भाग 98
सभी की संवेदना अशोक और उसके परिवार के लिए थी। ईश्वर ने बड़ा अन्याय किया अशोक और उसके बच्चों के साथ।
सिर्फ चाची ही ऐसी थी जिसे संवेदना से ज्यादा क्रोध था अशोक पर। उसने उर्मिला पर कोई रोक टोक, कोई लगाम नहीं लगाई थी। जो वो कहती थी, वही अशोक करता था। इसका उन्हें दुख था। अगर उसकी बात मान कर अशोक इन लोगों की बातों में आ कर साथ नही गया होता, उनकी बात मान कर रुक गया होता तो क्यों ये सब होता..! आज ये घर इस तरह मातम नहीं मना रहा होता। जब घर परिवार में बड़े-बूढ़ों की बात अनसुनी कर के कोई काम किया जाता है तो उसका ऐसा ही हश्र होता है। यही बात वो बार-बार हार आने जाने वाले से कह रही थीं।
ये मनहूस खबर शमशाद के घर भी पहुंची। नाज़ ने जब ये सुना तो तड़प उठी अपनी सहेली पुरवा से मिलने को.., उसके दुख में साथ खड़े होने को। वो अपने ससुराल से सीधा आरिफ के साथ मायके आई। नईमा उसी के आने का इंतजार कर रही थी कि नाज़ आए तो फिर साथ में दोनो पुरवा के घर उससे मिलने जाएं। नाज़ के आते ही नईमा और बब्बन उसे साथ ले अशोक के घर चल दी।
लोगो की भीड़ लगी हुई थी। नाज़ भागती हुई गई और पुरवा से लिपट कर रोने लगी। पुरवा भी जैसे अपने दिल का दर्द व्यक्त करने को उसी का इंतजार कर रही थी। नाज़ ने पुरवा के आंसू पोंछ कर उसे समझाने का प्रयत्न किया। पर वो कुछ बोलती उसके पहले ही चाची की कड़कदार आवाज गूंजी,
"देखो… जरा इन्हें..! जरा भी शर्म हया नही है। पहले दोस्ती करते हैं फिर छुरा भौंकते हैं। नही चाहिए तुम्हारी हमदर्दी। चली जाओ यहां से। इन दो मुहे लोगो के फेर में पड़ कर ही एक बसा बसाया घर उजाड़ हो गया।"
चाची बिना रुके जाने क्या क्या भला बुरा कहती रहीं। उनके स्वर में कई स्वर मिल कर साथ देने लगे।
बब्बन भी अपने दोस्त कि ऐसी हालत देख कर बहुत दुखी हुआ। पर क्या करता..! सब की नजर में वही लोग कुसूर वार थे। वो चाह कर भी रूक नहीं सकता था।
फिर तो नईमा और नाज़ को साथ लेकर बब्बन को वहां से वापस लौटा आना ही उचित लगा। नाज़ ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और बोली,
"पुरवा तू रो मत। मैं फिर आऊंगी। सब ठीक हो जायेगा।"
पुरवा को दिलासा दे कर नईमा और नाज लौट आई। उन्हें दुख था कि उन्हें गलत समझा जा रहा है। जब नाज़ पुरवा के साथ खड़ी हो कर उसके दुख को कम करना चाहती थी। उसे भगा दिया गया।
इतना बड़ा अनर्थ हो गया था भला नातेदारों रिश्तेदारों से कितनी देर छुपता..!
सब मातम व्यक्त करने आने लगे।
भला गुलाब बुआ ये खबर पा कर कैसे खुद को रोकती…! उर्मिला तो उनकी भी चहेती थी। अशोक को बुआ और गुलाब बुआ दोनो ही रोती पीटती आई।
कहां तो इंतजार था कि बैशाख में पुरवा की शादी होगी। इस घर के दरवाजे पर बारात आयेगी… शहनाई बजेगी.. । कहां अब शोक मनाया जा रहा है।
चंदू नंदू को साथ ले पुरवा के मामा मामी भी इस विपत्ति की घड़ी में साथ निभाने आ गए थे।
अशोक को तो दिन दुनिया की कुछ खबर ही नहीं थी।
चाची के आदेशानुसार अब उर्मिला का सारा क्रिया कर्म विधि विधान से करना जरूरी है। वरना उसकी आत्मा को शांति नही मिलेगी। भटकती रहेगी।
अशोक की ऐसी हालत थी कि वो कुछ कर नही सकते थे। इस कारण सब कुछ करने की जिम्मेदारी पुरवा के मामा मामी ने ले ली।
वो चाची के बताए अनुसार सारा कुछ कर रहे थे।
शायद इसी लिए इतने कर्म काण्ड बनाए गए है कि आदमी मृत आत्मा की शांति के लिए वो सब कुछ करे। और फिर उस जिम्मेदारी में इतना व्यस्त हो जाए कि दुख का एहसास कम हो।
ऐसा ही पुरवा के घर में भी सब के साथ भी हो रहा था। मामा बाहर की व्यवस्था करते… मामी अंदर की जिम्मेदारी निभाने में व्यस्त रहतीं।
पुरवा बुत बने बाऊ जी का हाथ पकड़ा पकड़ा कर सारे कर्मठ करवाती। बीच बीच में आंसुओ का वेग संभाले ना संभलता। आज ये उसे क्या कुछ करना पड़ रहा है….! चंदू नंदू ना घबराए इस लिए वो उनके आगे भरसक सामान्य ही दिखने का प्रयत्न करती।
तेरहवें दिन तेरही हो गई और बुआ की सलाह पर सोलहवें दिन वार्षिकी भी कर दी गई।
समय किसी की प्रतीक्षा नही करता। वो अपने रफ्तार से ही चलता है। ना सुख के दिन किसी के रोके रुकते है, ना दुख की घड़ियां जल्दी बितती है।
धीरे धीरे एक एक कर के मेहमान भी जाने लगे।
आखिर में बस अशोक की बुआ और गुलाब ही बची। जवाहर भी आए थे, वो बस इन्हें साथ ले जाने के लिए रुके हुए थे।
शाम को सब इत्मीनान से बैठे थे कि चलो इस घर की बहु की आखिरी विदाई के लिए जो भी वो कर सकते थे किए।
गुलाब ने पति की ओर देखा और फिर पुरवा के मामा से कहना शुरू किया,
"बेटा…अशोक को तो कुछ याद ही नहीं है। उसने और उर्मिला ने मेरे बेटे महेश से पुरवा का रिश्ता पक्का किया था। मैने भी शगुन कर दिया था और अशोक ने भी छेंका की रस्म सादगी से यहीं कर दी थी। बैसाख में शादी होनी थी। पर .. अब .. मुझे लगता है कि पुरवा को इस दुख से उबारने और घर में माहौल को ठीक करने के लिए.. पहला शुभ मुहूर्त देख कर उसे अपने घर की बहु बना कर ले जाना चाहिए।"
पुरवा की मामी बोली,
"अब जीजी के जाने के बाद हम इस घर को अकेले किसके भरोसे छोड़ दे। आखिर ये मेरे भगिनों की अमानत है। हमको तो देख भाल के लिए यहां रहना ही होगा। पुरवा बच्ची ही तो है। क्या क्या वो बिचारी अकेले कर लेगी..!"
मामा बोले,
"आपका सुझाव सही है। मुझे कोई आपत्ती नही है। पर मैं कुछ खास व्यवस्था नहीं कर पाऊंगा.. ना ही बहुत धूमधाम को मेरा दिल गवाही देगा। सादगी से आप ब्याह करना चाहें तो हम तैयार हैं।"
मामी भी भरे कंठ से बोली,
"ये हमारी जीजी की अमानत है। हम इनको हमेशा खुश रखने की कोशिश करेंगे। अब जीजी का जोड़ा संबंध पूरा हो जाए यही हमारी भी कोशिश है। पुरवा को खुशी खुशी हम विदा कर दे तो उर्मिला जीजी को भी शांति मिलेगी कि उनकी पुरवा दुलहन बन गई।"
गुलाब बुआ बोली,
"तो.. फिर ठीक है..। अगहन में अच्छा सा लगन देख कर हम चार छह लोग को लेकर आएंगे और अपनी पुरवा की विदा करा ले जायेंगे। अरमान तो मुझे भी बहुत था महेश की शादी का। पर क्या करें जब ईश्वर को ही मंजूर नहीं था तो।"
पंडित से बिचरवाने पर अगहन में एकादशी के दिन का शुभ मुहूर्त निकला।
गुलाब बुआ इसके बाद अपने घर लौट गईं।