन्म लेने लगी। अन्ततः उन्होंने एक दिन शची माता से कहा– “शची! मेरा मन कह रहा है कि हमारा यह पुत्र भी घरमें नहीं रहेगा, क्योंकि विश्वरूप भी इसी की भाँति प्रकाण्ड विद्वान हो गया था। वह शास्त्रों का मर्म जान गया था किि यह संसार असार है, जिसके फलस्वरूप उसकी संसार से विरक्ति हो गयी थी और उसने संन्यास ग्रहण कर लिया अब निमाइ भी उसी के पदचिह्नों पर चल रहा है। यदि यह भी सर्वशास्त्रों का ज्ञाता हो गया, तो अवश्य ही यह भी संसार को केवल एक जज्जाल जानकर संन्यास ले लेगा और यदि यह भी हमें छोड़कर चला गया, ते हम दोनों का मरण निश्चित है। अतः मेरा विचार है कि इसकी पढ़ाई बन्द कर दी जाय। यदि यह मूर्ख ही रहेगा तो कभी भी हमें छोड़कर नहीं जायेगा।” सुनकर शची माता कहने लगी– “यदि यह मूर्ख ही रहेगा, तो अपना भरण-पोषण कैसे करेगा? तथा मूर्ख को अपनी कन्या भी कौन देगा?”
उनकी बात सुनकर जगन्नाथ मिश्र कहने लगे– “वास्तव में तुम अबोध ब्राह्मण कन्या हो, इसीलिए ऐसा कह रही हो तुमसे किसने कह दिया कि पाण्डित्य ही किसी का भरण-पोषण करता है, एकमात्र कृष्ण ही सबका भरण-पोषण एवं रक्षा करने वाले हैं। मूर्ख हो या पण्डित जिसके भाग्य में जहाँ कन्या लिखी होगी, उसे अवश्य ही मिलेगी। अतः तुम चिन्ता न करो जब कृष्ण सबका भरण-पोषण करते हैं, तब निश्चय ही वे इसका भी भरण-पोषण करेंगे।”
इस प्रकार बहुत सोच-विचारकर जगन्नाथ मिश्र ने अपनी शपथ देकर प्रभु का अध्ययन बन्द करा दिया। धर्म के साक्षात् मूर्तिस्वरूप प्रभु ने भी अपने पिताजी के आदेश का उल्लंघन न कर चुपचाप उनकी बात को स्वीकार कर लिया तथा विद्यालय जाना बन्द कर दिया।
पुनः चञ्चलता प्रकाश
अध्ययन बन्द हो जाने से प्रभु अत्यन्त दुःखी हो गये, परन्तु कुछ बोले नहीं अब फिर से उन्होंने पहले की ही भाँति नटखटता आरम्भ कर दी। कभी अपने साथ बहुत से बालकों को लेकर किसी के घर में घुस जाते तथा वहाँ रखा हुआ दूध, दही आदि खाकर घर का सारा सामान तोड़ फोड़ देते। कभी रात के समय सभी बालक कम्बल ओड़कर पशुओं की भाति चलते हुए किसी के केले के बाग में घुस जाते तथा सारे बाग को नष्ट कर देते थे। लोग पशु जानकर हाय हाय' करते हुए डण्डे लेकर आते तो सभी बालक भाग जाते। कभी किसी के घर का द्वार बाहर से बन्द कर देते। जिससे घर के लोग शौच (मल-मूत्र) आदि नहीं जा पाने के कारण चिल्लाते– “अरे द्वार किसने बन्द कर दिया और सभी चालक वहाँ से भाग जाते तब दूसरे लोग आकर द्वार खोलते थे। जब लोग उनकी शिकायत करने के लिए जाते, तो जगन्नाथ मिश्र उनके आगे हाथ जोड़कर क्षमा माँगते, परन्तु प्रभु को कुछ भी नहीं कहते थे।
माता को शिक्षा
एक दिन जगन्नाथ मिश्र किसी कारणवश कहीं बाहर गये हुए थे। शची माता भगवान् के लिए भोग बनाने के बाद मिट्टी की जिन हाँडियाँ को घर के बाहर कूड़े के डेर पर फेंक देती थीं, प्रभु उन पर आसन लगाकर बैठ गये। हाँडियों की सारी कालिख उनके शरीर पर लग गयी, जिससे उनकी शोभा ऐसी हो गयी, मानो सोने की मूर्ति के ऊपर किसी ने गन्ध द्रव्य का लेप किया हो जब माता को पता चला तो वे दौड़कर आयीं और कहने लगीं– “बेटा निमाइ तू इन अपवित्र हाँडियों पर क्यों बैठ गया ? क्या तुझे मालूम नहीं है कि इन अपवित्र हाँडियों को स्पर्श करने पर स्नान करना पड़ता है।” प्रभु हंसते हुए कहने लगे– “माँ ! तुम लोग मुझे विद्या अध्ययन नहीं करने दे रहे हो तो फिर तुम ही बताओ कि एक मूर्ख ब्राह्मण बालक को अच्छे-बुरे का ज्ञान कैसे होगा? और माँ आपने जो कहा कि तू अपवित्र स्थान पर बैठ गया है, तो आप बालक के समान बात कर रही है। मेरी स्थिति कभी भी अपवित्र स्थान पर नहीं होती। जहाँ पर मैं अवस्थित होता हूँ, यदि वह स्थान अशुद्ध भी हो, तो भी मेरे स्पर्शमात्र से वह सर्वश्रेष्ठ तीर्थ स्थान हो जाता है। गङ्गा आदि समस्त तीर्थ वहीं पर आकर विराजमान हो जाते हैं और माता ये हाँडिया अपवित्र कैसे हो गई? आपने इनमें भगवान् के लिए भोग तैयार किया। जो वस्तु भगवान् की सेवा में लग जाती है, वह कभी भी अपवित्र नहीं हो सकती। बल्कि इन हाँडियों के स्पर्श से यह स्थान भी परम शुद्ध हो गया है। इसलिए मैं अपवित्र स्थानपर नहीं बैठा हूं। सभी वस्तुओं की शुद्धता तो मेरे स्पर्श के कारण ही है।” इस प्रकार बाल्यभाव में आविष्ट होकर प्रभुु श्रीगौरसुन्दर अपना तत्त्व कहने लगे, परन्तु उनकी माया के प्रभाव से उसे कोई समझ नहीं पाया।
तत्पश्चात् शची माता स्वयं जाकर उनका हाथ पकड़कर लाने लगीं, तो प्रभु कहने लगे– “यदि तुम लोग मुझे पढ़ने नहीं दोगे, तो मैं यहीं पर बैठा रहूँगा।” यह सुनकर वहाँ पर उपस्थित सभी लोग कहने लगे– “लोग अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, परन्तु वे पढ़ना नहीं चाहते। और सौभाग्य से तुम्हारा पुत्र स्वयं पढ़ना चाहता है, परन्तु तुमने इसकी पढ़ाई बन्द कर दी । तुम्हारे किस शत्रु ने तुम्हें ऐसी बुद्धि प्रदान की है। अतः आज यह निमाइ जो कर रहा है, इसमें इसका कोई दोष नहीं है।”
ऐसा कहकर सभी लोग निमाइ से बोले – “बेटा निमाइ! अब वहाँ से उठ जा। अब भी यदि तुम्हारे माता-पिता तुझे नहीं पढ़ायेंगे, तो तू खूब नटखटता करना।” तब शचीमाता प्रभु को लेकर आयी और प्रभु भी मुसकराते हुए माँ के साथ आ गये। माता ने उन्हें स्नान कराया। उसी समय जगन्नाथ मिश्र भी आ गये। शचीमाता ने उन्हें सारी बात बतालायी कि निमाइ पढ़ाई बन्द हो जाने से बहुत दुःखी है। तब अन्यान्य लोगों ने भी समझाया– “मिश्र! तुम तो स्वयं एक विद्वान हो। तो फिर किसके कहनेपर तुम निमाइको पढ़ने नहीं दे रहे हो ? भगवान्की जैसी इच्छा है, वह तो होकर ही रहेगी। उसे कोई भी टाल नहीं सकता। इसलिए भय छोड़कर पुत्रको पढ़ाओ।”
उपनयन संस्कार तथा पुनः विद्या-अध्ययन आरम्भ
बन्धु-बान्धवों की बात सुनकर तथा पुत्र की तीव्र इच्छा जानकर जगन्नाथ मिश्र ने विचार किया कि जो हमारे भाग्य में लिखा है, वह तो घटित होगा ही, अतः निमाइ की पढ़ाई आरम्भ कर देनी चाहिये। ऐसा विचार कर उन्होंने पहले निमाइ का उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार कराने की इच्छा की। इस अनुष्ठान पर उन्होंने अपने समस्त बन्धु बान्धब को आमन्त्रित किया शुभ मास, शुभ दिन में, शुभ क्षण में श्रीगौरहरि ने यज्ञसूत्र धारण किया। उस समय उनके शरीर पर यज्ञसूत्र (जनेऊ) ऐसे सुशोभित हो रहा था, मानो स्वयं शेषनाग ही सूक्ष्मरूप धारणकर उनके श्रीअङ्ग से लिपट गये हों। उस समय प्रभु की शोभा भगवान् वामनदेव की भाँति हो गयी। उनके शरीर से दिव्य तेज निकल रहा था। उनके उस स्वरूप को देखकर किसी की भी उनके प्रति मनुष्य बुद्धि नहीं रही। प्रभु श्रीगौरसुन्दर हाथ में दण्ड तथा कन्धे पर झोली धारणकर सबके घर-घर जाकर भिक्षा माँगने लगे। स्त्रियाँ निमाइ को भिक्षुक के वेश में देखकर आनन्दित होकर स्नेह पूर्वक उन्हें बहुत सी भिक्षा प्रदान करने लगी। ऐसे महान् सौभाग्य से भला देव-देवियाँ क्यों वञ्चित रहते। ब्रह्माणी, पार्वती आदि देवताओं की पत्नियाँ तथा अनसूया आदि ऋषियों की पत्नियाँ भी साधारण ब्राह्मणियों का वेश धारणकर अति प्रसन्न होकर प्रभु की झोली में भिक्षा प्रदान करने लगीं। इस प्रकार उपनयन संस्कार के पश्चात् जगन्नाथ मिश्र प्रभु को सान्दीपनि मुनि के अवतार गङ्गादास पण्डित के पास ले गये तथा उनसे अपने पुत्र को शिक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की।
गङ्गदास पण्डित ने मिश्र की प्रार्थना को आनन्दपूर्वक स्वीकार कर लिया। अब प्रभु का अध्ययन प्रारम्भ हो गया। गङ्गादास पण्डित एक बार जो कुछ भी पढ़ा देते, वह सब प्रभु को स्मरण हो जाता। यहाँ तक कि गङ्गादास जो व्याख्या करते प्रभु उसका खण्डन कर देते तथा फिर उसीको स्थापित भी कर देते। यह देखकर गङ्गादास अत्यन्त विस्मित हो जाया करते थे। प्रभु की तीव्र बुद्धि एवं प्रतिभा देखकर उन्होंने प्रभुको सर्वश्रेष्ठ छात्र की उपाधि प्रदान कर दी। प्रभु अपने से ऊँची कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों को भी बातों ही बातोंमें पराजित कर दिया करते थे।