भाग 84
अमन मुखिया के पैरो पर अपना सिर रक्खे हुए बोला,
"मुझसे गलती हो गई भाई जान..! रहम कर दीजिए। बक्श दीजिए।"
वो मुखिया बोला,
"तू मुसलमान है ना..!"
अमन से उसके पैरों से सिर उठा कर जल्दी से "हां" में हिलाया।
मुखिया बोला,
"कोई बात नही। अभी दूध का दूध, पानी का पानी हुआ जाता है।"
फिर एक आदमी से बोला,
"भाई जान… मुसलमान है। उतार दो रे … इसकी पैंट। देखो जरा इसकी बात में कितनी सच्चाई है।"
मुखिया की इस बात पर सभी हा… हा .…कर के हंस पड़े।
फिर एक ने अमन को उठाया और उसकी पैंट के बटन को खोल कर झांकने लगा। अमन शर्म से गड़ा जा रहा था। अशोक, उर्मिला, पुरवा , इतने सारे अजमानियों के बीच, सब के सामने उसकी इतनी बेइज्जती हो रही थी। उसे नंगा किया जा रहा था। पर क्या करता सब कुछ सहने के सिवा। इस वक्त यही मुनासिब था। इनकी हर उल्टी सीधी मांग के आगे सिर झुकाना ही बचने का एक मात्र रास्ता था।
उस आदमी अमन के पैंट में झांक कर देखा और बोला,
"सरदार…! ये सच बोल रहा है। वाकई ये मुसलमान ही है। हमारा भाई ही है।"
फिर धक्का दे कर अमन को सीट पर गिरा दिया।
एक अधेड़ बड़ी ही गंदी नजरों से उर्मिला को घूर रहा था। ये वही आदमी था जो बीती रात से कोढ़ी बन कर गाड़ी के दरवाजे के पास बैठा हुआ था।
वो मुखिया के पास आया और ललचाई नज़रों से उर्मिला को घूरते हुए बोला,
"सरदार…! इसे मुझे दे दें। बीती रात से ही इसे देख रहा हूं और किसी तरह खुद को सब्र किए हूं। बीबी को गुजरे तीन महीने हो गए हैं। इजाजत हो तो अपनी प्यास बुझा लूं। कत्ल से पहले ये काफिर कुछ तो हमारे काम आ जाए।"
अशोक उस कोढ़ी का नाटक किए आदमी की बात सुन कर खून खौल उठा, तेजी से उठ कर उसके कुर्ते को पकड़ कर बोला,
"कमीने…! तेरी इतनी हिम्मत…! मेरे सामने मेरी पत्नी के बारे में इतनी गिरी हुई बातें कर रहा है। अरे..! कुछ तो अपने खुदा से डर..! तेरे घर में भी तो बहन बेटियां होंगी।"
वो आदमी मक्कारी से हंसते हुए बोला,
"है ना… बहन भी है .., बेटी भी है। बस बीवी अल्ला को प्यारी हो गई। उसी की कमी खल रही है। उसी को तो पूरा करना चाहता हूं।"
ओढ़नी के अंदर से पुरवा से सब देख कर भीतर तक दहल गई थी। हे .! प्रभु रक्षा कर। अम्मा और बाऊ जी की ऐसी हालत देख कर आंखे जड़ हो गई थीं। आंसू जैसे बहना भूल गए थे। पर सब कुछ बर्दाश्त करना था। अगर ये अम्मा की उम्र का लिहाज नही कर रहे.., उन्हें नही बक्श रहे तो.. वो हिंदू है और उन्ही की बेटी है ये जान कर उसका क्या हाल करेंगे। इसकी कल्पना भी उसे दहला दे रही थी। चुप रहना.., होठों को सी लेना ही इस समय का तकाजा था। वो सब कुछ अपनी आंखो के आगे होते देख कर भी सहने को, चुप रहने को मजबूर थी। काश वो बेटा होती..! बेटी होने और अपनी इज्जत पर आंच आने का डर ना होता तो वो कभी इन दंगाइयों के आगे घुटने ना टेकती।
अशोक को एक तरफ धकेल कर तलवार उसके पेट में घुसा दिया। एक हृदय विदारक चीत्कार के साथ अशोक नीचे गिर पड़े।
उर्मिला का हाथ पकड़ कर घसीटते हुए वो आदमी गाड़ी के नीचे ले जाने लगा।
अमन का खून खौल रहा था ये सब देख कर पर पुरवा की सुरक्षा के बारे में सोच कर उसको खुद पर काबू रखना था। उनसे भिड़ना पुरवा को खतरे में डालना था। वो खुद को तो कुछ भी हो बर्दाश्त कर लेता। पर पुरवा एक लड़की थी और हर लड़की के लिए उसकी आबरू से बढ़ कर कुछ नही होता।
उर्मिला चीखती रही अपनी इज्जत बचाने के लिए उसे उसके खुदा का वास्ता देती रही पर उस वहशी पर ऐसा नशा चढ़ा था कि उसे कुछ भी सुनाई दिखाई नही दे रहा था। उसे तो बस किसी तरह अपनी हवस को शांत करना था। उसकी मजबूत पकड़ के आगे उर्मिला का विरोध बौना साबित हो रहा था। वो चिल्लाती, मिन्नत करती उसके पीछे पीछे घसीटती हुई मजबूर चली जा रही थी। पुरवा से नही देखा गया अपनी अम्मा की बेबसी का तमाशा। उसने उधर से मुंह घुमा लिया। ना तो दिमाग काम कर रहा था, ना ही उसे कुछ समझ आ रहा था।
पूरे डिब्बे में आतंक का खूनी खेल खेलने के बाद वो वापस अमन के पास आए। पुरवा अर्ध बेहोशी की हालत में सीट पर पीछे की और सिर टिकाए बैठी हुई थी। और बोले,
"भाई तुम तो अपनी ही जमात के हो। चलो हमारे साथ। अब ये ट्रेन आगे नहीं जायेगी आज। जब जायेगी तब जाना। अभी तुमको भी हमारा साथ देना होगा।"
उसकी आवाज में एक आदेश का पुट था कि हम पूछ नही रहे.. आज्ञा दे रहे है।
अमन समझ गया पर फिर भी बोला,
"आप… आप…! क्यों तकलीफ करेंगे। हम जहां भी ये ट्रेन जायेगी, जब भी जायेगी हम चले जायेंगे। आप क्यों तकलीफ करेंगे..!"
मुखिया बोला,
"जो कह.. दिया सो कह दिया..। चुप चाप चलो हमारे साथ। अपनी कौम पर हुए अत्याचार का बदला नही लेना तुम्हें..? कैसे मुसलमान हो तुम..? उठो चलो।"
शायद इस घटना की खबर पुलिस महकमे को भी हो गई थी। वो भी आ रहे थे। अब ये अत्याचारी वहशी नही रुक सकते थे। दूसरे पर वार करना, हत्या करना आसान है। पर जब खुद की बारी आती है तो डर से उनका कलेजा दहल जाता है। अब सिपाहियो के डर से अपनी जान बचाने को भाग रहे थे वही लोग जो थोड़ी देर पहले हाथों में हथियार लहराते हुए खुद को शेर समझ कर निर्दोष लोगों का खून बहा रहे थे।
अमन देख रहा था। अशोक की गले की नस आहिस्ता आहिस्ता हिल रही थी। वो अगर रुकने पाता तो अशोक के इलाज का कुछ बंदोबस्त करता। पर ये जालिम मुखिया…! ये साथ लिए बिना जाने वाला नही था।
"उठो चलो.."
कह कर अमन और पुरवा को आगे कर के वो खुद उनके पीछे पीछे चलने लगा।
अमन और पुरवा को बीच में रख कर वो सब दंगाई तेजी से भागने लगे।